.... माटी में जिन रचनाकारों नें अभी तक स्थान नहीं पाया है उन्हें छुद्र नहीं होना चाहिये । हम एक बार अपनें पास आयी हुयी सभी रचनाओं का पुनरीक्षण कर रहे हैं और जहां तक संभ्भव होगा सभी स्तरीय रचनायें प्रकाशित की जायेंगी । आज के तकनीकी युग में गूगल और याहू नयी पीढ़ी के लिये क्रेज बनते जा रहे हैं । वेबसाइट और Surfing तथा ब्राउजिंग का नयापन युवकों को अपनी ओर खींच रहा है । पर इतना सब होते हुये भी माटी अभी तक इस विश्वास को पाल रही है कि गहरी वैचारिक उपलब्धि और विशालता के लिये श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकायें और पुस्तकें ही टिकाऊ आधार प्रदान कर सकती हैं ।
शाश्वत जीवन मूल्यों को रचनाओं के माध्यम से अपनें में समाहित करनें वाली माटी मासिक का नाम कई बार भ्रामक धारणायें पैदा कर देता है । एस . के .रावत जो पत्रिका के एक पाठक हैं और जिनकी अभिव्यक्ति के माध्यमों पर गहरी पकड़ है नें हमें लिखा है कि माटी मध्यम वर्ग के लिये तो श्रेष्ठ पठन सामग्री प्रस्तुत कर रही है पर दलित वर्ग के लिये उद्द्भोदक रचनाओं का उसमें पूरा समावेश नहीं है । मैं अपनें बहुबिध्य पाठको को यह कहना चाहूँगा कि माटी नामांकन का अर्थ माँ भारती की गोद में पलती सभी सन्तानों के प्रति सम्मान के प्रतीकार्य में लिया जाना चाहिये । हम वर्ग संघर्ष में विश्वास नहीं करते । हम सहयोग ,समन्वय, समरसता और समान अवसर के पक्षधर हैं । हाँ इतना अवश्य है कि अतीत की समाज व्यवस्था में जो उपेक्षित रहे हैं और जिनकी प्रतिभा सामाजिक संरचना के कारण पूरा विकास नहीं पा पायी है उन लोगों को कुछ विशिष्ट अधिकारों और सुविधाओं के द्वारा आर्थिक प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ा जाय । भारत की सभी राजनैतिक पार्टियां इस विचारधारा की समर्थक हैं। उनकी आर्थिक विचारधारा और सांस्कृतिक अवधारणा में अन्तर हो सकता है पर इस बात पर सभी एक मत हैं कि आर्थिक दृष्टि से पीड़ित और वर्ण व्यवस्था के दुर्पयोग से दंशित वर्ग समूहों को प्रगति की दौर में औरों से दो एक कदम आगे खड़ा किया जाय ताकि वे लम्बे समय तक पिछड़ते न रह जाय। राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से दलित कहे जानें वाले वर्ग और पिछड़े कहे जाने वाले व्यक्ति समूहों नें स्वतन्त्र भारत में अच्छी प्रगति दिखायी है । उनका राजनीतिक सशक्तीकरण तो इस सीमा तक पहुँच गया है कि पुरानी वर्ण व्यवस्था तो अब सिर के बल खड़ी होकर एक नया आकार लेती जा रही है । माटी भारत की मिट्टी में जन्में छोटे -बड़े ,गरीब -अमीर ,दलित -अभजात्य ,श्रमिक -पूँजीपत ,निम्न -मध्यम ,उच्च और उच्चतम सभी वर्गों को प्यार से अपने आगोश में समेटना चाहती है । हजारों हजार वर्षों से भूगोल ,इतिहास और बाजारी व्यवस्था की विभन्नताओं नें मानव समाज के जीवन स्तर में बहुत बड़ा अन्तर ला दिया है । यह अन्तर बहुत शीघ्र नहीं मिट सकता पर एक दो शताब्दियों तक यदि आतकवाद से मुक्त होकर जनतांत्रिक व्यवस्था चल जाय तो इस बात की पूरी संभावना है कि समानता का एक स्वीकार्य ढांचा विश्वमानव के सामनें खड़ा हो जायेगा । वैसे यह कह देना भी यहाँ समीचीन होगा कि एक ऐसी समानता जिसमें सभी आर्थिक या सामाजिक महत्ता की दृष्टि से एक जैसे हो जॉय कभी भी संभव नहीं है। ऐसा न तो कभी था और न ही कभी होगा । ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी की लीडर मार्गेट थैचर जोर देकर यह बात कहती थीं कि एक सपाट समानता न तो प्रकृति का नियम है और न ही यह मानव समाज का नियम बन सकता है । " In Equality is the law of nature"| हमारा सामान्य अनुभव हमें बताता है न तो आकार -प्रकार में ,न ही बुद्धि के पैमानें पर और न ही पुरषार्थ की तराजू पर संसार के नर -नारियों को एक समान स्तर पर खड़ा किया जा सकता है । भिन्नता तो रहेगी ही जो आलसी हैं ,भीरू हैं और पलायन वादी हैं वे प्रगति की दौड़ में उनसे पिछड़ ही जायेंगें जो पुरुषार्थी हैं ,निरन्तर क्रियाशील हैं ,और जोखिम उठाकर नयी मंजिलों से अनछुए लक्ष्यों तक पहुँचनें की कोशिश करते हैं (क्रमशः )
शाश्वत जीवन मूल्यों को रचनाओं के माध्यम से अपनें में समाहित करनें वाली माटी मासिक का नाम कई बार भ्रामक धारणायें पैदा कर देता है । एस . के .रावत जो पत्रिका के एक पाठक हैं और जिनकी अभिव्यक्ति के माध्यमों पर गहरी पकड़ है नें हमें लिखा है कि माटी मध्यम वर्ग के लिये तो श्रेष्ठ पठन सामग्री प्रस्तुत कर रही है पर दलित वर्ग के लिये उद्द्भोदक रचनाओं का उसमें पूरा समावेश नहीं है । मैं अपनें बहुबिध्य पाठको को यह कहना चाहूँगा कि माटी नामांकन का अर्थ माँ भारती की गोद में पलती सभी सन्तानों के प्रति सम्मान के प्रतीकार्य में लिया जाना चाहिये । हम वर्ग संघर्ष में विश्वास नहीं करते । हम सहयोग ,समन्वय, समरसता और समान अवसर के पक्षधर हैं । हाँ इतना अवश्य है कि अतीत की समाज व्यवस्था में जो उपेक्षित रहे हैं और जिनकी प्रतिभा सामाजिक संरचना के कारण पूरा विकास नहीं पा पायी है उन लोगों को कुछ विशिष्ट अधिकारों और सुविधाओं के द्वारा आर्थिक प्रगति की मुख्य धारा से जोड़ा जाय । भारत की सभी राजनैतिक पार्टियां इस विचारधारा की समर्थक हैं। उनकी आर्थिक विचारधारा और सांस्कृतिक अवधारणा में अन्तर हो सकता है पर इस बात पर सभी एक मत हैं कि आर्थिक दृष्टि से पीड़ित और वर्ण व्यवस्था के दुर्पयोग से दंशित वर्ग समूहों को प्रगति की दौर में औरों से दो एक कदम आगे खड़ा किया जाय ताकि वे लम्बे समय तक पिछड़ते न रह जाय। राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से दलित कहे जानें वाले वर्ग और पिछड़े कहे जाने वाले व्यक्ति समूहों नें स्वतन्त्र भारत में अच्छी प्रगति दिखायी है । उनका राजनीतिक सशक्तीकरण तो इस सीमा तक पहुँच गया है कि पुरानी वर्ण व्यवस्था तो अब सिर के बल खड़ी होकर एक नया आकार लेती जा रही है । माटी भारत की मिट्टी में जन्में छोटे -बड़े ,गरीब -अमीर ,दलित -अभजात्य ,श्रमिक -पूँजीपत ,निम्न -मध्यम ,उच्च और उच्चतम सभी वर्गों को प्यार से अपने आगोश में समेटना चाहती है । हजारों हजार वर्षों से भूगोल ,इतिहास और बाजारी व्यवस्था की विभन्नताओं नें मानव समाज के जीवन स्तर में बहुत बड़ा अन्तर ला दिया है । यह अन्तर बहुत शीघ्र नहीं मिट सकता पर एक दो शताब्दियों तक यदि आतकवाद से मुक्त होकर जनतांत्रिक व्यवस्था चल जाय तो इस बात की पूरी संभावना है कि समानता का एक स्वीकार्य ढांचा विश्वमानव के सामनें खड़ा हो जायेगा । वैसे यह कह देना भी यहाँ समीचीन होगा कि एक ऐसी समानता जिसमें सभी आर्थिक या सामाजिक महत्ता की दृष्टि से एक जैसे हो जॉय कभी भी संभव नहीं है। ऐसा न तो कभी था और न ही कभी होगा । ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी की लीडर मार्गेट थैचर जोर देकर यह बात कहती थीं कि एक सपाट समानता न तो प्रकृति का नियम है और न ही यह मानव समाज का नियम बन सकता है । " In Equality is the law of nature"| हमारा सामान्य अनुभव हमें बताता है न तो आकार -प्रकार में ,न ही बुद्धि के पैमानें पर और न ही पुरषार्थ की तराजू पर संसार के नर -नारियों को एक समान स्तर पर खड़ा किया जा सकता है । भिन्नता तो रहेगी ही जो आलसी हैं ,भीरू हैं और पलायन वादी हैं वे प्रगति की दौड़ में उनसे पिछड़ ही जायेंगें जो पुरुषार्थी हैं ,निरन्तर क्रियाशील हैं ,और जोखिम उठाकर नयी मंजिलों से अनछुए लक्ष्यों तक पहुँचनें की कोशिश करते हैं (क्रमशः )
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