काम से राम तक
अर्ध रात्रि का गहन अँधकार । मेघाच्छादित गगन ,हल्की फुहारों की अविरल वृष्टि । एक दुमंजिले मकान की बाहरी दीवार से ऊपर चढ़ते किसी पुष्ट व्यक्ति की धुँधली झलक । एक उछाल के साथ छज्जा लांघकर अंतर प्रविष्टि । छज्जे की ओर खुलते एक काष्ठ द्वार पर हल्की सी थपक । भीतर से किसी नारी कंठ का मधुर स्वर । कौन है ? बासन्ती है क्या ?अभी तक सोयी नहीं ।
उत्तर में धीमी दबी हुयी आवाज में हुआ एक पुरुष स्वर । मैं हूँ रत्ने ,राम बोला । काष्ठ पट खुल जाते हैं । नवयुवक पति को द्वार पर देखकर रत्नावली विस्मित हो जाती है । आप अर्ध रात्रि को जी !भयावह वर्षा के बीच । बिना पूर्व सूचना के !हाय किसी नें देख तो नहीं लिया ।
युवा तुलसी :-रत्नें मैं तुम्हारा पति हूँ किसी नें देख भी लिया हो तो क्या ?मैं तुम्हारा वियोग सहन नहीं कर सका । तुम बिना बताये भाई के साथ अपनें घर चली आयीं । मैं जब हाट से पाक सामिग्री लेकर गृह वापस पहुँचा तो द्वार अर्गला वद्ध था । पड़ोसी रामनयन नें बताया कि तुम भाई के साथ पितृ गृह चली गयी हो और कह गयी हो कि वापस आनें में कुछ दिन लग जायेंगे ।
रत्ना :-तो आपनें मेरे पितृ गृह में आने को सहज भाव से क्यों नहीं लिया ?इतनीं उतावली किसे कर डाली ?लाज ,मर्यादा भी तो कोई चीज होती है आखिर घर में भाई -भाभी और बच्चे हैं और छोटी ननद बासन्ती है । आज बड़ी देर रात तक मेरे ही पास तो बैठी थी । उसका पाणिग्रहण सुनिश्चित हो गया है । इसी सम्बन्ध में मेरे अग्रज प्रियम्बद मुझे ले आये है । मैं तो समझी थी वासन्ती ही दुबारा फिर से मेरे कक्ष में आना चाहती है । भविष्य की अनदेखी झाकियाँ उसके मष्तिष्क में अशान्ति पैदा कर रही हैं ।
युवा तुलसी :-प्रातः बासन्ती से भी मिलूँगा और प्रियम्बद जी को भी प्रणाम करूँगा । अब तो मुझे अन्दर कक्ष में बैठने की आज्ञा दो । तुम नहीं जानती मैं कैसे उफनती हुयी जलधाराओं को चीरकर सर्पिल रज्जु के सहारे दीवार लाँघकर तुम तक आया हूँ ।
रत्ना :-न जाने क्यों ,आपके इस समय अनाहूत आ जाने से मेरे हृदय में प्रसन्नता का भाव नहीं उठ रहा है । आप मेरी शैय्या पर बैठ लें मैं भूमि पर अपनीं आसनी लगाकर बैठ लेती हूँ । दीप की बाती को उकसाकर फिर से प्रज्वलित कर लेती हूँ । अभी -अभी ही तो लौ को आँचल से बुझाया था ।
युवा तुलसी :-प्रिये अब दीप प्रज्वलित करने की क्या आवश्यकता है ?आओ हम दोनों शैय्या पर बैठ -लेट कर प्रेमालाप करें । दीप का धीमा प्रकाश भी नीचे के कक्ष तक मेरे आने की सूचना पहुँचा देगा । और बगल के कमरे में बासन्ती तो अभी जग ही रही होगी । अन्धकार का आवरण ओढ़कर हम दोनों प्रेमी युगल शैय्या पर विश्राम करें यही इस समय उचित होगा । रत्नें मेरी उतावली के लिये मुझे क्षमा नहीं करोगी ?
रत्नावली :-आपको अपनें जीवन में पाकर मैं धन्य हो गयी थी । आपकी विद्वता की चर्चा आस -पास के किस घर तक नहीं पहुँची है पर हे प्रिय आज मुझे लग रहा है कि जैसे आपकी सारी विद्वता जैसे निरर्थक है । मानव सभ्यता इसीलिये संभ्भव हो सकी है कि मानव नें अपनी वासनाओं पर संयम करना सीखा है । शैय्या पर रमण केलि करनें की आप की आकांक्षा पशुवृत्ति से परिचालित है । मुझे बाती उकसा कर प्रज्वलित करने दीजिये जो कोई आयेगा आ जायेगा । ससुर गृह में आपका मर्यादा के अनुसार स्वागत सत्कार होना ही चाहये ।
युवा तुलसी :-प्रिये ,मैं किसी स्वागत ,सत्कार के लिये नहीं आया हूँ । तुम्हारे विक्षोह में न जाने क्यों अपना सारा जीवन निरर्थक लगता है । तुम मेरे पास होती हो तो वायु सुगन्ध से भर जाती है । तुम्हें अपनी बाँहों में भरकर मुझे ब्रम्ह सुख का अनुभव होता है । तुम्हारे नयन तारों में मुझे अगणित आकाशगंगाओं का प्रकाश झलकता दिखायी पड़ता है । मेरी सारे विद्वता तुम्हारे रूप के द्वार पर सिर मार -मर कर पछाड़ जाती है ।
(क्रमशः )
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