गतांक से आगे। ……।
" हम कौन थे क्या हो गये सोचो विचारो तो सही "
' माटी ' भारतीय अस्मिता की अमर गौरव गाथा को हर हाट -बाट में प्रसारित करनें का रचनात्मक प्रयास है। हम चाहेंगें कि सँसार से आती हुई हवाओं की ताजगी हम अवश्य लें ताकि हममें और अधिक स्वास्थ्य देयी शक्ति संचरण हो सके पर स्वांस प्रक्रिया का संयन्त्र तो हमारी स्वस्थ्य देह में ही परिपुष्टता पा सकेगा। अन्धी गुलामी मानसिक वैश्यावृत्ति है और नयी पीढ़ी को हम इस ओर नहीं बढ़नें देंगें। महान उपलब्धियां सहज और सीमित प्रयासों को भक्ति तत्परता के साथ निरन्तरता देनें से आती हैं। अपनें सीमित साधनो लेकिन अपार विश्वाश का बल लेकर हम इस दिशा में सक्रिय हैं। प्रकाशन के नाम पर हमारे देश में बहुत से प्रकाशन ऐसे हैं जो भोंडी नक़ल के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पाश्चात्य जीवन में भी काफी कुछ ऐसा है जो यदि अनुकरणीय नहीं तो ग्रहणीय तो अवश्य कहा जा सकता है पर निराशा की बात तो यह है कि जीवन्त स्पन्दनों को छोड़कर मृत औपचारिकताओं के पीछे दौड़ना हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बनती जा रही है। इसमें बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा पद्धति का रहा है। मानव विकास की भ्रामक धारणाएं फैलाना और प्रजातीय विशेषताओं की विरुदावली गाना साम्राज्य वादी व्यवस्था का एक संयोजित षड्यंत्र रहा है। भारत विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का प्रतीक होनें के नाते इस षड्यंत्र और उसके परिणाम स्वरूप देशीय संस्कृति के अधपतन का विशेष लक्ष्य बनता रहा है । स्वंतन्त्रता के पश्चात भी राष्ट्र पिता महात्मा गांधी का 'हे राम ' और ' वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर परायी जानें रे ' को भुलाकर हम भ्रामक मार्क्सवादी भूल भुलैयों में फंस गये। फलस्वरूप भारत का इतिहास हमारे राष्ट्रीय महापुरुषों के उपहास का कारण बन गया। हमारी सर्व सहिष्णु धार्मिक परम्पराएँ और हमारी मूल राष्ट्रधर्मिता ठिठौली भरी वाग्मिता के घेरे में फंस गयी। लगभग पांच दशकों तक ऐतिहासिकता के नाम पर जो कुछ पढ़ाया गया वह मात्र एक आरोपित और विकृत साम्यवादी दर्शन का आरोपित रूप था। अयोध्या नगरी और मथुरा नगरी की ईषा पूर्व अस्तित्व सम्भावनाओं और प्रस्तार सम्भावनाओं पर प्रश्न चिंन्ह लगाये गये। मानव श्रष्टि के सर्वोत्तम विकास सम्भावनाओं से परिपूर्ण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और निष्काम कर्म अमर विचारक वंशीधर श्री कृष्ण के अस्तित्व पर बचकानी टिप्पणियाँ लिखी गयीं। एक क्षण को भी इन छद्द्म इतिहासकारों नें यह नहीं सोचा कि वे मात्र तत्कालीन शासन से झूठी प्रशंसा और झूठी कागजी मुद्रा पाने के लिये राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं। ऐसे ही कपूतों नें परतन्त्रता के लम्बे कालप्रस्तार में माँ भारती का मुँह काला किया है । प्रभात की नयी बयार चल निकली है अन्धकार की अभेद्य चादर भेद कर रश्मि रथ पर सवार राष्ट्रीय चेतना का भास्कर गतिमान हो चुका है । माटी का सम्पादक मण्डल इस दिशा में अग्रगामी पहल करेगा और असत्य के अम्बारों को अग्नि समर्पित करके उसकी भष्म से नयी मान्यताओं का संवर्द्धन संपोषण करेगा। हम चाहते है कि माटी के पाठक यह मान कर चलें कि अपनें और अपनें परिवार के प्रति उनका उत्तरदायित्व तभी पूरा माना जायेगा जब वह राष्ट्रीय चेतना के लिये निरन्तर समर्पित रहेगा और यदि आवश्यकता पड़े तो महत्तर हितों के लिये लघुत्तर हितों का परित्याग करेगा। ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य के विचारकों ,कवियों और सृजनकारों नें भारतीय दर्शन को सदैव ही हींन भाव से देखा हो, कवि वर्ड्सवर्थ जब यह लिखता है " Trailing clouds of glory do we come from God That is our home or our birth is but a sleep and a forgetting ."
तो वह भारतीय जीवन दर्शन को ही अंग्रेजी स्वरों में ढाल रहा है या आधुनिक काल में जब T. S. Eliot यह लिखते है " have measured my life in coffee spoons" तो वे एक तरीके से भारतीय दर्शन में अन्तर्निहित जीवन की उच्चतर भाव भूमि की तलाश की बात ही करते हैं । अमेरिकन Emerson और Thorean भारतीय दर्शन से अनुप्राणित ही हैं इतना होने पर भी अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाला सामान्य भारत वासी भी विकलांग शिक्षा के कारण पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनाने की गुलामी लेकर बड़ा होता है। उसे नहीं बताया जाता कि हम पहिनाव -उढ़ाव , खान -पान ,स्वागत -समारोह ,या अन्य सांसारिक रीतिरिवाजों के न जाने कितनें विविधता भरे मार्गों से गुजर चुके हैं। हम कितनी बार कंठ लंगोट लगा चुके हैं ,कितनी बार सुथ्थन पहिन चुके हैं और कितनी बार सुरा -सुन्दरी का अप्रतिबन्धित जीवन दर्शन जी चुके हैं इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत नहीं जानता और सच पूंछो तो यह भारत का फेंका हुआ जीर्ण -शीर्ण आवरण तन्त्र या केँचुल है जो दुनिया आभूषण समझ कर पहन रही है। हाँ कुछ है ऐसा जो भारत का , भारतीय जीवन दर्शन का , भारतीय आचार संहिता का और भारतीय अस्मिता का प्राण तत्व है। और जिसे सँसार के कुछ अत्यन्त विशिष्ट आत्म सम्पन्न व्यक्ति ही समझ पाये हैं यह है भारत की निष्काम समर्पण भावना -त्वमैव वस्तु गोविन्दम तुभ्य मेव समर्पये "
( क्रमश :}
" हम कौन थे क्या हो गये सोचो विचारो तो सही "
' माटी ' भारतीय अस्मिता की अमर गौरव गाथा को हर हाट -बाट में प्रसारित करनें का रचनात्मक प्रयास है। हम चाहेंगें कि सँसार से आती हुई हवाओं की ताजगी हम अवश्य लें ताकि हममें और अधिक स्वास्थ्य देयी शक्ति संचरण हो सके पर स्वांस प्रक्रिया का संयन्त्र तो हमारी स्वस्थ्य देह में ही परिपुष्टता पा सकेगा। अन्धी गुलामी मानसिक वैश्यावृत्ति है और नयी पीढ़ी को हम इस ओर नहीं बढ़नें देंगें। महान उपलब्धियां सहज और सीमित प्रयासों को भक्ति तत्परता के साथ निरन्तरता देनें से आती हैं। अपनें सीमित साधनो लेकिन अपार विश्वाश का बल लेकर हम इस दिशा में सक्रिय हैं। प्रकाशन के नाम पर हमारे देश में बहुत से प्रकाशन ऐसे हैं जो भोंडी नक़ल के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पाश्चात्य जीवन में भी काफी कुछ ऐसा है जो यदि अनुकरणीय नहीं तो ग्रहणीय तो अवश्य कहा जा सकता है पर निराशा की बात तो यह है कि जीवन्त स्पन्दनों को छोड़कर मृत औपचारिकताओं के पीछे दौड़ना हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बनती जा रही है। इसमें बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा पद्धति का रहा है। मानव विकास की भ्रामक धारणाएं फैलाना और प्रजातीय विशेषताओं की विरुदावली गाना साम्राज्य वादी व्यवस्था का एक संयोजित षड्यंत्र रहा है। भारत विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का प्रतीक होनें के नाते इस षड्यंत्र और उसके परिणाम स्वरूप देशीय संस्कृति के अधपतन का विशेष लक्ष्य बनता रहा है । स्वंतन्त्रता के पश्चात भी राष्ट्र पिता महात्मा गांधी का 'हे राम ' और ' वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर परायी जानें रे ' को भुलाकर हम भ्रामक मार्क्सवादी भूल भुलैयों में फंस गये। फलस्वरूप भारत का इतिहास हमारे राष्ट्रीय महापुरुषों के उपहास का कारण बन गया। हमारी सर्व सहिष्णु धार्मिक परम्पराएँ और हमारी मूल राष्ट्रधर्मिता ठिठौली भरी वाग्मिता के घेरे में फंस गयी। लगभग पांच दशकों तक ऐतिहासिकता के नाम पर जो कुछ पढ़ाया गया वह मात्र एक आरोपित और विकृत साम्यवादी दर्शन का आरोपित रूप था। अयोध्या नगरी और मथुरा नगरी की ईषा पूर्व अस्तित्व सम्भावनाओं और प्रस्तार सम्भावनाओं पर प्रश्न चिंन्ह लगाये गये। मानव श्रष्टि के सर्वोत्तम विकास सम्भावनाओं से परिपूर्ण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और निष्काम कर्म अमर विचारक वंशीधर श्री कृष्ण के अस्तित्व पर बचकानी टिप्पणियाँ लिखी गयीं। एक क्षण को भी इन छद्द्म इतिहासकारों नें यह नहीं सोचा कि वे मात्र तत्कालीन शासन से झूठी प्रशंसा और झूठी कागजी मुद्रा पाने के लिये राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं। ऐसे ही कपूतों नें परतन्त्रता के लम्बे कालप्रस्तार में माँ भारती का मुँह काला किया है । प्रभात की नयी बयार चल निकली है अन्धकार की अभेद्य चादर भेद कर रश्मि रथ पर सवार राष्ट्रीय चेतना का भास्कर गतिमान हो चुका है । माटी का सम्पादक मण्डल इस दिशा में अग्रगामी पहल करेगा और असत्य के अम्बारों को अग्नि समर्पित करके उसकी भष्म से नयी मान्यताओं का संवर्द्धन संपोषण करेगा। हम चाहते है कि माटी के पाठक यह मान कर चलें कि अपनें और अपनें परिवार के प्रति उनका उत्तरदायित्व तभी पूरा माना जायेगा जब वह राष्ट्रीय चेतना के लिये निरन्तर समर्पित रहेगा और यदि आवश्यकता पड़े तो महत्तर हितों के लिये लघुत्तर हितों का परित्याग करेगा। ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य के विचारकों ,कवियों और सृजनकारों नें भारतीय दर्शन को सदैव ही हींन भाव से देखा हो, कवि वर्ड्सवर्थ जब यह लिखता है " Trailing clouds of glory do we come from God That is our home or our birth is but a sleep and a forgetting ."
तो वह भारतीय जीवन दर्शन को ही अंग्रेजी स्वरों में ढाल रहा है या आधुनिक काल में जब T. S. Eliot यह लिखते है " have measured my life in coffee spoons" तो वे एक तरीके से भारतीय दर्शन में अन्तर्निहित जीवन की उच्चतर भाव भूमि की तलाश की बात ही करते हैं । अमेरिकन Emerson और Thorean भारतीय दर्शन से अनुप्राणित ही हैं इतना होने पर भी अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाला सामान्य भारत वासी भी विकलांग शिक्षा के कारण पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनाने की गुलामी लेकर बड़ा होता है। उसे नहीं बताया जाता कि हम पहिनाव -उढ़ाव , खान -पान ,स्वागत -समारोह ,या अन्य सांसारिक रीतिरिवाजों के न जाने कितनें विविधता भरे मार्गों से गुजर चुके हैं। हम कितनी बार कंठ लंगोट लगा चुके हैं ,कितनी बार सुथ्थन पहिन चुके हैं और कितनी बार सुरा -सुन्दरी का अप्रतिबन्धित जीवन दर्शन जी चुके हैं इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत नहीं जानता और सच पूंछो तो यह भारत का फेंका हुआ जीर्ण -शीर्ण आवरण तन्त्र या केँचुल है जो दुनिया आभूषण समझ कर पहन रही है। हाँ कुछ है ऐसा जो भारत का , भारतीय जीवन दर्शन का , भारतीय आचार संहिता का और भारतीय अस्मिता का प्राण तत्व है। और जिसे सँसार के कुछ अत्यन्त विशिष्ट आत्म सम्पन्न व्यक्ति ही समझ पाये हैं यह है भारत की निष्काम समर्पण भावना -त्वमैव वस्तु गोविन्दम तुभ्य मेव समर्पये "
( क्रमश :}
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