माटी की अपनी सीमायें हैं। सीमारहित तो कुछ होता ही नहीं यदि सीमारहित कुछ है तो वह है असीम ब्रम्हाण्ड या उसके पीछे सृजन की कोई सत्ता । गणितज्ञ infinite को एक कल्पना मात्र मानते हैं पर इस कल्पना का आधार लिए बिना सांख्यकीय की अपार सम्भावनायें चरितार्थ ही नहीं की जा सकती । भूमण्डल भी तो असीम ब्रम्हाण्ड में एक छुद्रतम कण ही है । हाँ इस छोटेपन से लघुता के अस्तित्व पर कोई प्रश्न चिंन्ह खड़ा करना उचित नहीं होगा । लघुता का अपना महत्व है वैसे ही जैसे चमत्कृत कर देने वाली विशालता का । महर्षि कणाद भी तो यही कहते हैं जो कण में है वही असीमित नीलभ विस्तार में है । जो पिण्ड में है वही पर्वत प्रसार में है। पर माटी की जिन सीमाओं की चर्चा मैं कर रहा हूँ उसका सम्बन्ध उसके कलेवर ,उसकी साज -सज्जा और उसमें सजोयी गयी विचार सामग्री से है । इसे एक गर्व भरा कथन नहीं समझना चाहिये पर यह सच है कि माटी में छपनेँ के लिये शताधिक रचनायें हमारे पास आ रही हैं उनमें से काफी कुछ रचनायें छपने योग्य होकर भी छप नहीं पा रही हैं क्योंकि माटी का कलेवर एक सीमा के भीतर ही अपनी गुण वत्ता सँजोये रख सकता है । 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष आर्थिक विकास वाले भारत में राष्ट्र भाषा हिन्दी में निकलनें वाली कोई भी साहित्यिक पत्रिका केवल रचनाओं के बल पर अपना नैरन्तर्य कायम नहीं रख सकती । प्रकाशन की निरन्तरता बनाये रखनें के लिये उसे बहुराष्ट्रवादी कम्पनियों से या सरकार से विज्ञापनों की आवश्यकता होती है । यदि माटी अपनी विचारधारा किसी राजनैतिक पार्टी को गिरवी रख दे तो हो सकता है कि उसे किसी छद्द्म रूप से वित्तीय सहायता मिल जाय पर अपनी लघु काया में भी माटी वैचारिक स्वतन्त्रता का मुकुट बाँधे हुये है । उसके प्रकाशन के पीछे आदर्शों के लिये प्राणाहुति करने की प्रेरणा ही काम कर रही थी और यही प्रेरणा सदैव उसकी जीवन्ता बनी रहेगी । (क्रमश : )
Sunday, 6 March 2016
Mati kee Apnee.........
माटी की अपनी सीमायें हैं। सीमारहित तो कुछ होता ही नहीं यदि सीमारहित कुछ है तो वह है असीम ब्रम्हाण्ड या उसके पीछे सृजन की कोई सत्ता । गणितज्ञ infinite को एक कल्पना मात्र मानते हैं पर इस कल्पना का आधार लिए बिना सांख्यकीय की अपार सम्भावनायें चरितार्थ ही नहीं की जा सकती । भूमण्डल भी तो असीम ब्रम्हाण्ड में एक छुद्रतम कण ही है । हाँ इस छोटेपन से लघुता के अस्तित्व पर कोई प्रश्न चिंन्ह खड़ा करना उचित नहीं होगा । लघुता का अपना महत्व है वैसे ही जैसे चमत्कृत कर देने वाली विशालता का । महर्षि कणाद भी तो यही कहते हैं जो कण में है वही असीमित नीलभ विस्तार में है । जो पिण्ड में है वही पर्वत प्रसार में है। पर माटी की जिन सीमाओं की चर्चा मैं कर रहा हूँ उसका सम्बन्ध उसके कलेवर ,उसकी साज -सज्जा और उसमें सजोयी गयी विचार सामग्री से है । इसे एक गर्व भरा कथन नहीं समझना चाहिये पर यह सच है कि माटी में छपनेँ के लिये शताधिक रचनायें हमारे पास आ रही हैं उनमें से काफी कुछ रचनायें छपने योग्य होकर भी छप नहीं पा रही हैं क्योंकि माटी का कलेवर एक सीमा के भीतर ही अपनी गुण वत्ता सँजोये रख सकता है । 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष आर्थिक विकास वाले भारत में राष्ट्र भाषा हिन्दी में निकलनें वाली कोई भी साहित्यिक पत्रिका केवल रचनाओं के बल पर अपना नैरन्तर्य कायम नहीं रख सकती । प्रकाशन की निरन्तरता बनाये रखनें के लिये उसे बहुराष्ट्रवादी कम्पनियों से या सरकार से विज्ञापनों की आवश्यकता होती है । यदि माटी अपनी विचारधारा किसी राजनैतिक पार्टी को गिरवी रख दे तो हो सकता है कि उसे किसी छद्द्म रूप से वित्तीय सहायता मिल जाय पर अपनी लघु काया में भी माटी वैचारिक स्वतन्त्रता का मुकुट बाँधे हुये है । उसके प्रकाशन के पीछे आदर्शों के लिये प्राणाहुति करने की प्रेरणा ही काम कर रही थी और यही प्रेरणा सदैव उसकी जीवन्ता बनी रहेगी । (क्रमश : )
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