........... इन्द्रिय सुख और आत्म सुख का अन्तर जानते हैं । आनन्द और मनोरंजन इन दोनों में बहुत गहरा सम्बन्ध है आनन्द आत्मा की एक पुलक भरी अनुभूति है जब कि मनोरन्जन सुखेन्द्रियों की क्षणिक उत्तेजना है । नचिकेता तुम तो विश्व की कई भाषायें जानते हो, इण्डो आर्यन भाषा समूह में एक भाषा अंग्रेजी भी है । उसकी भी शब्द राशि इतनी ही प्रचुर है जितनी संस्कृत की । अंग्रेजी के दो शब्द हैं । एक है Happiness और एक है Pleasure दोनों में बड़ा अन्तर है । Happiness आत्मसंतोष और आत्मसुख की टिकाऊ आधारशिला पर खड़ा है । Pleasure मचलती हुयी लहरियों की तरह चलायमान धरातल पर स्थित है पर नचिकेता आनन्द की भी कई कोटियाँ हैं । आनन्द से बढ़कर अति आनन्द से होते हुये जब हम परमानन्द पर पहुँच जाते हैं तब हमें यह मानव देह निरर्थक ही लगने लगती है । आत्मा का ऊर्ध्वगामी विहंग उस समय ज्योतित पथ के पार श्रष्टा के चिर आनन्दित प्रकाश पुंज में उड़ जानें के लिये व्याकुल हो जाता है ।
नचिकेता :-हे ज्ञान सागर ,जब आत्मा देह में अवस्थित है तो देह का सुख -दुःख भी तो आत्मा को प्रभावित करता होगा । आपके कथन से लगता है कि देह का गठन आत्मा के निवेश के लिये ही होता है । उसका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । पर अबूझ पर्वत के ऊपर मेरे राज्य में कमर में बाघम्बर लपेटे एक मुनि मुझे मिले थे । उन्होंने मुझसे कहा था कि देह और आत्मा के अलग -अलग होने की बातें शब्दों की काव्यात्मक उक्तियाँ हैं । सच पूछो तो देह के बिना तो आत्मा रह ही नहीं सकती और फिर यदि आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है तो उसे कभी किसी ने देखा जाना क्यों नहीं ? न तो किसी ने शरीर में उसका प्रवेश देखा है और न वहिर्गमन । कई बार मेरे कुल गुरु ने बताया है कि तपस्वी ऋषियों के सिर के ऊर्ध्वभाग से मृत्यु के समय प्रकाश की एक लौ निकलती है और विद्द्युत् कौंध के साथ गगन में विलीन हो जाती है । क्या ऐसा ही होता है ?आप तो मृत्यु के देवता हैं । आप से तो कुछ छिपा हुआ नहीं है ।
यमराज :-देखो वत्स ,मैं तुम्हारे समक्ष बैठा हूँ मेरा वाह्य शरीर तुम्हारे सामने है । यदि मैं साधारण मनुष्य होता और मृत्यु को प्राप्त होता तो मेरा यह शरीर तुम्हारे सामने ऐसे ही उपस्थित रहता पर इसकी चेतना लुप्त हो जाती । अब यदि चेतना जिसे हम आत्मा या परम तत्व का अणु अंश कहते हैं उसकी अपनी अलग सत्ता न होती तो शरीर निर्जीव कैसे होता ? जो ऐसा नहीं मानते उन्होंने सत्य को जाना ही नहीं है । देखो नचिकेता , न तो तुम हाँथ हो ,न आँख ,न मुख ,न कान । त्वचा से ढका तुम्हारा यह अस्थियों का ढांचा तो मात्र इसलिये खड़ा किया गया है कि इसमें परमतत्व का निवास हो । यह प्रश्न अत्यन्त गूढ़ है और इनके शाब्दिक उत्तर तब तक मन को नहीं छूते जब तक अपने अनुभव से सिद्ध पुरुषों के साथ रहकर कोई यह जान नहीं लेता कि आत्मा शारीरिक सुख दुःख से ऊपर चिर आनन्द के सिंहासन पर बैठी है । नचिकेता जो कुछ भी इस सँसार में हो रहा है अपने सतत कार्यक्रम के अनुसार होता है । मानव जाति का यह झूठा अहँकार कि उसके द्वारा विश्व के कार्यकलाप संचालित किये जा रहे हैं एक सुहावने भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं । नचिकेता जन्म और मृत्यु ,मिलन और वियोग ,श्रष्टि और विनाश सभी कुछ श्रष्टा की माया के बदलते हुये परिद्रश्य हैं । एक पटाक्षेप के बाद दूसरा दृश्य और फिर दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार अनगिनत काल तक अनगिनत द्रश्य चलते रहते हैं । जो आत्मा के अमरत्व में स्थिर हो जाता है उसके लिये इन दृश्यों का कोई महत्त्व नहीं है ।
नचिकेता :-प्रभु, संसार में इतना वैभिन्य है और घटनाओं का इतना आश्चर्यजनक अम्बार है कि यह मानना कठिन हो जाता है कि यह सब माया के लुभावने रूप ही हैं । भिन्नता की अपनी भी तो कोई सच्चायी होनी चाहिये ।
धर्मराज :-देखो नचिकेता ,जैसे पहाड़ी की चोटी पर गिरता हुआ पानी न जाने कितनी धारायें बनाकर भिन्न -भिन्न रास्तों से तलहटी की ओर दौड़ने लगता है । वैसे ही लीलाधर एक ही केन्द्र से जगत के समस्त मायाजाल को संचालित कर रहा है । अज्ञानी अलग -अलग बहती हुयी धाराओं के अलग -अलग नाम देते हैं । और उन्हें अलग -अलग ढंग से परिभाषित करते हैं । पर जल तो जल हेी है बूँद हो या समुद्र ,नदी हो या नाला ,झरना हो या उत्स सभी में जल है । जल जल में मिलकर जल ही हो जाता है । अमर प्रकाश का जो अंश मानव देह में है वह यदि साधना की उर्ध्वगामी शक्ति से अनुचालित हो तो अनन्त प्रकाश पुंज में मिल जाने की क्षमता रखता है । अन्य चेतन देहों में भी अमरत्व की हल्की -फुल्की झांईं होती है | पर उसे सशक्त होने के लिये न जाने कितने जन्मों के बाद और कितनी योनियों में परिभ्रमण के बाद मानव काया में पहुंचने का सुअवसर प्राप्त होता है ।
नचिकेता :-भगवन ,क्या हमारे भीतर आत्मा स्वयं प्रकाशमान है या उसे और कहीं से प्रकाश पाने की आवश्यकता होती है । अमरत्व का जो केन्द्र बिन्दु मानव काया में निहित है क्या उसको और कहीं से प्रकाश मिलता है । क्या सूर्य ,चन्द्र या तारामंडल उसे प्रकाश देते हैं । क्या मेघों में कौंधती बिजली से उसे प्रकाश मिलता है या ऋषियों की यज्ञ की अग्नि से आत्मा प्रकाशवान होती है ।
यमराज :-नचिकेता तुमनें एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है । यह प्रश्न इतना गूढ़ है कि इसके उत्तर खोजने के लिये मुझे स्वयं दयानिधि के द्वार पर जाना पड़ा था और जानते हो उन्होंने क्या कहा ? उन्होंने कहा है धर्मराज आप यमराज भी हैं । मृत्यु आपकी मुठ्ठी में है पर जीवन आपकी मुठ्ठी में नहीं है फिर उन्होंनें आगे कहा सच मानना मृत्यु राज सृष्टि की सृजन प्रक्रिया जब प्रारम्भ हो गयी उसके बाद मैं भी उसका कर्ता नहीं रहा । आदि कारण तो मैं हूँ पर अब सृष्टि स्वयं संचालित है । विज्ञान उसे प्रकृति का अनवरत प्रभाव कहता है । दर्शन उसे माया की मंचीय अवतारणा बताता है पर एक तटस्थ दर्शक और विवेचक की भाँति मैं उस सबको अब एक अनियन्त्रित और अलक्षित लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ चेतन प्रवाह ही मानता हूँ । मैं स्वयं नहीं जानता कि मेरे भीतर की वह कौन सी बाध्यता थी जिसने मुझे जड़ से चेतन की उत्पत्ति की ओर उन्मुख कर दिया । मुझे लगने लगा है कि मैं स्वयं माया के आत्मजाल में तो नहीं फँसता जा रहा हूँ ।
हाँ तो तुमनें पूछा था मनुष्य में निहित अमरत्व का प्रकाश कहाँ से आता है तो सुनो वहअमर तत्व स्वयं प्रकाशित है और उसके प्रकाश का प्रतिबिम्ब ही ब्रम्हाण्ड की सारी ज्योतित गंगाओं में प्रतिबिम्बित होता है । अमरत्व का वह अंश मानव अन्तः स्थल में इस प्रकार स्थित है कि उससे उठने वाली चेतना तरंगें काया के प्रत्येक रोम ,प्रत्येक छिद्र और प्रत्येक इन्द्रिय अनुभव को स्पन्दित कर रही है Reed Plant( नरकुल का पौधा )को उसके पत्तों से हटा कर ही स्पष्ट रूप देखा जा सकता है इन्द्रिय तरंगों से प्रभावित ह्रदय में पड़ जाने वाली गाँठें जब खुल जाती हैं और जब मोह का विकार मनुष्य से दूर हट जाता है तब उसकी आत्मा का प्रकाश अपनी झलक देता हैं और इस झलक पर यदि हम निरन्तर अपने अन्तर चक्षुओं को केंद्रित रखें तो हमें अमरता की प्राप्ति हो सकती है । यह शरीर एक रथ है जिसे हमारी इन्द्रियाँ घोड़े की तरह खींच रही हैं । मनुष्य का मस्तिष्क उस लगाम की तरह है जो अपनी समझ कर अनुसार इन घोड़ों को नियन्त्रित रखता है । आत्मा ही शरीर रथ की अन्तर्वेदी पीठिका पर बैठी हुयी है । यदि मन को नियन्त्रित कर हम उसे ठीक समय पर ठीक प्रकार बलगा खींचने या ढील करने की अनुशासन प्रक्रिया से नहीं गुजरने देते तो कभी भी मनुष्य अमरत्व का आभाष नहीं कर सकेगा । शरीर रूपी यह रथ सांसारिक गलियों में चक्कर -पर चक्कर खाता रहेगा और जन्म मरण की असंख्य वीथियों में और असंख्य कोटियों में भटकता फिरेगा । हे नचिकेता , तुम अपने नाशवान शरीर में स्थित अविनाशी तत्व के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ । आत्मा न कभी जन्मती है और न कभी मरती है । वह न कहीं से आयी है और न कहीं जाकर उसे विनिष्ट होना है । नचिकेता तुम अजन्मा हो ,सदाजीवी हो ,शाश्वत हो और अखण्डित तथा अभिभाज्य हो । उठो नचिकेता, तुम्हें अब अपने पिता के पास धरती नामक गृह पर फिर से जाना है अब तो तुम अमर दर्शन का घूँट पी चुके हो । अब तुम्हें मेरे पास इसलिये नहीं आना है कि मैं तुम्हारे कर्मों का फलाफल सुनिश्चित करूँ । तुम अब संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहोगे । तुम अब देह में रहकर भी देह में नहीं रहोगे । तुम अब गेह में रहकर भी गेह में नहीं रहोगे ।
तुम अदेह हो ,अशरीरी हो ,। तुम प्रकाश की एक निरन्तर दीप्तिमान लौ हो । मैं तुम्हें अपने पुत्र और शिष्य के रूप में स्वीकार करता हूँ । अपने भौतिक पिता के पास वापस जाओ और उन्हें मोह मुक्त करो । उन्हें बताना दानी होने का सम्मान पाना भी एक लालसा है जब उनका कुछ है ही नहीं तो दान कैसा ? मुक्त जीवी के लिये तो सम्पदा का ढेर रेत के टीले से अधिक और कुछ नहीं होता । नचिकेता ,ये पंक्तियाँ जो आत्मा से सम्बन्धित हैं और जिन्हें अब तुमने जीवन में पूरी तरह उतार लिया है भारत वर्ष के घर -घर में पहुँचा देना ।
" न जायते प्रियतो व विपश्चिन्
नायं कुतिश्चिन्न वभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोड्ड्यं पुराणों
न हन्यते हन्यमानें शरीरे । "
(नेपथ्य में एक ऊँचीं ध्वनि )
जय हो मृत्यु के देवता ,जय हो अमरता के सन्देश वाहक ,जै हो धर्म के अधिष्ठाता , विजयी हो भारत की आर्ष परम्परा ।
( पटाक्षेप )
No comments:
Post a Comment