Saturday, 2 April 2016

Svargaarohan

                                                   स्वर्गारोहण
           
    विन्ध्य की श्रृंखलाओं को पार कर महर्षि अगस्त का अनुगमन करते हुये शताधिक आर्य युवक सुदूर दक्षिण की वनस्थलियों में निवास करने लगे थे । उत्तर और दक्षिण का अद्धभुत समागम प्रारम्भ हो गया था । यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिये सुवासित पेड़ों की सूखी डालों को काट कर एकत्रित करने   का पवित्र कार्य अनेक सुशोभन युवकों को अपनी ओर आकृष्ट करने लगा था । धीरे -धीरे इन नव युवकों में से कइयों ने अपने आश्रम बना लिये थे । आस -पास के जंगलों से मुक्त की गयी भूमि इन्हें सम्पन्नता की ओर बढ़ाने में लगी थी ।  आर्य युवतियां अभीतक पर्याप्त संख्या में दक्षिण के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में नहीं पहुँच पायी थीं । नर -नारी के स्वाभाविक आकर्षण ने कई स्थानीय युवातियों को आर्याव्रत से आये नवयुवकों को अपनी ओर खींचने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था । कार्य -कारण की तलाश और विज्ञान सम्मत बौद्धिक चिन्तन अभी तक अपनी प्रारम्भिक अवस्था में हेी थे । लगभग सभी यह मान कर चल रहे थे कि यौगिक शक्तियों से सम्पन्न नर -नारी अपनी आत्मा को अपने शरीर से अलग कर किसी अन्य शरीर में प्रवेश कर सकते हैं । और कुछ विशिष्ट शक्तियों के बल पर अपनी आत्मा शून्य देह को लम्बे समय तक क्षरण से बचा सकते हैं । ताकि वे जब चाहें वापस अपने मूल आकार में में सजग सक्रिय हो जायँ । शीले ग्राम की नर्तकी चम्पा कुसुम अपने रूप और नृत्य के लिये तो चर्चित थी ही पर साथ ही उसके लालच का भी कोई अन्त न था । चन्दन की लकड़ी काट कर यज्ञ की अग्नि के लिये सुवासित सामग्री जुटाने वाला पुष्ट शरीर का धनी भानदत्त की ओर चम्पा कुसुम का ध्यान केन्द्रित होने लगा । भानदत्त ने थोड़ी बहुत सम्पत्ति भी अर्जित कर ली थी  और साथ ही भविष्य में उसमें कुछ कर दिखाने की क्षमता भी थी । चम्पा ने भानदत्त की ओर डोरे डाले पर भान ने उसे एक परिचित के अतिरिक्त और कुछ नहीं माना । किसी तरुणी  अपमान और विशिष्टतः किसी प्रार्थिता तरुणी के प्यार का तिरस्कार प्रतिशोध की भावना जगा दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या ?अब क्या था चम्पा ने राजा के समक्ष भान दत्त को एक अभियोगी के रूप में पेश कर दिया । अभियोग यह था कि भान दत्त ने उससे विवाह सम्बन्ध स्थापित किया था और उसकी स्वीकृत के लिये उसे सहस्त्र पण देने का वायदा किया था । पर  विवाह सम्बन्ध के बाद अब वह उस वादे से मुकर रहा है । चम्पा रानी ने राजा से न्याय की गुहार लगायी । और साथ ही यह भी कहा कि आर्याव्रत से आये ये मनचले नव  युवक दक्षिण की कलाप्रेमी युवतियों का उपहास उड़ा रहे हैं । भान दत्त ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुये राजा को बताया कि चम्पारानी उसकी परिचित के अतिरिक्त कुछ नहीं है और न ही उसने उन्हें एक सहस्त्र पण देने की बात की है । पर चम्पा रानी नर्तकी के रूप में काफी ख्याति कमा चुकी  थी और उसने जोर देकर कहा वो जो कह रही है वह ठीक है और भान दत्त को कडा से कडा दण्ड मिलना चाहिये । राजा पशोपेश में पड़ गया अब क्या किया जाय ?राजा ने अपने वजीर गूढदृष्टि  को बुलाया और पूछा कि सच्चायी का पता कैसे लगाया जाय । गूढ़ द्रष्टी द्वारा भेजे गये राज्य के भिन्न -भिन्न भागों में बहुत से भेदिये घूमा करते थे उनमें से एक ने गूढ़ दृष्टि को बताया था कि कुश पुरी के निरंजन शाह के पास एक बहुत बुद्धिमान तोता है जो आदमी का बोल बोल लेता है । और हर उलझे हुये प्रश्न की सच्चायी का पता लगा लेता है । इस तोते का नाम हरिभक्त है । निरंजन शाह एक बहुत बड़े साहूकार थे और राजा ने उनकी अपार सम्पदा की उड़ -उड़कर आने वाली कहानियाँ सुन राखी थीं राजा के हुक्म से हरिभक्त तोते को बड़ी देख -रेख के बीच  दरबार में लाया गया । अब चम्पा रानी और हरिभक्त  के बीच बातचीत प्रारम्भ हुयी ।   न्याय मूर्ति शुक राज ने पूछा ," आपका क्या नाम है ?"चम्पा रानी बोली ,"हे तोते ,तू मुझे जाने या न जाने , सारा राज्य जानता है कि मैं नर्तकी चम्पारानी हूँ ।"बेचारा भानुदत्त अपना भोला चेहरा लिये सामने खड़ा था शुकराज ने उससे कुछ नहीं पूछा । चम्पारानी से उसने फिर पूछा ," बोलो भानुदत्त  तुम्हें क्या शिकायत है ?"चम्पारानी ने अपना झूठा अभियोग फिर दोहराया और बोली कि भानुदत्त न केवल झूठा है वरंन चरित्र से गिरा हुआ भी है । शुकराज ने पूछा आपका ब्याह किसके सामने हुआ था । चम्पारानी ने कहा कि उसका ब्याह नागराज के मन्दिर में हुआ था । शुकराज ने आगे प्रश्न किया ," वहाँ कौन -कौन उपस्थित था ?"चम्पारानी बोली ,"वहाँ नागराज की मूर्ति के अतिरिक्त और कोई भी नहीं था ।"शुकराज आदमी की हँसी हँसे फिर बोले ,"चम्पारानी आप को ब्याह की तारीख याद है । अब बड़ी मुसीबत आ गयी । चम्पारानी नाच के लिये इधर -उधर आया जाया करती थी । दिनों और तारीखों के गड्ड -मड्ड में वे गलती कर बैठी उन्होंने जिस तारीख का नाम लिया उस दिन वे निरंजन शाह के एक दोस्त हीरा चन्द्र के यहाँ नाच दिखा रही थी । पूरे दिन और  रात वहीं पर रही थी । हीराचंद्र के गांव से बीसों दर्शक बुलाये गये जिन्होनें जोर देकर कहा कि चम्पारानी उस दिन भानदत्त से मिली ही नहीं थी वे तो बीसों मील दूर हीराचंद्र के  महल में अपनी कला प्रदर्शन के लिये गयी थी । शुकराज हरिभक्त ने अपना फैसला सूना दिया । चम्पारानी का आरोप झूठा है उसे भरी सभा में भानदत्त से माफी मांगनी पडी । पर जब शुकराज को सोने के पिजड़े में दरबार से बाहर निरंजन शाह के घर में ले जाने के लिये रथ में आसीन किया जा रहा  था तो चम्पाबाई ने उसकी ओर आग बबूला आँखों से देखते हुये कहा ,"ऐ बड़बोले तोते एक दिन तेरी गर्दन तपती सलाखों से सेंक कर अगर मैनें नहीं खायी तो मेरा नाम चम्पारानी नहीं । शुकराज आदमियों वाली एक गहरी हँसी हँसे और रथवान उन्हें लेकर निरंजन शाह के महल की ओर चल पड़ा ।
                                                            समय बीतता चला गया । चम्पारानी के नाच की धूम गूँजने लगी । उसनें बड़ा  महल बनवाया ,काफी धन -दौलत इकठ्ठा कर ली पर उसकी चरित्र हीनता और लालच की कहानियां भी चारो ओर सुनायी पड़ने लगीं । कई बार वो नागराज की मूर्ति के सामने बड़बड़ाती हुयी सुनी जाती थी , हे  नागराज मुझे बूढ़ा मत करना । मुझे इसी सुन्दर देह में सिंहासन पर बैठकर स्वर्ग भेज देना  और मेरी सब इच्छाये पूरी हो गयी हैं पर उस तोते की गर्दन अभी तक हाथ नहीं लग पायी है । इसे भी पूरा कर दो नागराज । और न जाने क्या हुआ कि एक दिन निरंजन शाह के घर से चम्पाबाई का बुलावा आ पहुँचा । बात कुछ यों हुयी कि निरंजन शाह के यहॉं पोते का जन्म हुआ औेर  उनकी पत्नी ने  नाँच गानें के लिये एक बहुत बड़ा आयोजन किया । निरंजन शाह के लाख मना करने पर भी उनकी पत्नी ने चम्पा बाई को बुला भेजा पर चम्पा बाई जाने को राजी नहीं हुयी । अब निरंजन शाह की पत्नी के सम्मान की बात चल पडी । उन्होंने कहा कि चम्पाबाई जो भी माँगेगी वह देंगीं अगर १०,००० पण भी मांगेगी तो वे देंगीं । चम्पा बाई राजी हो गयी आखिर लालच ही तो उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी । वह रात चम्पाबाई के नाम रही । वैसा नाच राज्य में और कहीं नहीं हुआ था । उत्सव समाप्ति पर निरंजन शाह की पत्नी ने चम्पाबाई से जो वह चाहे वह मांगने को कहा अब मौक़ा चम्पा बाई के हाथ आ गया । उसने कहा उसे और कुछ नहीं चाहिये सिर्फ हरिभक्त तोते का पिजड़ा चाहिये । निरंजन शाह की पत्नी ने १० हजार पण बढ़ाकर एक लाख पण तक पहुंचा दिये पर चम्पा बाई थी कि टस से मस न हुयी तब निरंजन शाह की पत्नी ने उससे एक वायदा लिया बोली ," हरिभक्त शुकदेव है , मैं उन्हें बेटे से अधिक प्यार करती हूँ, वादा करो कि उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं दोगी और वैसे ही रखोगी जैसे वे मेरे यहां रहते हैं । " अब चम्पारानी झूठी तो थी ही उसने तुंग भद्रा नदी का पानी हाथ में लेकर वादा कर लिया कि वह हरिभक्त को पूरी मर्यादा और सुरक्षा के साथ रखेगी । पर हरिभक्त था जो जानता था कि संकट की एक भयानक घड़ी उसके सामने आ खड़ी हुयी है ।
                                  घर पहुंचते ही चम्पारानी ने अपने रसोईये को बुला भेजा । रसोइया और उसकी पत्नी दोनों उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये । चम्पारानी बोली ," न्याय की डींग हांकने वाले इस तोते के सारे पँख उखाड़ कर अलग  कर दो,फिर धोकर उसकी गर्दन काट कर लोहे की सलाखों पर लाल लाल अंगारों पर पकाकर मेरे सामने पेश करो । और सभी खाना बाद में होगा , पहले इसकी गर्दन ,इसकी क़ैंची जैसी चोंच और इसके सिर में होने वाली बुद्धि भरी   तरंगों में कितना स्वाद है इसका अहसास मैं करूँ । अब क्या था हरिभक्त को काष्ठ पट्टिका पर दोनों हाथ से दबाकर रसोइये की  पत्नी खड़ी हो गयी रसोइये ने उसके पँख उखाड़ने शुरू कर दिये । निर्जीव हरिभक्त नंगा लूथडा बनकर काष्ठ पट्टिका पर पड़ा रहा । रसोइया पानी लेने चला गया और उसकी पत्नी आग बनाने की तैयारी में लग गयी । हरिभक्त अभी तक निर्जीव सा पड़ा था । उसके पँख उखड गये थे पर वो मर जाने का बहाना किये पड़ा था । हाँ वह उड़ नहीं सकता था । उसने आँखे खोलकर इधर -उधर देखा , रसोई की दीवार में रसोई के धोवन का पानी निकलने के लिये एक मझोला सा छेद था । बड़ी कोशिश करके हरिभक्त काष्ठ पट्टिका के नीचे गिर पड़ा और तेजी से खिसक कर उस मझोले छेदसे होता   हुआ बाहर निकल गया । कुछ ही हाथ की दूरी पर हरी घास के बीच में  झाड़ियाँ थीं जिनमें छिपकर वह चुपचाप बैठा रहा । इधर जब रसोइये की पत्नी ने काष्ठ पट्टिका को खाली देखा तो वह डर के मारे मर गयी सोचने लगी कि चम्पारानी उसे अब जिन्दा नहीं छोड़ेगी । उसने तुरन्त पले हुये कबूतरों में से एक का सिर  काट डाला और उसे छील -छाल  कर आग में अच्छी तरह भूनकर, स्वादिष्ट मसाला लगाकर ,सोने की तश्तरी में लेकर चम्पारानी के पास ले आयी । खुशी की अधिकता में चम्पारानी घर से बाहर तस्तरी हाथ में लिये घूमने लगी । चखती जाती और कहती ,"कैसी जीभ चलती थी तेरी । अहा खानें में कितना स्वाद आ रहा है । कितनी अकल थी तेरी मुंडी में ,अहा कितनी मिठास से मुंह भर गया ।" आहत हरिभक्त झाडी में बैठा सब कुछ सुन रहा था और कभी कभी भय से कम्पित भी हो जाता था । पर धीरे धीरे उसके उखड़े हुये पंख कुछ कम कष्ट देने  लगे थे और उसे लगा कि शाम होते होते वह नागराजके   मन्दिर के पास पेंड के  एक  डाली के पास जैसे तैसे उड़कर पहुँच जायेगा । रात भर डाली पर बैठा रहेगा और सुबह पीछे की खुली खिड़की से नागराज के मंदिर में घुसकर उनकी मूर्ति के पीछे झुटपुटे में छिपा रहेगा । शायद एकाध दिन में उसमें उड़ने की थोड़ी ताकत आए जाय ।
(क्रमशः )

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