शब्द -समर
उत्तर मध्य भारत का अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है त्रिपाठी सद्गृहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह । गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्राँगण ,सुरुचिपूर्ण मिट्टी से बनें ऊँचें धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका , फिर अगल -बगल के कई कक्ष , बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान । गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पाने वाला खुला मैदान । गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग । चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है । दिन के दस बजे हैं । अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है । भरे -पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन । गृह में उसके दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे आँगन में दौड़ने -खेलने वाले भतीजे और भतीजियां । दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख -रेख में व्यस्त । भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित । मस्त -मौला , फक्कड़ पर अद्वितीय सृजनात्मक प्रतिभा का धनी । मुगल सम्राट अकबर , जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्त प्राय । औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ । दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या । बहु संख्यक हिन्दू जनमानस में आक्रोश । मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरआत । कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें । आस -पास के सभी क्षेत्रों में उनका सम्मान । हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, कविता पाठ । अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर । सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य । सिर पर सिर त्राण ( पगड़ी ), कटि से ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुँचता है । कटि के नीचे सुथ्थन ढंग की धोती का पहिनाव । पैरों में पत्राण । आँगन में पहुंचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं । फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठकर पैर धोते हैं । मिट्टी लगाकर हाथ साफ़ करते हैं । फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं । दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं । सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं । भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है । कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल रोटी रखकर सामने रख देती है । यह रोज का सुनिश्चित क्रम है । भाभी जानती हैं कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रख कर कह देती हैं कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ , एक छोटी कटोरी में घृत भी है । फिर भाभी रसोई छोड़कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती हैं । भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते हैं । वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है । माँ अब बहुत वृद्ध हो गयी है । अलग कक्ष में पडी या बैठी रहती है । भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं । माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो । सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं । उन्हें लगता है कि दाल सब्जी में नमक ना के बराबर है । कहीं भाभी भूल तो नहीं गयीं ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते है क्योंकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है । शरीर में काफी स्वेद स्रवित होता है कुछ अधिक नमक की माँग रहती है । भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं । भाभी को समय लग रहा है । छोटे बच्चे को साफ़ -सुथरा करने में समय लगता ही है । भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला ,इतने बेताब क्यों हो रहे हो ?भूषण कौर लिये बैठे हैं । नमक की कमी में स्वाद किरकिरा हो रहा है । फिर तीसरी आवाज देते हैं । जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ । कहाँ उलझ गयीं । भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है । छोटा बच्चा अभी तक शिशु ही है रोने लगता है । भाभी गुस्से से हाथ धोकर रसोई में घुसती है ,चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है । कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो । । जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना । मुझे और भी तो कितने झंझट है ॥ खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं । और उनके पास समय नहीं होता । बच्चे के रोने की आवाज भाभी तक आती है । भाभी तैश में आकर कहती है , " लाला तुम तो ऐसे रोब से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता । "
(क्रमशः )
उत्तर मध्य भारत का अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है त्रिपाठी सद्गृहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह । गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्राँगण ,सुरुचिपूर्ण मिट्टी से बनें ऊँचें धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका , फिर अगल -बगल के कई कक्ष , बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान । गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पाने वाला खुला मैदान । गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग । चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है । दिन के दस बजे हैं । अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है । भरे -पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन । गृह में उसके दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे आँगन में दौड़ने -खेलने वाले भतीजे और भतीजियां । दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख -रेख में व्यस्त । भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित । मस्त -मौला , फक्कड़ पर अद्वितीय सृजनात्मक प्रतिभा का धनी । मुगल सम्राट अकबर , जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्त प्राय । औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ । दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या । बहु संख्यक हिन्दू जनमानस में आक्रोश । मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरआत । कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें । आस -पास के सभी क्षेत्रों में उनका सम्मान । हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, कविता पाठ । अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर । सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य । सिर पर सिर त्राण ( पगड़ी ), कटि से ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुँचता है । कटि के नीचे सुथ्थन ढंग की धोती का पहिनाव । पैरों में पत्राण । आँगन में पहुंचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं । फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठकर पैर धोते हैं । मिट्टी लगाकर हाथ साफ़ करते हैं । फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं । दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं । सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं । भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है । कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल रोटी रखकर सामने रख देती है । यह रोज का सुनिश्चित क्रम है । भाभी जानती हैं कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रख कर कह देती हैं कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ , एक छोटी कटोरी में घृत भी है । फिर भाभी रसोई छोड़कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती हैं । भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते हैं । वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है । माँ अब बहुत वृद्ध हो गयी है । अलग कक्ष में पडी या बैठी रहती है । भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं । माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो । सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं । उन्हें लगता है कि दाल सब्जी में नमक ना के बराबर है । कहीं भाभी भूल तो नहीं गयीं ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते है क्योंकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है । शरीर में काफी स्वेद स्रवित होता है कुछ अधिक नमक की माँग रहती है । भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं । भाभी को समय लग रहा है । छोटे बच्चे को साफ़ -सुथरा करने में समय लगता ही है । भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला ,इतने बेताब क्यों हो रहे हो ?भूषण कौर लिये बैठे हैं । नमक की कमी में स्वाद किरकिरा हो रहा है । फिर तीसरी आवाज देते हैं । जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ । कहाँ उलझ गयीं । भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है । छोटा बच्चा अभी तक शिशु ही है रोने लगता है । भाभी गुस्से से हाथ धोकर रसोई में घुसती है ,चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है । कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो । । जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना । मुझे और भी तो कितने झंझट है ॥ खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं । और उनके पास समय नहीं होता । बच्चे के रोने की आवाज भाभी तक आती है । भाभी तैश में आकर कहती है , " लाला तुम तो ऐसे रोब से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता । "
(क्रमशः )
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