Monday, 28 March 2016

Is Varsh...........

                        इस वर्ष वसन्ती बयार या तो चली ही नहीं या चली तो मात्र अल्पकाल के लिये । बयार का प्रभाव ग्रीष्म की झुलसन में द्रुति गति से परिवर्तित होता गया । शीत और ग्रीष्म दोनों में ही अतिशयता:की अनापेक्षित उड़ानें देखने को मिलीं । लगता है दो अतियों के बीच का सन्तुलन तन्त्र ढीला पड़ता जा रहा है । ऐसा तो नहीं कि प्रकृति का कोई सचेतक तत्व मानव जाति को पूर्व सूचना दे रहा हो कि वह अतियों की बीच सन्तुलन की सन्धि स्थलों की तलाश करे ।विश्व के   महानतम गणितज्ञ और भौतिकी विद् प्रोफेसर  Stephen Hawking ने यह स्वीकारा है कि ब्रम्हाण्ड में अन्यत्र और कहीं भी  सचल जीवन गतिमान  हो पर उन्होंने यह भेी कहा है यह जीवन सम्भवतः छोटे मोटे कृमि कीटों या  एक दो कोशीय प्राणियों का ही होगा । दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि समस्त ब्रम्हाण्ड में मानव जाति की अद्दभुत श्रष्टि का श्रेय केवल धरती नाम के सौर गृह को ही जाता है । मानव की यह निराली श्रृष्टि इसलिये उसे अपने अस्तित्व की सार्थकता के प्रति निराले ढंग से सोचने के लिये बाध्य करती है । मानव का अभ्युदय यदि निरर्थकता की एक कड़ी मात्र है तो प्रकृति का यह निरर्थक खिलवाड़ किस आनन्द की श्रष्टि के लिये किया जा रहा है ? और यदि मानव विकास की दैवी सम्भावनाओं का कोई भविष्य है तो उसका अन्तिम गन्तब्य अपनी परिपूर्णतः में  कहाँ तक ले जाता है इन प्रश्नों की अबूझता ही इन्हें नये नये रहस्यों से मण्डित करती है और रहस्यों का रोमान्स संसार के और किसी भीरोमान्स से अधिक   रोमाँचकारी होता है । जो स्पष्ट है , जो जान लिया गया है , वो जान लेने के बाद तुरन्त बासी होने लगता है । जान लेने की सम्पूर्णतः हमें बौद्धिक संतोष भले ही दे दे उसमें एक प्रकार की मानसिक स्थिरता भी परिलक्षित होती रहती है । एक ऐसी स्थिरता जो हमें नया जानने की जोखिम से दूर रखती है और इस प्रकार प्रगति की धारा स्थिरता के समतल से चलकर अगति की खाइयों में जा गिरती है । ब्रम्हाण्ड का विस्तार शायद इसीलिये इतना असीमित है ताकि मनुष्य के जिज्ञासु मन को निरन्तर उद्वेलित रखा जाय । असीमित आकाश गंगायें , असीमित तारावलियां , असीमित ग्रह  -उपग्रह , असीमित प्रकाश चूर्ण । इन सबका चिन्तन ही रहस्यों का रहस्य है । और इसीलिये तो श्रष्टि के श्रष्टा भी कल्पना भी रहस्य का ही एक शत सहस्त्र रंगी जाल है । मुक्ति का अपना आनद है तो माया का अपना आनन्द । भले ही ठगनी माया हमें ठग रही हो पर पर ये ठगा जाना भी कितना सुवाहना लगता है । कभी कभी हम भीतर से चाहते है कि कि कोई हमें लुभावने मन से ठगे और उस मोहक ठगन में ही स्पन्दित जिन्दगी का एहसास होता है । मुक्ति और माया दोनों के बीच सामान्य नर -नारी का जीवन संग्राम किसी उपेक्षा की वस्तु नहीं है।  कि संग्राम में ही कालजयी उपलब्धियां प्राप्त होती हैं । भारतीय काब्य शास्त्र में वर्षो की कल्पना मनोवेगों के रंगबिरंगे प्रवाह को सूत्रात्मक ढंग से समझनें का एक प्रयास ही तो है । 'माटी ' की कुछ रचनायें गम्भीर दार्शनिकता के बोझ से दबी रहती हैं और उनका पूरा आनन्द उच्च शिक्षित और संस्कारित पाठक ही ले पाते हैं । कुछ रचनाओँ में सामाजिक अन्तर्भेदों को उजागर कर उनकी ऐतिहासिक और वैज्ञानिक व्याख्यायें प्रस्तुत होती हैं । उन्हें समझनें के लिये भी एक सुसंगत तर्कपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है । कुछ रचनायें हल्की फुल्की अनुभूतियों को दीप्त कर मन के लिये सन्तुलन की सामग्री प्रस्तुत करती हैं । कविताओं में कुछ व्यंग्यिकाये हल्का -फुल्का हास्य समेटे होती है पर कुछ कटाक्षिकायें फूहड़ चोट करती हुयी दिखायी पड़ती हैं । जीवन में यह सब कुछ होता ही रहता है । धर्म एक ओर समाज के महामूल्यों को धारण करने की सामर्थ्य रखता है तो दूसरी ओर पाखण्ड का बाना भी पहन सकता है इसी प्रकार नीतिशास्त्र भी कुतर्की के हाँथ में पड़कर अपनी छवि मलिन  कर लेता है । हम चाहेंगें कि हल्का -फुल्का हास्य तो कटाक्ष और कटूक्तियों से मुक्त हो' माटी ' में सम्मानीय स्थान पा सके । हम दूसरों पर हँसते हैं, दूसरे हम पर हँसते हैं । पर हम कभी अपने आप पर हँस  लें तो कैसा रहे ? यह हँसी पागलपन की हँसी न हो बल्कि संज्ञानता की हँसी हो । कबीर की हँसी को भला कौन अपने जीवन में स्वीकार नहीं करेगा ।
"मोंहि सुनि सुनि आवत हाँसी
जल विच मीन पियासी ।"
और देखिये
"दोष पराये देखि के चला हसन्त हसन्त
आपन चित्त न माइये जाको आदि न अन्त । "
                           तो आइये हम सार्थक ढंग से अपने आप पर हँसना सीखें । भारतीय नाट्य शास्त्र के मनीषी भली भाँति इस बात से  परिचित थे कि गंभ्भीर चिन्तन का बोझ और जीवन की अनिवार्य विषमतायें हास्य का पुट पाकर ही सहनीय बन सकती हैं इसीलिये उन्होंने नाटकों में विदूषक को एक अनिवार्य अंग के रूप में समावेषित  किया और अंग्रेजी के महानतम नाटककार शैक्सपियर के नाटकों के सम्बन्ध में कहे गये इस वाक्य से कौन शिक्षित व्यक्ति परिचित नहीं है ?
" Fools of Shakespeare are wiser then the wisest of us ."
दोष रहित मुक्ता राशि जैसी धवल हँसी जो किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य न बनाकर मानव विसंगतियों पर आधारित हो । जब हम यह कह सकते हैं कि  We are all human  तब इस कहने का यही मतलब होता है कि यह मानव स्वभाव के निर्मित में बहुत कुछ ऐसा होता है जो विसंगतियों से भरा है और जिस पर विश्लेषण की टार्च लाइट डाल कर सहज हास्य का आधार जुटाया जा सकता है । 'माटी ' के लेखकों से इस प्रकार की रचनायेँ प्रार्थनीय हैं । अपनी पूरी ऊँचाई के बावजूद अभी तक निर्वाध गगन प्रस्तार का एक लघुकण भी मानव की पकड़ में नहीं आया है । क़ुतुब मीनार की ऊँचाई को पार करते हुये दिल्ली में बना म्युनिस्पिल्टी का नया भवन 112 मीटर ऊँचा है । दुबई में बनी हुयी इमारतें 100 मंजिलों की ऊँचाई ले चुकी हैं पर मुस्कराहट बिखेरते सितारों के कारवाँ मानव की इन छुद्र उपलब्धियों की हँसी ही उड़ाते रहते हैं । ' माटी ' का प्रकाशन भी उत्कर्षतः की नयी  ऊँचाइयों को छूने का एक प्रयास था और है पर हमें अपनी छुद्रता का अहसास भी है और यह अहसास ही हमारे इस निश्चय को और दृढ करता है कि हमनें जो सोचा था और जो सोचते हैं उसे पाकर रहेंगें । प्रशंसा और निन्दा दोनों को समान भाव से स्वीकार करते हुये हम अपने संकल्पित मार्ग पर बढ़ रहे हैं । कल तकनीक की नयी विधायें छपे शब्दों को कितना पछाड़ पायेंगी यह तो भविष्य ही बतायेगा पर शब्दों की सामर्थ्य से ही मानव क्रान्तियों का उद्द्भव और परिपोषण हुआ है और होता रहेगा । रह रहकर लड़कपन में पढ़ी विशम्भर नाथ शर्मा की कहानी " उसने कहा था "के यह शब्द मेरे मन में उभर कर आते रहते हैं
" उद्यमी उठ सिगड़ी में कोयले डाल ।"
चेतना की दीप्ति प्रज्वलित करने के लिये 'माटी 'सिगड़ी में कोयले डाल  रही है । उद्यम ही हमारे वश में है और यही तो गीता का मूल सन्देश है और यही भारतीय होने का गौरव भी है । 

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