..........................अलक्षेन्द्र ने खिलखिलाकर पर्वतराज की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया । विश्व के इतिहास में इन दो मित्रों के विश्वास ,सहयोग और पारस्परिक आदर का जो लेखा -जोखा मिलता है उससे अधिक रोमांचक और प्रभावशाली वीरत्व की गाथा और कहीं सुनने ,पढ़ने को नहीं मिल सकती । भारत में सिकन्दर के द्वारा जीते हुये सभी भू भाग पोरस के राज्य में मिला दिये गये और पोरस को उनके स्वतन्त्र प्रशासन का अधिकार सौंप दिया गया । यदि सिन्धु पार कर महान अलक्षेन्द्र पूर्व की ओर बढ़ता तो भारत का प्राचीन इतिहास कौन सा मोड़ लेता यह कहना अत्यन्त कठिन है । सिकन्दर की सेना का वापस लौटना और वापसी में होने वाले युद्धों की भयानकता और फिर उसके कुछ वर्षों बाद उसकी मृत्यु सभी का विस्तृत विवरण यूनानी इतिहासकारों के पन्नों में सुरक्षित है । और उन पन्नों में यह भी लिखा पाया जाता है कि सिकन्दर की मृत्यु का सबसे बड़ा दुःख उसके भारतीय मित्र पोरस को हुआ जिसके आघात से वह कभी उबर नहीं सका ।
अलक्षेन्द्र महान और उसके उस्ताद अरिस्टोटल दोनों ही विश्व इतिहास के अमर पुरुष हैं । रण विशारदों का यह मत है कि इतिहास पूर्व के मिथकों ,महाकाब्यों और पौराणिक वृतांतों को यदि हम अलग कर दें तो मानव जाति के लिखित इतिहास में मैसेडोनिया के शासक फिलिप के पुत्र अलक्षेन्द्र महान से बड़ा कोई योद्धा धरती पर अवतरित नहीं हुआ है । न केवल व्यक्तिगत शूरता और विजेता होने पर भी विजित के प्रति भी मानवीय भाव बल्कि ब्यूह रचना और सैन्य संचालन की तकनीक इन सभी में अलक्षेन्द्र विश्व का अजेय महानायक बन कर चर्चित हुआ हैऔर अलक्षेन्द्र के उस्ताद अरिस्टोटल जिन्हें भारतीय अरस्तू के नाम से जानते है अपनी बहुमुखी विद्वता के लिये संसार के महानतम ज्ञानियों में शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं । दर्शन ,विज्ञान ,समाजशास्त्र ,न्याय व्यवस्था ,ललित कला और व्यक्तित्व निर्माण कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें अरस्तू ने कोई अमिट छाप न छोड़ी हो पर जिन दिनों यूनान में अरस्तू के ज्ञान का डंका बज रहा था उन्ही दिनों भारत में घनी खुली चोटी लिये एक श्याम वर्णीय ब्राम्हण एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना के सुदृढ़ आधार स्तम्भ जुटाने में लगा था । यूनान की टक्कर में भारत कुछ देर के लिये भले ही पराभूत होता दिखायी पड़ा हो पर विश्व गुप्त चाणक्य की आँखें एक दशक के बाद आने वाले उस युग को देख रही थीं जब भारत की सीमायें मगध की पूर्वी सीमान्त पहाड़ियों से लेकर वैक्ट्रिया को घेरते हुये अफगानिस्तान तक पहुँच जायेंगीं । चन्द्रगुप्त का प्रशिक्षण पूरा होने को था और विलक्षण विश्वगुप्त मगध में उथल -पुथल के बीज बो रहा था । आर्य और अनार्य , लौकिक और अलौकिक ,गगन और धरित्री , वीर और भूमा इन सभी के आदर्श मिलन ने विश्वगुप्त की चिन्तना को गढ़ा था । कर्मयोगी चाणक्य का शिष्य चन्द्रगुप्त अरस्तू की विश्व व्यापी ख्याति को चुनौती देकर ज्ञान -विज्ञान में पाये उनके शीर्ष पद को भारत के लिये सुरक्षित करवा रहा था । और ऐसा हुआ भी । सिकन्दर की मृत्यु के 7 वर्ष बाद ही उसका विशाल साम्राज्य वायु की लहरियों पर बीत गये कल का स्वर बनकर लहराने लगा । उसके साम्राज्य के भारत के पश्चिमी सीमान्त से मिले मध्य पश्चिम एशिया के सभी भू भाग मौर्य साम्राज्य में चाणक्य की कूतिनीति से संचालित चन्द्रगुप्त की तलवार के बल पर छीन लिये गये । काबुल ,कन्धार , तक्षशिला में सिकन्दर के साथ आयी कला ,साहित्य और रणकौशल की विचारधारायें और तकनीकें पाटिलपुत्र से आयी हुयी भारतीय चिन्तन और तकनीकों से मिलकर कालजयी श्रष्टियां करने लगीं । 137 वर्ष तक चलने वाला विशाल मौर्य साम्राज्य जिसने अशोक महान जैसे विश्व इतिहास के महानायक को जन्म दिया भारत के अतीत की सबसे गौरव मयी गाथा है । " माटी " अपने विज्ञ पाठकों से यह अपेक्षा करती है कि वे प्राचीन भारत के महिमामण्डित छवि पाने के लिये श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा लिखी इतिहास पुस्तकों का अध्ययन करें ।
अलक्षेन्द्र महान और उसके उस्ताद अरिस्टोटल दोनों ही विश्व इतिहास के अमर पुरुष हैं । रण विशारदों का यह मत है कि इतिहास पूर्व के मिथकों ,महाकाब्यों और पौराणिक वृतांतों को यदि हम अलग कर दें तो मानव जाति के लिखित इतिहास में मैसेडोनिया के शासक फिलिप के पुत्र अलक्षेन्द्र महान से बड़ा कोई योद्धा धरती पर अवतरित नहीं हुआ है । न केवल व्यक्तिगत शूरता और विजेता होने पर भी विजित के प्रति भी मानवीय भाव बल्कि ब्यूह रचना और सैन्य संचालन की तकनीक इन सभी में अलक्षेन्द्र विश्व का अजेय महानायक बन कर चर्चित हुआ हैऔर अलक्षेन्द्र के उस्ताद अरिस्टोटल जिन्हें भारतीय अरस्तू के नाम से जानते है अपनी बहुमुखी विद्वता के लिये संसार के महानतम ज्ञानियों में शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं । दर्शन ,विज्ञान ,समाजशास्त्र ,न्याय व्यवस्था ,ललित कला और व्यक्तित्व निर्माण कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें अरस्तू ने कोई अमिट छाप न छोड़ी हो पर जिन दिनों यूनान में अरस्तू के ज्ञान का डंका बज रहा था उन्ही दिनों भारत में घनी खुली चोटी लिये एक श्याम वर्णीय ब्राम्हण एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना के सुदृढ़ आधार स्तम्भ जुटाने में लगा था । यूनान की टक्कर में भारत कुछ देर के लिये भले ही पराभूत होता दिखायी पड़ा हो पर विश्व गुप्त चाणक्य की आँखें एक दशक के बाद आने वाले उस युग को देख रही थीं जब भारत की सीमायें मगध की पूर्वी सीमान्त पहाड़ियों से लेकर वैक्ट्रिया को घेरते हुये अफगानिस्तान तक पहुँच जायेंगीं । चन्द्रगुप्त का प्रशिक्षण पूरा होने को था और विलक्षण विश्वगुप्त मगध में उथल -पुथल के बीज बो रहा था । आर्य और अनार्य , लौकिक और अलौकिक ,गगन और धरित्री , वीर और भूमा इन सभी के आदर्श मिलन ने विश्वगुप्त की चिन्तना को गढ़ा था । कर्मयोगी चाणक्य का शिष्य चन्द्रगुप्त अरस्तू की विश्व व्यापी ख्याति को चुनौती देकर ज्ञान -विज्ञान में पाये उनके शीर्ष पद को भारत के लिये सुरक्षित करवा रहा था । और ऐसा हुआ भी । सिकन्दर की मृत्यु के 7 वर्ष बाद ही उसका विशाल साम्राज्य वायु की लहरियों पर बीत गये कल का स्वर बनकर लहराने लगा । उसके साम्राज्य के भारत के पश्चिमी सीमान्त से मिले मध्य पश्चिम एशिया के सभी भू भाग मौर्य साम्राज्य में चाणक्य की कूतिनीति से संचालित चन्द्रगुप्त की तलवार के बल पर छीन लिये गये । काबुल ,कन्धार , तक्षशिला में सिकन्दर के साथ आयी कला ,साहित्य और रणकौशल की विचारधारायें और तकनीकें पाटिलपुत्र से आयी हुयी भारतीय चिन्तन और तकनीकों से मिलकर कालजयी श्रष्टियां करने लगीं । 137 वर्ष तक चलने वाला विशाल मौर्य साम्राज्य जिसने अशोक महान जैसे विश्व इतिहास के महानायक को जन्म दिया भारत के अतीत की सबसे गौरव मयी गाथा है । " माटी " अपने विज्ञ पाठकों से यह अपेक्षा करती है कि वे प्राचीन भारत के महिमामण्डित छवि पाने के लिये श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा लिखी इतिहास पुस्तकों का अध्ययन करें ।
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