Saturday, 26 March 2016

..................... महाराणा प्रताप कुछ सोचने लगते हैं । एक दृढ निश्चय का भाव उनके मुख पर आ जाता है । म्यान में रखी तलवार उठाकर अपने बगल में रख लेते हैं । मूँठ का कुछ हिस्सा म्यान से बाहर खींच लेते हैं । और फिर राजसी स्वर में महारानी को आदेश देते हैं कि वापस जाकर उस अर्धवयस्का वनवासी नारी को अकेली अन्दर भेज दें । महारानी रूपलेखा ने अन्दर आते समय द्वार फिर से बन्द कर दिया था । अब फिर पत्थर उठाकर खोलती है पर बन्द नहीं कर्तॆ। उस अर्धवयस्का वनवासी नारी को अपने साथ लेकर सकरे दरवाजे तक जाती है । उसे अन्दर जाने को कहती है और फिर द्वार बन्द कर देती है । लौट कर अपने स्थान पर आकर बैठ जाती है । टोली की  और वनवासी नारियाँ उनके आस -पास बैठ जाती हैं । एकाध अपने साथ वन में खिले हुये कुछ फूल साथ ले आयी हैं, उन फूलों को महारानी रूपलेखा के बालों में सजाने लगती हैं । एकाध महारानी से कुछ फल खा लेने का आग्रह करती हैं । छोटी बच्ची फल खाकर निद्रा की गोद में चली गयी है । वह शान्ति के साथ स्वप्न लोक में खोयी हुयी है , उसकी पलकें बंद हैं पर उसका नन्हां चाँद सा मुखड़ा गुफा में प्रकाश बिखेर रहा है । समय बीतता चला जाता है , आधी घड़ी का समय बीत चुका  है । महारानी चिन्तित हो उठी हैं । पर गुफा के भीतरी भाग से अभी तक कोई पुकार तो आयी नहीं । सहसा लगता है कि कुछ पदचाप निकट आते जा रहे हैं  भीतर से दरवाजा खुलता है । महाराणा प्रताप के साथ जो सज्जन चल रहे हैं उनकी वय  55 -60  के बीच होगी । वे सिर  पर  मेवाड़ी पगड़ी बांधें हैं । अंगरखा पहनें हैं । पैरों में दुपल्लू राजस्थानी ढंग की धोती बांधें हैं और साथ ही कामदार राजस्थानी जूतियाँ पहनें हैं । उनके हाँथ में एक लहंगा और एक ओढ़नी है । महारानी रूपलेखा समझ जाती है कि दरअसल उस वनवासी अधेड़ नारी वेष में यह महाश्रेष्ठी ही महाराज से मिलने आये थे । महाराणा को द्वार से बाहर आते देख महारानी रूपलेखा और वनवासी नारियों की पूरी टोली सादर खड़ी हो जाती है और उन्हें हाँथ जोड़कर प्रणाम करती है महाराज रूपलेखा के पास आते हैं और एक प्यार भरी दृष्टि उस पर डाल कर कहते हैं रूपलेखे यह मेवाड़ राज्य के सबसे समर्थ और अतुल सम्पदा के मालिक श्रीमन्त भामाशाह जी हैं । महारानी रूपलेखा हाँथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करती है।  श्रेष्ठी भामाशाह आदर के साथ कहते हैं महारानी आप मेवाड़ राज्य की राज्य श्री हैं ,उम्र में आप मेरी पुत्री तुल्य हैं पर क्षत्राणी के आदर्श चरित्र के रूप में आपकी यशोगाथा दिग्दिगन्त में लहराती है । आने वाला इतिहास शहत्राब्दियों तक मेवाड़ की गौरव गाथा दोहराता रहे इसलिये आज मैं महाराणा के चरणों में अपना सब कुछ समर्पित करने आया था । महाराणा प्रताप की जय हो । मेवाड़ का स्वतंत्रता युद्ध फिर से प्रारम्भ होगा । महाराणा प्रताप ताली बजाकर इंगित देते हैं । वनवासी नारियों की टोली तुरन्त गुफा से बाहर निकल जाती है । पास की गुफाओं में महाराणा के दशाधिक शूरवीर सेनापति गुफा में प्रवेश करते हैं । सभी दीवार  के पीछे अन्तर गुफा में प्रवेश करते हैं । महारानी रूपलेखा झिझकती है । महाराणा प्रताप उन्हें हाँथ पकड़कर चलने का आग्रह करते हैं कहते सुनें जाते  हैं  तुम वीर पुत्री हो ,वीर क्षत्राणी हो ,भारतीय नारी का गौरव हो तुम्हें ही तो राज्य श्री के स्थान पर बिठाकर नयी सेना का संगठन  किया जायेगा । सुनना चाहोगी श्रीमन्त भामाशाह के अद्द्भुत त्याग की अमर कहानी । साठ सहस्त्र सेना ,साठ सहस्त्र आयुध सुसज्जित सेना बीस वर्ष तक उनके द्वारा समर्पित सम्पत्ति पर खड़ी रह सकती है । जब तक राजस्थान का इतिहास है श्रीमन्त भामाशाह की कथा घर घर में गूंजेगी । उदयपुर की पहाड़ियाँ छोड़कर शीघ्र ही उदयपुर के महल में महारानी रूपलेखा का निवास होगा ।
                  एक समवेत स्वर गूँजता है -जय मेवाड़ , जय महाराणा प्रताप । दूर   कहीं कविता की चार लाइनें हवा में गूंजती सुनायी पड़ती हैं :-
                                         " यों धनिक जगत में बहुतेरे ,
                                           पर भामाशाह अकेले थे ।
                                           अतुलित धन कर अर्पित सहर्ष ,
                                            वह स्वतन्त्रता की होली खेले थे ।"
दूर क्षितिज पर लहराता कपिध्वज पार्थ का रथ । पार्थ सारथी तिर्यक ग्रीवा में हतोत्साहित अर्जुन को उत्साहित करते हुये । गीता की  अमर  पंक्तियाँ अन्तरिक्ष में गूँज रही हैं ।
                        परित्राणाय साधूनांम विनाशाय च दुष्कृताम ।
                        धर्मसंस्थापनार्थाय  सम्भवामि युगे युगे ॥ 

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