Wednesday, 6 April 2016

                                 ........................ भूषण का आत्म अभिमान चोट खाता है कहते हैं ," भाभी मैं क्या किसी हाथी नसीन से काम हूँ ।मेरी प्रशंसा क्या किसी हाथी नसीन से कम  होती है । " भाभी को नहले पर दहला लगाना आता है । आखिर वह मतिराम की पत्नी है । उसके पति स्वयं जाने माने कवि हैं । फिर भी वह घर गृहस्थी चलाने के लिये जायदाद की पूरी देख -भाल करते हैं । अपना समय फिजूल की शेखियों में बरबाद नहीं करते । वह चोट करती है ,"सभी के भाग्य में हाथी नसीन होना नहीं होता । बेकार की शेखी मत बघारो लाला । मैनें तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है । बोलो और नमक तो नहीं चाहिये वह छोटा विभीषण रो रहा है । " न जाने क्या होता है ? अद्धभुत प्रतिभा के धनी ,हिन्दू संस्कृति के प्रति पूर्णताः समर्पित भाभी के शब्दों का प्रहार झेलकर तिलमिला उठते हैं । पर अपने आवेश को नियन्त्रित कर शांत स्वर में कहते हैं ," देखो भाभी तुम मेरी आदरणीया हो ,तुम मेरी माँ तुल्य हो ,क्या जैसा जो कुछ मैं हूँ वह तुम्हारी माप पर खरा नहीं उतरता । यदि मैं हाथी नसीन हो जाऊँ तो क्या मैं कुछ बदल जाऊंगा । भूषण तो भूषण ही रहेगा । भाभी उसे बिकने के लिये बाध्य मत करो । उत्तर भारत में तो मेरा खरीददार दिखता ही  नहीं । हलाहल कूट को  बस त्रिनेत्र शिव ही कंठ में धारण कर सकते हैं । " बच्चे के रोने की आवाज तेज होती  है । ,भाभी उठ खड़ी होती है, उठते -उठते कहती है जब ब्याह कर आयी थी तुम्हारे बड़े भाई भी इसी प्रकार की लम्बी -चौड़ी हाँका करते थे । कहते थे राजसी ठाठ  से घर को मढ़ दूँगा । कहते थे स्वर्ण आभूषणों से मेरे रूप को कई गुना बढ़ा देंगें । अरे लाला तुम सभी भाइयों में अपना बड़प्पन दिखाने का मर्ज लग गया है । मेरे जेठ जी कुछ लिखते -विखते रहते हैं । बड़ी बहना  भी कह रही थी कि इन लफ्फाजी करने वाले भाइयों में सभी केवल प्रशंसा का आसव पीकर मस्त रहते हैं । जीवन की कठोर सच्चायी से इनका कोई परिचय नहीं है । हमारी नसीब में बैलगाड़ी ही बनी रहे यही बहुत है । हमारी गैय्या बछड़े देती रहे तो खेती -बाड़ी चलती रहेगी । रथ हमारे भाग्य में कहाँ है और हाथी क्या हमारी जिन्दगी कभी हमारे दरवाजे पर खड़ा हो सकता है ।
                               भूषण ने अभी तक कुछ ही कौर मुँह में डाले हैं । तीन चौथाई भोजन थाली में अनछुआ  पड़ा है ,भाभी तो खड़ी ही थी खुद भी तमग कर उठ जाते हैं । कहते हैं भाभी मैं  अपना अपमान  तो बर्दाश्त कर सकता हूँ पर आपनें न केवल देवर का अपमान किया है बल्कि अपने पूज्य पति और ज्येष्ठ श्री का भी । हमारे पूज्य पिता आज नहीं हैं पर जो विरासत हमनें उनसे पायी है कि वह इतनी भब्य और ओजपूर्ण है कि वह हमें अमरत्व के द्वार तक पहुँचा सकती है । अच्छा तो सुनों  भाभी मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इस घर के द्वार पर तभी आकर भाइयों को अपना मुँह दिखाऊंगा जब मैं सबसे आगे विशाल गजराज पर बैठा हूँगा और मेरे पीछे हाथियों की लम्बी कतार होगी । तब नमक देने में देरी तो नहीं करोगी भाभी ?
                                   भूषण यह कहकर उठ जाते हैं ,हाथ पैर धोते हैं, मुँह पर जल के  छींटे मारते हैं, सिर पर उष्णीष रखते हैं ,वक्ष वस्त्र पहनते हैं फिर  माँ के कक्ष में जाकर माँ के चरणों में सिर रखकर उसका आशीर्वाद मांगते हैं । माँ की श्रवण शक्ति बहुत कम है ,भाभी और देवर में क्या बातचीत हुयी है इसे वह नहीं जानती । माँ आशीर्वाद का हाँथ भूषण के सिर पर रखती है । कहती है बेटा ," रात्रि को जल्दी आ जाया करो । स्वर्ग जाने से पहले तुम्हारे पिता ने जो मुझसे कहा था सुनना चाहोगे ? उन्होनें कहा था हमारा भूषण हम दोनों को अमर कर देगा । भूषण के आँखों के जलबिन्दु माँ के चरणों पर पड़ते हैं । रुदन को रोककर, आँगन से बाहर आकर पादत्राण पहन लेते हैं और शीघ्रता  से गृह के मुख्य द्वार से बाहर निकल जाते हैं । सोचते जा रहे हैं कि उत्तरावर्त का शौर्य तो मर चुका ,मेरी रणभेरी किस नरसिंह को हिन्दू संस्कृति के सच्चे  उद्धारक के रूप में इतिहास के पटल पर अवतरित होने की प्रेरणा दे पायेगी । चलते हैं ओरछा से होकर महाराष्ट्र की ओर अब तो अन्याय पूर्ण मुल्ला संस्कृति को जड़मूल से उखाड़ ही फेंकना होगा । हिन्दू चिन्तन की सामासिकता कोई कालजयी राष्ट्र पुरुष देश का भविष्य रचने के लिये उभार कर सामने लायेगी । असमर्थ तो यह कर नहीं सकते
 पर सम्भवतः समर्थ रामदास महाराष्ट्र की चेतना में पुनः नवचेतना का संचार कर दें ।
                      पटाक्षेप ......... दूर से गूँजती कविता की पंक्तियाँ, " शिवा जी न हो तो सुन्नत होत सबकी ।"
(क्रमशः )

No comments:

Post a Comment