Friday, 11 March 2016

                              ........... इस बीच रत्ना बाती को उकेरकर प्रकाशवान कर देती है । हल्का सा प्रकाश काष्ठ पटों की सन्धि से बाहर झलकने लगता है । बगल में बनें सटे कक्ष से शैय्या से उठकर बैठनें और फिर पट खोलकर बाहर आने की क्रिया में उत्पन्न वायु ध्वनियाँ रत्ना तक पहुँचती हैं । युवा तुलसी को वह सचेत करती है ।
रत्ना :-वासन्ती आ रही है । सहज हो जाइये, अपनी प्रगल्भता पर संयम करिये । मैं कहीं भगी नहीं जा रही हूँ । सदैव आप के पास ही रहूँगीं । मैं जानती हूँ कि आप मुझे उतनी ही तीब्रता से प्यार करते हैं जितनी तीब्रता से श्री राम जनक पुत्री को चाहते थे । वासन्ती द्वार पर थपकी देती है । हल्के धक्के से द्वार खुल जाता है । धीमें प्रकाश में युवा तुलसी को  बैठते  देखती  है । बहन रत्ना नीचे आसनी पर द्वार की ओर मुख किये बैठी है ।
वासन्ती :-अरे वाह जीजाजी आप इतनी रात को ?क्या पुष्पक विमान से आ गये । बूँदें गिर रही हैं ,हाँथ को हाँथ नहीं सूझता । सरितायें उफन रही हैं । भूगर्भ में रहनें वाले सरीसृप घबडा कर इधर -उधर तरंगायित हैं और आप हैं कि एक सेवायोजन तय करके बहिना के द्वार पर आ पहुँचे । बैठिये जीजाजी मैं भाभी को खबर दे आती हूँ । आप के खान -पान की कुछ व्यवस्था हो जाय ।
युवा तुलसी :-अरे वासन्ती रहनें दे ,प्रियम्बद को कष्ट मत दे । पति -पत्नी और दोनों बच्चे अपनें कक्ष  में होंगे । इतनी रात को उनकी नींद उच्चाट करना अशोभन होगा।
वासन्ती :-जीजा जी जब आप आये हैं तो आपका सम्मान तो करना ही है ।और फिर आप बड़ी बहिना के यहाँ आ जाने के कारण कुछ पकाकर उदर में पायन के लिये कुछ डाल भी तो नहीं आये होंगें । घर आया जमाई भूखा सो जाये ऐसा क्या कभी हो सकता है ? रत्ना कुछ नहीं बोलती ।
                         वासन्ती समझ लेती है कि रत्ना की सहमति है और भाई -भाभी को सूचना देने के लिये सीढ़ियां उतरकर नीचे कक्ष   में जाती है ।
युवा तुलसी :-देखो रत्ना ,एक झंझट खड़ा हो गया । प्रियम्बद जी एक शास्त्री पुरुष है । पूर्व सूचना दिए बिना इस भयानक अर्ध रात्रि में मेरा यहाँ चले आना उनकी शास्त्रीय परम्परा में स्वीकृत नहीं होगा । इस समय उनके विश्राम में विघ्न उपस्थित कर शायद मैंने अच्छा नहीं किया । रत्ने मुझे बताओ मैं तुम्हारे प्रति अपनी आसक्ति को संयमित क्यों नहीं कर पाता हूँ । रत्ना चुप रहती है । सीढ़ियों पर पग चापों का स्पन्दन ,एक थाल में कुछ फल और हाँथ में गौ पेय से भरा एक ग्लास लिए बासन्ती ऊपर आती है ,पीछे -पीछे उसकी भाभी भी कक्ष में प्रवेश करती है । प्रियम्बद की पत्नी ,रत्ना की भाभी नीलाम्बरा युवा तुलसी को प्रणाम करती है ।
बासन्ती :- लीजिये जीजाजी कुछ खा -पी लीजिये फिर हम लोग आपको इस कक्ष में बड़ी बहिना के साथ अकेले छोड़ देंगें । अभी तो काफी रात पडी है । युवा तुलसी कुछ संकुचित हो जाते हैं । कदली फल का एकाध ग्रास मुँह में डालकर पय पान कर लेते हैं । नीलाम्बरा और बासन्ती वापस जाने को होती हैं इसी बीच नीचे से एक शिशु के रोने की आवाज आती है । गोद में दो वर्ष के एक बालक को उठाये प्रियम्बद जी ऊपर आ जाते हैं । नीलाम्बरा उनसे पूछती है कि उनकी छः वर्षीय पुत्री सुनामा तो नहीं जग गयी    । प्रियम्बद जी सिर हिलाकर बताते हैं कि सुनामा नहीं जगी है । नीलाम्बरा छोटे बच्चे को गोद  में ले लेती है । वासन्ती दूध का खाली ग्लास और थाल में बाकी बचे फल हाथ में लिए खड़ी है । युवा तुलसी उठकर प्रियम्बद को प्रणाम करते हैं । प्रियम्बद स्वास्ति का हाथ उठाते हैं पर फिर उनमें हल्का क्रोध का भाव उभरता दिखायी पड़ता है ।
प्रियम्बद :-क्यों रत्ना तूनें हम लोगों को बताया भी नहीं कि रामबोला जी को आज ही हमारे घर आना है । मेरे साथ आते समय तुम पड़ोसियों को बोल तो आयीं थीं हम  कुछ दिनों बाद तुम्हें वापस भेज आयेंगे । चलो राम बोला  का प्यार भी आस -पास के पड़ोस के लिए किस्सा कहानी बन जायेगा ।
रत्ना :-बड़े भइया  मेरा इसमें  कोई दोष नहीं है । मैं तो स्पष्ट निर्देश दे आयी थी कि इन्हें यहाँ आने की आवश्यकता नहीं है पर शायद प्रेम की अतिशयता : के कारण ऐसा हो गया होगा ।
प्रियम्बद :-आस -पास के पड़ोसी जब सुनेगें तो क्या कहेंगें ?रत्ना अभी तेरी  छोटी बहिन का पाणिग्रहण  संस्कार होना है ,कुछ ही दिन शेष हैं । हम लोग शास्त्री पण्डित हैं ,सयंम हमारा धर्म है ,और आचरण हमारा गौरव है । नारी के प्रति किया गया प्यार ईश्वरीय भक्ति भरे प्यार जैसा नहीं होता । उसमें सदैव वासना की गन्ध होती है और जो वासना का गुलाम है उसे विद्वान माननें का मेरा मन नहीं करता । अब प्रियम्बद वासन्ती को अपनें कमरे में जाने का निर्देश करते हैं स्वयं कक्ष से बाहर निकल जाते हैं । नीलाम्बरा उनके पीछे बच्चे को गोद  में लेकर चल पड़ती है जाते -जाते कहती है पट बन्द कर ले रत्ना अब कोई नहीं आयेगा ।
                                   रत्ना न जाने क्यों अपनें को अपमानित महसूस करती है शायद बड़े भाई की बातों नें उसके मन को चोट पहुँचायी है । रत्ना जानती है कि उसके पति वेद -शास्त्रों के ज्ञाता ,जन  भाषाओं के शीर्षस्थ अधिकारी विद्वान और हीरक उज्ज्वल चरित्र के धनी हैं । अपनें बड़े भाई द्वारा  अपनें पति की विद्वता का किया गया उपहास उसकी छाती पर शूल सा गड़ता है ।
                                 युवा तुलसी उठकर दीप बुझाना चाहते हैं और पट  बन्द कर रात्रि शयन की सोच रहे हैं । पर वे जैसे ही दीप बुझानें के लिए उठते हैं रत्नावली का मुँह तमतमा जाता है । तमतमाये चेहरे से युवा तुलसी की ओर देखते हुये वह तुलसी से कहती हैं ।
रत्ना :-सुन लिया धिक्कार आपनें अपनी विद्वता का । कितना बड़ा गौरव आज की रात आपनें मुझ पर लाद दिया है?
युवा तुलसी :-रत्ने !मेरी ओर एक बार प्यार की दृष्टि से देख लो ,मैं कृति कृत्य हो जाऊँगा । तुम्हारे प्यार से मुझे अन्तः शक्ति मिलती है ।
रत्ना :-हे विद्वद श्रेष्ठ, मेरे प्रति तुम्हारा प्यार एक प्रवंचना है । वासना के जिस गुबार को तुम प्यार की संज्ञा दे रहे हो वह मनोवेगों का एक क्षणिक उफान मात्र है । यदि मेरे प्रति तुम्हारा प्यार चिरस्थयी है तो इस प्यार को भगवान राम  और भगवती सीता के प्यार में बदल कर दिखाओ । मैं आजीवन तुम्हें मन -प्राणों से प्यार करूँगीं । । पर रत्ना का आज का किया गया अपमान इतिहास की एक महान उपलब्धि में बदल दो । कर सकोगे क्या ऐसा ?मेरे जीवन धन ,मेरे प्राण ,मेरे सर्वस्व ,मेरे भविष्य ।
                                      सहसा पीछे से महाकवि निराला की अमर पंक्तियों की गूँज ।
धिक्, धाये तुम यों अनाहूत
खो दिया धर्म ,कुल धाम धूत
रे नहीं राम के अरे काम के सुत कहलाये ।
                                     और फिर इसके बाद स्वर और तीब्र हो जाता है । जैसे कोई  मंत्रोच्चार हो रहा हो ।
जागा -जागा संस्कार प्रबल
रे गया काम तत्क्षण वह जल
देखा वामा वह न थी ,अनल प्रतिमा वह
                        युवा तुलसी रत्ना की ओर देखते हैं । एक अन्तिम दृष्टि जिसमें पहले प्यार झलकता है फिर तटस्थता और फिर विराग । पट की ओर बहिर्गमन करनें से पहले कहते सुनें जाते हैं । रत्ना तुम्हारा प्यार भरा तिरस्कार मेरे जीवन की सबसे बड़ी बहुमूल्य पूँजी है । भारत का इतिहास इस पूँजी के काब्य निवेश से सज-संवर कर हिन्दू जाति के उत्थान का अप्रतिम सोपान बन जायेगा । 'हिन्दू जाति 'शब्द युग्म को मैं सम्पूर्ण विश्व मानव धर्मिता के समानार्थी छवि चित्रों में प्रस्तुत कर रहा हूँ । मेरी ओर से यह अन्तिम मिलन  है रत्ना । इस मिलन की याद को धूमिल मत होने देना । पट खोलकर ,छज्जा लाँघकर युवा तुलसी दीवार के सहारे शरीर सन्तुलन की असाधारण कुशलता दिखाते हुये नीचे उतरनें लगते हैं । आतुर रत्नावली छज्जे पर खड़ी होकर उनकी ओर देखती है । जिसे कौन जाने तुलसी सुन पाते हैं या नहीं ।
                   "मेरे आराध्य ,मेरे पूज्य ,मेरे प्रातः स्मरणीय ,अपनी दासी रत्ना को जीवन में एक बार मिलनें का अवसर और देना । गगन में एक स्वर गूंजता है ।
                             (उपर्लिखित मानस चक्षु विम्ब अपनीं पूरी नाटिकीयता के साथ गहरी नींद में न जानें कहाँ से उभर कर लेखक की चेतना को रंजित कर गया । जगनें पर उसनें इस नाटकीय विम्ब के मूल श्रोत को आलोचनात्मक ढंग से टटोला तो  उसे लगा  कि वह महाकवि निराला की अमर कविता 'तुलसी दास 'की प्रथम दो तीन पंक्तियाँ पढ़ने के बाद दिन भर की थकान के कारण कविता सँग्रह को अपनें बगल में रखकर निद्रा की गोद  में चला गया था । कविता की प्रारम्भ की वह पंक्तियाँ ही शायद स्वप्न जाल को बुननें का आधार बना गयी हों ।)

                       "भारत के नभ का प्रभा सूर्य अस्तमित आज सांस्कृतिक सूर्य है तमस सूर्य दिग्मंडल "

No comments:

Post a Comment