Saturday, 9 April 2016

इतिहास के पन्नों से ........

                                       डेरियस थर्ड की विशाल सेना सिकन्दर महान के सामरिक कौशल के आगे पस्त -हिम्मत हो गयी । परशियन सेना के हजारों सैनिक काट दिये गये । भगदड़ मच गयी । डेरियस थर्ड युद्ध क्षेत्र छोड़कर अपने रथ में भाग खड़ा हुआ । पहले युद्ध में भी वह भाग चुका था और फिर दोबारा सेना एकत्र कर वह सिकन्दर से लड़ने आया था । इस बार भी वह भगकर बच निकलना चाहता था पर अब उसकी सेना के अपने सिपाह सालारों ने ही उसको काट कर फेक दिया । फारस का साम्राज्य मैसेडोनिया के साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया । हिन्दुस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा के कुछ इलाके परसियन साम्राज्य के कुछ हिस्सा थे । इन इलाकों से  परशियन साम्राज्य को बहुत बड़ा कर और सेना के लिये लड़ाकू जवान मिल जाया करते थे । अब ये सब सिकन्दर के अधिकार में आ गया था । लगभग एक वर्ष तक सिकन्दर महान ने इन सीमान्त इलाकों में शान्ति और व्यवस्था कायम करने में लगाया और फिर हिन्दुकुश को पार कर उसने झेलम के बीच छोटे मोटे राज्यों को रौंद डाला । अब उसका मुकाबला पोरस ( पर्वत राज ) से होना था जिसकी वीरता की गाथायें उसे तक्षशिला से ही सुननें को मिलने लगी थीं । आभ्भीक की विजय के बाद अग्रिम क्षेत्र में भेजे गये उसके जासूसों ने लौटकर उसे बताया था कि वितस्ता के पार का राजा पोरस एक बहादुर राजा है । और वह कद -काठी में भी असाधारण है । यह दूसरी बात है कि वह सिकन्दर से उम्र में काफी बड़ा है पर देखने में वह पुरुषों में राजा ही दिखायी पड़ता है । सिकन्दर महान को जासूसों की इस सूचना ने और अधिक उत्तेजित कर दिया । उसने आज तक कभी  पराजय का मुँह नहीं देखा था और उसे आज तक अपने बराबर का कोई योद्धा भी नहीं मिला था । सिकन्दर उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब पोरस से आमना -सामना हो जाय । सुकरात के शिष्य अफलातून ( प्लेटो ) और अफलातून के शिष्य अरस्तू न केवल यूनान में बल्कि उस समय की सभ्य कही जाने वाली हर सभ्यता में अपने ज्ञानं की अपार विशालता के कारण चर्चित हो रहे थे । अरस्तू का शिष्य सिकन्दर महान उनकी शिक्षा पाकर अपराजेय विजेता बन चुका था । धरती का एक बहुत बड़ा भू- भाग उसके साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था । सिकन्दर की सेना लड़ते लड़ते थक गयी थी और स्वदेश वापसी के लिये आतुर थी पर सिकन्दर था जो विश्व विजेता बनने का स्वप्न पाल रहा था और भारत की विजय इस सपनें का सबसे सुनहरा पक्ष थी । इधर भारतवर्ष में तक्षशिला विश्वविद्द्यालय में अर्थशास्त्र का एक अध्यापक विष्णुगुप्त चाणक्य भारत विजय का सपना पाले आगे बढ़ते हुये यूनानी विजेताओं को भारत की अदम्य शक्ति का परिचय देने के लिये एक योजना बना रहा था । यूनानी आक्रमण के समय वह तक्षशिला से दूर मगध के पाटिल पुत्र में जा बैठा था और वहां एक अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न नवयुवक को दीक्षित कर रहा था क्योकि उस नवयुवक के द्वारा ही उसे भारत का एक चमकता हुआ स्वर्णिम इतिहास रचना था । सच पूछो तो यह लड़ाई अरस्तू की शिक्षा -दीक्षा में पले चन्द्र गुप्त में होनी थी । पर पोरष विजय के बाद सिकन्दर सेना के दबाव में और सेना नायकों की भयातुरता के कारण वापसी पर चल पड़ा । उसका मगध अभियान पूरा ही न हो सका और इसलिये लगभग उसकी मृत्यु के 7 वर्ष बाद चन्द्रगुप्त को वैक्ट्रिया के सम्राट सिल्यूकस निकेटर से टकराना पड़ा । वैक्ट्रिया का राज्य पहले परसियन साम्राज्य का एक हिस्सा था और अब मैसेडोनियम साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया था । सिल्यूकस सिकन्दर के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता अधिकार का उपयोग कर रहा था । भारतीय  प्राचीन इतिहास के सामान्य विद्यार्थी भी यह जानते हैं कि पोरस की सेना की पराजय उसकी कायरता के कारण नहीं वरन सैन्य संचालन में हाथियों और अश्वों की भूमिका के कारण हुयी थी । एक महाकाय हस्ती पर हौदे में बैठा पोरस आतंकित अवश्य कर रहा था पर उसका हाथी सिकन्दर के चपल अश्व के खुराग्रों से विचलित होकर मुड़कर भागने को हुआ । महावत के सारे प्रयासों के बावजूद जब हाथी का सधना सम्भव न हुआ और हाथियों की पूरी कतार उलट कर दौड़ने में अपनी ही फ़ौज को कुचलने लगी तो पोरस हौदे से कूंदकर कृपाण हाँथ में लिये हौदे से नीचे कूंद पड़ा । उसकी पुष्ट लम्बी काया ,और उसका रोबीला चेहरा तथा जोश में आकर यूनानी सेना के सैनिकों के बीसों कटे सिर उसके अद्वित्तीय वीर होने के गवाही थे । दूर खड़ा सकन्दर यह सब देख रहा था, घोड़ा बढ़ाकर जबतक वह पोरस के नजदीक आया तब तक पोरस सैकड़ों यूनानी सैनिकों के बीच घेर लिया गया था । उसकी तलवार टूट चुकी थी और केवल मुठ्ठी उसके हाथ में थी फिर भी कोई यूनानी सैनिक उसके आस -पास पाँच- छै फ़ीट के घेरे में आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था । अलक्षेन्द्र ने यह सब देखा सैनिकों को चीरता हुआ बीच में आया और अपने अश्व पर से ही उल्टी तलवार की मूंठ से पोरस के हाँथ में बंधी तलवार की  टूटी तलवार की मूठ को झटका देकर नीचे गिरा दिया फिर घोड़े से नीचे कूंदकर पोरस के सामने खड़ा हो गया । विशाल काया वाले युद्ध भूमि के अप्रतिम सेनानी दो महानायक आमने -सामने खड़े थे । पोरस यूनानी सैनिकों से घिरा था पर सिकन्दर ने हाँथ उठाकर आघात करने से रोक दिया था । युद्ध भूमि में ही दुभाषिये को बुलाया गया जो यूनानी भाषा को सिन्धी भाषा में अनूदित कर सकता हो । प्रशंसा भेरे नेत्रों से पोरस को देखते हुए महान अलक्षेन्द्र ने प्रश्न किया पर्वत राज आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाय ? निडर निशंक पोरस ने सिर ऊँचा करके कहा महान विजेता अलक्षेन्द्र से हमें उसी व्यवहार की आशा है जो एक राजा दूसरे राजा के साथ या एक अपराजित योद्धा दूसरे अपराजित योद्धा के साथ करता है । इस उत्तर को सुनकर अलक्षेन्द्र के मन में प्रशंसा का भाव उमड़ पड़ा । निश्चय ही पोरस सच्चा वीर है । आत्म विश्वास से परिपूर्ण एक आदर्श राजा । अलक्षेन्द्र ने फिर कहा पर्वत राज बराबरी का व्यवहार तो तुम्हे मिलेगा ही पर अलक्षेन्द्र से तुम और भी जो चाहो पा सकते हो । मेरे उस्ताद अरस्तू ने ठीक ही कहा था कि सच्चे वीर तो भारत में ही देखने को मिलते हैं । पोरस ने कहा देवपुत्र अलक्षेन्द्र मैनें राजा से राजा जैसे व्यवहार की बात कही है और मेरे इस वाक्य में ही सब कुछ माँगना शामिल हो जाता है । 

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