........................ रात बीत गयी, सबेरे सूर्योदय से पहले ही चम्पाबाई नागराज के मन्दिर में आयी । कुण्डली मारे विशाल नागराज के अधोभाग पर माथा नवाकर बोली हे सर्पों के देवता तुमनें मेरी सारी इच्छायें पूरी कर दी । अब तुम मुझे सदेह तारों के लोक में भेज दो, कहते हैं आप का वंश जमीन के नीचे रहता है पर मैं तो तारों के बीच रहना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ कि भानदत्त मुझे देह सहित स्वर्ग जाता देख ले और सिर धुन -धुन कर रोये कि मेरी जैसी सुन्दरी का शरीर उसने स्वीकार नहीं किया । हरिभक्त नागराज की मूर्ति के पीछे बैठे सब कुछ सुन रहा था । बोली बोलने में तो वह माहिर था ही । उसने नागराज की सी गम्भीर आवाज में कहा ,"चम्पाबाई तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी, तीन दिन के बाद प्रातः इसी समय मुझे नमस्कार कर मन्दिर के बाहर प्रतीक्षा करना । सर्प की आकृति वाला एक स्वर्ण रथ उतरता हुआ दिखायी पडेगा वह तुम्हे तारालोक में पहुंचाने के लिये आयेगा । पर चम्पारानी तुमनें झूठ , वैश्यावृत्ति ,ठगी और छल -छद्म से जो संपत्ति इकठ्ठा कर ली है उसका अब क्या अर्थ है ?उसे दान में दे दो । जो महल बनवाया है उसका अब क्या अर्थ है उसे गिराकर भूमि समतल कर दो वहां गरीबों की झोपड़ियाँ बन जायेंगी । इतना करके तुम तुंग भद्रा नदी में स्नान करो और पवित्र मन लेकर मन्दिर के द्वार पर उपस्थित हो । सभी को खबर कर देना कि तुम्हारा स्वर्गारोहण देखने को आवें । भानुदत्त को खबर अवश्य पहुँचाना । जय करकोटक ,जय वासुकी ,जय शेष नाग ।
तीन दिन के समय के बीच हरिभक्त के उखड़े पंखों में कुछ जान आ गयी । वह उड़कर मन्दिर में लगी ऊँची डाल पर बैठ गया । प्रभात होने से पहले ही मन्दिर के आस -पास दर्शकों की भीड़ लगनी प्रारम्भ हो गयी थी चम्पाबाई का महल सपाट हो गया था । उसकी धन दौलत और आभूषण सभी दान में दिये जा चुके थे । तुंग भद्रा में स्नान कर एक सफ़ेद धोती से ढकी चम्पाबाई की काया अत्यन्त मोहक और पवित्र लग रही थी । भानुदत्त भीड़ से चलकर उसके पास आ खड़ा हुआ । सूर्योदय से पहले ही पेड़ की डाल पर बैठे हरिभक्त की गम्भीर आवाज सुनायी पडी ,"चम्पाबाई आँखें खोलो ,तुम एक पवित्र नारी बन चुकी हो ,सच्ची सुन्दरता त्याग और पवित्रता में है । विलास ,लोलुपता और शरीर सुख नारी के आभूषण नहीं होते । देखो भानुदत्त तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और मेरी आवाज को पहचानो मैं हरिभक्त हूँ । चम्पाबाई ने आँखें खोलीं , भानुदत्त ने बढ़कर उसे गले से लगा लिया कितना सुखद मिलन था । यही तो सच्चा स्वर्गारोहण था पर उस देश में सुवर्ण देश का मन्त्री सुभद्र भी खड़ा था जो जानता था कि उसके महाराज विक्रम की आत्मा तोते में निवास कर रही है । महाराज विक्रम का शरीर सुरक्षित, अन्तः पुर में रखा था जहां कई वर्षों से महारानी लेख चन्द्रिका उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं । हरिभक्त शुकराज और सुभद्र ने एक दूसरे को देखा , पहचाना और महारानी लेख चन्द्रिका की याद महाराजा विक्रम की आत्मा में उभर आयी तो क्या शुक की देह छोड़कर अब फिर सर अन्तः पुर में जाना होगा ?
( विक्रम पच्चीसी पर आधारित एक कल्पना उड़ान )
तीन दिन के समय के बीच हरिभक्त के उखड़े पंखों में कुछ जान आ गयी । वह उड़कर मन्दिर में लगी ऊँची डाल पर बैठ गया । प्रभात होने से पहले ही मन्दिर के आस -पास दर्शकों की भीड़ लगनी प्रारम्भ हो गयी थी चम्पाबाई का महल सपाट हो गया था । उसकी धन दौलत और आभूषण सभी दान में दिये जा चुके थे । तुंग भद्रा में स्नान कर एक सफ़ेद धोती से ढकी चम्पाबाई की काया अत्यन्त मोहक और पवित्र लग रही थी । भानुदत्त भीड़ से चलकर उसके पास आ खड़ा हुआ । सूर्योदय से पहले ही पेड़ की डाल पर बैठे हरिभक्त की गम्भीर आवाज सुनायी पडी ,"चम्पाबाई आँखें खोलो ,तुम एक पवित्र नारी बन चुकी हो ,सच्ची सुन्दरता त्याग और पवित्रता में है । विलास ,लोलुपता और शरीर सुख नारी के आभूषण नहीं होते । देखो भानुदत्त तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और मेरी आवाज को पहचानो मैं हरिभक्त हूँ । चम्पाबाई ने आँखें खोलीं , भानुदत्त ने बढ़कर उसे गले से लगा लिया कितना सुखद मिलन था । यही तो सच्चा स्वर्गारोहण था पर उस देश में सुवर्ण देश का मन्त्री सुभद्र भी खड़ा था जो जानता था कि उसके महाराज विक्रम की आत्मा तोते में निवास कर रही है । महाराज विक्रम का शरीर सुरक्षित, अन्तः पुर में रखा था जहां कई वर्षों से महारानी लेख चन्द्रिका उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं । हरिभक्त शुकराज और सुभद्र ने एक दूसरे को देखा , पहचाना और महारानी लेख चन्द्रिका की याद महाराजा विक्रम की आत्मा में उभर आयी तो क्या शुक की देह छोड़कर अब फिर सर अन्तः पुर में जाना होगा ?
( विक्रम पच्चीसी पर आधारित एक कल्पना उड़ान )
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