.................... कौन हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी है जो शिवा बावनी पढ़कर वीर काब्य के प्रभाव से अछूता रह जाय। और विजयों से भी अधिक था खुंखार कट्टरपंथियों के लिये शिवाजी का नाम और आतंक । उनके नाम से ही मुसलमान नवाब सेनापति और शासक थर्रा उठते थे । उनके नाम का यह आतंक मुसलमान शासकों के घरों में घुसकर उनकी बेगमों का दिल भी दहला देता था तभी तो भूषण ने शिवाजी के नाम के त्रास को अविस्मरणीय पंक्तियों में चित्रित किया है ।
" ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी,
ऊंचे घोर मन्दर के अन्दर रहती हैं ।
कन्द मूल भोग करें ,कन्द मूल भोग करें ,
तीन बेर खाती वे तीन बेर खाती हैं ।
सरजा शिवाजी शिवराज वीर तेरे त्रास ,
नगन जडाती ते वे नगन जडाती हैं ॥ "
छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद भी उनके वीरत्व और स्वाभिमान की परम्परा मराठा साम्राज्य की शक्ति पेशवाओं के हाथ में आयी तब मराठा साम्राज्य का आतंक ,दिल्ली के सिहांसन पर बैठे नपुंसक सम्राटों को सदैव नतमस्तक किये रहता था । पेशवा बाजी राव प्रथम और द्वितीय की तुलना तो महान विजेता सम्राट स्कन्ध गुप्त से की जाती है । अश्वारूढ़ विशाल मराठा वाहिनी रात -रात भर में सैकड़ों मीलों का सफर कर शत्रु सेनाओं को रौंद कर रख देती थी । हिन्दी कविता प्रेमी सभी उस दोहे से परिचित होंगें जो ओरछा के राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को लिखा था । जनश्रुति है और अधिकतर इतिहासकार इस जनश्रुति से सहमत है कि जब छत्रसाल की सेना चारो ओर मुग़ल सेना से घेर ली गयी और पराजय उनके सामने मुँह बाये खड़ी हो गयी तो उन्होनें एक कुशल अश्वारोही को कविता की दो पंक्तियाँ लिखकर हिन्दू धर्म रक्षक बाजीराव पेशवा के पास लिखकर भेजी । दोहा इस प्रकार था ।
" जो गति ग्राह् गजेंद्र की , सो गति बरनउ आज ,
बाजी जाति बुन्देल की वाजी राखौ लाज ।"
जिस समय यह पत्र बाजीराव को मिला उस समय उनकी विशाल सेना ओरछा से सैकड़ों मील दूर थी पर बुन्देल की लाज तो रखनी ही थी । रातों रात घोड़ों के खुरों से सैकड़ों मील धरती की परतें उघड गयीं । मुग़ल सेना दोहरी मार से पिटकर पराजित होकर भागी । न जाने कितने अस्त्र -शस्त्र और भार असवात छोड़ गयी । शव सड़ते रहे , घायल तड़पते रहे । भूषण जी ने इन छत्रसाल की गुणगाथा में भी कुछ अत्यन्त प्रभावशाली वीर छन्द , सवैये लिखे हैं । सभी हिन्दी कविता प्रेमी ऐसी पंक्तियों से परिचित हैं ।
" रैया राव चम्पत के छत्रसाल महाराज
भूषण सकै करि बखान कोऊ बलन को
पक्षी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर
तेरी वरछी ने वर छीने हैं खलन के ।"
पर हम बात कर रहे थे महाकवि भूषण और उनकी भाभी द्वारा किये उनके तिरस्कार की । हम फिर से दोहराते हैं कि इतिहास का सत्य साहित्य का सत्य नहीं होता है , सच पूँछो तो इतिहास का सत्य स्थिर होता है । जबकि साहित्य का सत्य चेतन होता है ,वह फलता -फूलता ,बढ़ता और विस्तारित होता है । जनश्रुति कहती है कि शिवाजी के सुपुत्र साहू जी और अन्य समर्थ मराठा सरदारों ने शिवा बावनी के एक -एक छन्द पर एक -एक हाथी देकर उन्हें पुरस्कृत किया । जनश्रुति यह भी कहती है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं उनकी पालकी उठाने में हाथ लगाया । " माटी " के पाठक साहित्य की ऊँचाइयों और गहराइयों से परिचित हैं जनश्रुति में कल्पना के पँख लग जाते है तो वह गगन बिहारी बन जाती है । वह सुरसा के मुँह का विस्तार पा जाती है और उसमें सभी असंभव संभव हो जाता है । तो जनश्रुति कहती है कि महाकवि भूषण बावन गजों की पंक्ति लेकर आगे के सबसे ऊँचे गजराज की पीठ पर बैठकर त्रिविक्रमपुर पहुँचे कहाँ से और कैसे निर्विघ्न पहुँच गये यह हाथियों के महावत जानते होंगें । पर उनके पहुँचनें की खबर पाकर त्रिविक्रमपुर की बाजार , गलियों और नुक्कड़ों पर भीड़ उमड़ पडी , हाथियों की पँक्ति भीड़ से रास्ता बनाती हुयी मतिराम त्रिपाठी के अगले द्वार पर पहुँच गयी । वृद्धा माँ तो कुछ सुन समझ नहीं पायी पर भाभियां और बाल- बच्चे घबरा कर कक्ष में छुपने के लिये भगे । उन्हें भ्रम हुआ कि शायद कोई नवाबी या लुटेरी मुस्लिम सेना का कोई सिपहसालार उनका घर और नगर लूटने आया है । बूढ़ी स्त्रियों , मर्दों और बच्चों को मार दिया जायेगा । नवयुवक यदि बच निकले तो उनका भाग्य नहीं तो कुत्तों और सियारों का भोजन बनेगें और नव युवतियां भेड़िया सिपाहियों के लिये कामेच्छा पूर्ति का साधन बनेंगी । पर मतिराम त्रिपाठी और उनके अग्रज जिनका नाम शायद मैं गलत हूँ कृपा राम था वीर पुत्र और वीर बन्धु थे । उन्होंने छत पर चढ़कर हस्तियों की उस लम्बी पंक्ति को देखा । उन्होंने देखा कि सबसे आगे सबसे ऊँचे गजराज पर उनका सबसे छोटा भाई भूषण बैठा है उसके सिर पर छत्र लहरा रहा है , वह राज कवि के वेष कीमती वस्त्र पहने है ,उसका महावत भी एक विशेष पगड़ी धारण किये हुये है । उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह कोई सपना तो देख नहीं रहे हैं । उन्होंने फिर आँखें मलीं । हस्ति पंक्ति कुछ और नजदीक आ गयी थी । अरे हाँ यह तो भूषण ही है आश्चर्य से फटती हुयी आँखें लिये वह सीढ़ियों से शीघ्रता से उतर कर नीचे आये । कृपा राम और मतिराम ने अपनी अपनी गृहणियों और बच्चों को कक्ष से बाहर आने को कहा ,चिल्लाते गये कि छुटुवा आ गया है । माँ ने नहीं सुना ,पर उन्होंने जोर से चिल्ला कर कहा ,"अम्मा छुटुवा आ गया , भूषण घर आ गया , धन्य हुये हमारे भाग्य ।"भूषण का गजराज द्वार पर पहुँचा उसने सूंड उठाकर भाइयों का अभिवादन किया । भाइयों ने कुछ देर भूषण के नीचे उतरने की प्रतीक्षा की तब भूषण ने कहा भाभियाँ कहाँ हैं ? छोटी भाभी से कहो कि थाली में थोड़ा सा नमक डाल कर द्वार पर आये और मुझे नीचे उतरने का हुक्म दे । साहित्य्कार यह नहीं बताते कि छोटी भाभी नमक लेकर आयी या नहीं आयी हाँ यह अवश्य बताते हैं कि सिर ढके मुखड़ों को नीचे झुकाकर सुख के आँसूं द्वार की देहरी पर टप -टप गिर पड़े । महा कवि भूषण महावत द्वारा हाथी को बिठालकर नीचे उतारे गये । उन्होंने ज्येष्ठ भ्राताओं और भाभियों के चरण स्पर्श किये और वृद्धा माँ के पैरों पर गिरकर काफी देर चुपचाप रोते रहे । "माटी ' नहीं जानती कि वे क्यों रोये ?शायद दिवंगत पिता की याद में ,शायद अपरम्पार भगवत कृपा की कृतज्ञता के रूप में , शायद महा नायक अद्वतीय अश्वारोही हिन्दू धर्म उद्धारक छत्रपति शिवाजी की पावन स्मृति में । "माटी " के पाठक इस बारे में स्वतन्त्र निर्णय लेने के लिये पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हैं ।
" ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी,
ऊंचे घोर मन्दर के अन्दर रहती हैं ।
कन्द मूल भोग करें ,कन्द मूल भोग करें ,
तीन बेर खाती वे तीन बेर खाती हैं ।
सरजा शिवाजी शिवराज वीर तेरे त्रास ,
नगन जडाती ते वे नगन जडाती हैं ॥ "
छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद भी उनके वीरत्व और स्वाभिमान की परम्परा मराठा साम्राज्य की शक्ति पेशवाओं के हाथ में आयी तब मराठा साम्राज्य का आतंक ,दिल्ली के सिहांसन पर बैठे नपुंसक सम्राटों को सदैव नतमस्तक किये रहता था । पेशवा बाजी राव प्रथम और द्वितीय की तुलना तो महान विजेता सम्राट स्कन्ध गुप्त से की जाती है । अश्वारूढ़ विशाल मराठा वाहिनी रात -रात भर में सैकड़ों मीलों का सफर कर शत्रु सेनाओं को रौंद कर रख देती थी । हिन्दी कविता प्रेमी सभी उस दोहे से परिचित होंगें जो ओरछा के राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को लिखा था । जनश्रुति है और अधिकतर इतिहासकार इस जनश्रुति से सहमत है कि जब छत्रसाल की सेना चारो ओर मुग़ल सेना से घेर ली गयी और पराजय उनके सामने मुँह बाये खड़ी हो गयी तो उन्होनें एक कुशल अश्वारोही को कविता की दो पंक्तियाँ लिखकर हिन्दू धर्म रक्षक बाजीराव पेशवा के पास लिखकर भेजी । दोहा इस प्रकार था ।
" जो गति ग्राह् गजेंद्र की , सो गति बरनउ आज ,
बाजी जाति बुन्देल की वाजी राखौ लाज ।"
जिस समय यह पत्र बाजीराव को मिला उस समय उनकी विशाल सेना ओरछा से सैकड़ों मील दूर थी पर बुन्देल की लाज तो रखनी ही थी । रातों रात घोड़ों के खुरों से सैकड़ों मील धरती की परतें उघड गयीं । मुग़ल सेना दोहरी मार से पिटकर पराजित होकर भागी । न जाने कितने अस्त्र -शस्त्र और भार असवात छोड़ गयी । शव सड़ते रहे , घायल तड़पते रहे । भूषण जी ने इन छत्रसाल की गुणगाथा में भी कुछ अत्यन्त प्रभावशाली वीर छन्द , सवैये लिखे हैं । सभी हिन्दी कविता प्रेमी ऐसी पंक्तियों से परिचित हैं ।
" रैया राव चम्पत के छत्रसाल महाराज
भूषण सकै करि बखान कोऊ बलन को
पक्षी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर
तेरी वरछी ने वर छीने हैं खलन के ।"
पर हम बात कर रहे थे महाकवि भूषण और उनकी भाभी द्वारा किये उनके तिरस्कार की । हम फिर से दोहराते हैं कि इतिहास का सत्य साहित्य का सत्य नहीं होता है , सच पूँछो तो इतिहास का सत्य स्थिर होता है । जबकि साहित्य का सत्य चेतन होता है ,वह फलता -फूलता ,बढ़ता और विस्तारित होता है । जनश्रुति कहती है कि शिवाजी के सुपुत्र साहू जी और अन्य समर्थ मराठा सरदारों ने शिवा बावनी के एक -एक छन्द पर एक -एक हाथी देकर उन्हें पुरस्कृत किया । जनश्रुति यह भी कहती है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं उनकी पालकी उठाने में हाथ लगाया । " माटी " के पाठक साहित्य की ऊँचाइयों और गहराइयों से परिचित हैं जनश्रुति में कल्पना के पँख लग जाते है तो वह गगन बिहारी बन जाती है । वह सुरसा के मुँह का विस्तार पा जाती है और उसमें सभी असंभव संभव हो जाता है । तो जनश्रुति कहती है कि महाकवि भूषण बावन गजों की पंक्ति लेकर आगे के सबसे ऊँचे गजराज की पीठ पर बैठकर त्रिविक्रमपुर पहुँचे कहाँ से और कैसे निर्विघ्न पहुँच गये यह हाथियों के महावत जानते होंगें । पर उनके पहुँचनें की खबर पाकर त्रिविक्रमपुर की बाजार , गलियों और नुक्कड़ों पर भीड़ उमड़ पडी , हाथियों की पँक्ति भीड़ से रास्ता बनाती हुयी मतिराम त्रिपाठी के अगले द्वार पर पहुँच गयी । वृद्धा माँ तो कुछ सुन समझ नहीं पायी पर भाभियां और बाल- बच्चे घबरा कर कक्ष में छुपने के लिये भगे । उन्हें भ्रम हुआ कि शायद कोई नवाबी या लुटेरी मुस्लिम सेना का कोई सिपहसालार उनका घर और नगर लूटने आया है । बूढ़ी स्त्रियों , मर्दों और बच्चों को मार दिया जायेगा । नवयुवक यदि बच निकले तो उनका भाग्य नहीं तो कुत्तों और सियारों का भोजन बनेगें और नव युवतियां भेड़िया सिपाहियों के लिये कामेच्छा पूर्ति का साधन बनेंगी । पर मतिराम त्रिपाठी और उनके अग्रज जिनका नाम शायद मैं गलत हूँ कृपा राम था वीर पुत्र और वीर बन्धु थे । उन्होंने छत पर चढ़कर हस्तियों की उस लम्बी पंक्ति को देखा । उन्होंने देखा कि सबसे आगे सबसे ऊँचे गजराज पर उनका सबसे छोटा भाई भूषण बैठा है उसके सिर पर छत्र लहरा रहा है , वह राज कवि के वेष कीमती वस्त्र पहने है ,उसका महावत भी एक विशेष पगड़ी धारण किये हुये है । उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह कोई सपना तो देख नहीं रहे हैं । उन्होंने फिर आँखें मलीं । हस्ति पंक्ति कुछ और नजदीक आ गयी थी । अरे हाँ यह तो भूषण ही है आश्चर्य से फटती हुयी आँखें लिये वह सीढ़ियों से शीघ्रता से उतर कर नीचे आये । कृपा राम और मतिराम ने अपनी अपनी गृहणियों और बच्चों को कक्ष से बाहर आने को कहा ,चिल्लाते गये कि छुटुवा आ गया है । माँ ने नहीं सुना ,पर उन्होंने जोर से चिल्ला कर कहा ,"अम्मा छुटुवा आ गया , भूषण घर आ गया , धन्य हुये हमारे भाग्य ।"भूषण का गजराज द्वार पर पहुँचा उसने सूंड उठाकर भाइयों का अभिवादन किया । भाइयों ने कुछ देर भूषण के नीचे उतरने की प्रतीक्षा की तब भूषण ने कहा भाभियाँ कहाँ हैं ? छोटी भाभी से कहो कि थाली में थोड़ा सा नमक डाल कर द्वार पर आये और मुझे नीचे उतरने का हुक्म दे । साहित्य्कार यह नहीं बताते कि छोटी भाभी नमक लेकर आयी या नहीं आयी हाँ यह अवश्य बताते हैं कि सिर ढके मुखड़ों को नीचे झुकाकर सुख के आँसूं द्वार की देहरी पर टप -टप गिर पड़े । महा कवि भूषण महावत द्वारा हाथी को बिठालकर नीचे उतारे गये । उन्होंने ज्येष्ठ भ्राताओं और भाभियों के चरण स्पर्श किये और वृद्धा माँ के पैरों पर गिरकर काफी देर चुपचाप रोते रहे । "माटी ' नहीं जानती कि वे क्यों रोये ?शायद दिवंगत पिता की याद में ,शायद अपरम्पार भगवत कृपा की कृतज्ञता के रूप में , शायद महा नायक अद्वतीय अश्वारोही हिन्दू धर्म उद्धारक छत्रपति शिवाजी की पावन स्मृति में । "माटी " के पाठक इस बारे में स्वतन्त्र निर्णय लेने के लिये पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हैं ।
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