Thursday, 23 June 2016

.................................दुनिया के चिन्तकों ,विचारकों ,पैगम्बरों और धर्मगुरुओं ने इस विभिन्नता के कारणों की खोज की ,दार्शनिक कल्पनाओं को रूपायित किया है । हर धर्म ने यह प्रयास किया है कि कल्पना को बुद्धि परक रूप देकर उसे जन सामान्य के लिये विश्वसनीय बनाया जाय । यह दूसरी बात है कि विज्ञान के बढ़ते कदमों ने इन कल्पनाओं के ऊपर चढ़े तार्किक आवरणों को उतार कर उन्हें काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया है  फिर भी विश्वासों ,मजहबों और सम्प्रदायों की पुरानी मान्यतायें अभी तक पूरी तरह न असर नहीं हुयीं । ब्रम्हाण्ड के रहस्यों को विज्ञान के बढ़ते कदम जितना अधिक खोलते हैं उतना ही अधिक वह अपनी आन्तरिक जटिलता प्रकट करता है । यह भी एक कारण है कि अभी तक Hell ,Heads, और Heaven की धारणायें पूरा असर नहीं खो सकीं हैं । क़यामत के दिन की बात आज भी कही ,सुनी और गायी जाती है । भारत वर्ष में भाग्य ,पुनर्जन्म और पिछले जन्मों के संचित कर्मों से प्रभावित मानव के वर्तमान जीवन की धारणा आज भी करोड़ों प्राणियों को एक मनोवैज्ञानिक सहारा देती रहती है । 'माटी ' निर्विवाद रूप से यह नहीं कहती कि इन मिथिकों के पीछे बौद्धिक विश्लेषण नहीं है पर इतना अवश्य मानती है कि इन मिथिकों का सहारा लेकर अपने वर्तमान जीवन यानि जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें किये गये कर्मों की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता । अब प्रश्न यह उठता है यदि मजहबी या साम्प्रदायिक धारणायें अवैज्ञानिक ,अर्ध वैज्ञानिक या अस्पष्ट और बेतुकी हैं तो फिर प्रकृति में आयी जाने वाली अपार विभिन्नता कौन सा  बौद्धिक विश्लेषण खरा उतर सकेगा । पदार्थ वादी विचारक काल की निरन्तरता और पदार्थ में निहित परिवर्तनशीलता को ही विभिन्नता के मूल श्रोत के रूप में लेते हैं । जब कुछ भी स्थिर नहीं है तो परिवर्तन की निरन्तरता ही स्थिर है । अंग्रेजी में एक वाक्य है " No man can take bath twice in the same river." इसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि प्रवहमान सरिता का जल निरन्तर बहता रहता है और एक बार नहाकर जब आप दूसरी बार नहाते हैं तो परिवर्तित जल में नहाते हैं भले ही सरिता की निरन्तरता कायम हो यानि परिवर्तन ही सत्य है । विश्व के अब तक के सबसे बड़े वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने यूनिवर्स की उत्पत्ति के साथ ही टाइम या काल की उत्पत्ति को ही मान्यता दी है । इस प्रकार काल की सरिता शायद अनन्त से अनन्त की ओर बह रही है । जीवन की उत्पत्ति भले ही कई करोड़ वर्ष पहले हुयी हो पर काल की निरन्तरता में वह एक बिन्दु मात्र ही  है । दैव वादी विचारक जिन्हें  आदर्श वादी विचारक भी कहा जाता है यह मानते हैं कि यूनिवर्स की उत्पत्ति के पीछे  दैव का हाथ है । न कुछ से कुछ की श्रष्टि नहीं हो सकती । दैव की इच्छा से ही ब्रम्हाण्ड का सृजन और विस्तार हुआ । चेतन से ही अचेतन संचालित हो सकता है पर पदार्थवादी विचारक इस तर्क को नकारते हुये कहते हैं कि पदार्थ सनातन है और चेतना पदार्थ में ही निहित है । चेतना उनकी द्रष्टि में पदार्थ का ही उत्कृष्टम् परिवर्तित रूप है । सहत्राब्दियों से यह नोक -झोंक चल रही है । नीत्से ने तो  यहाँ तक कह डाला " Man has become adult there is no need for a father figure (God ) ." पर ब्रम्हाण्ड के सुचालित नियम पद्धति को देखकर आंइस्टाइन भी यह कहने पर विवश हो गये थे ," There may be no personal God , but there seems to be some order behind the functioning of the universe ." (क्रमशः )

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