Tuesday, 11 November 2014

Vaishvik Sandarbh me......

गतांक से आगे। .......

                    प्रकृति के स्वाभाविक दौर में मारीजुआना और Ecstasy की तलाश में दौड़ता है ताकि इन्द्रिय सुख के कुछ क्षण और जुटाये जांय। और फिर यौवन पार करते ही या उससे पहले ही मानसिक रोगों से भरी खचाखच दीर्घाओं के अतिरिक्त और कहीं रहने का मार्ग ही कहाँ  रह जाता है। इस घोर कलयुग में भी जिसे वैज्ञानिक विकासवाद मानव के चरम उत्थान की गाथा कह रहा है कहीं कुछ बिन्दु हैं जहाँ पहुँच कर मानव मनीषा अन्तरावलोकन कर सनातन सत्यों को खोजती है । ऐसे बिन्दु हैं उन मानव मनीषियों द्वारा खोजे गए संजीवनी जीवन मन्त्र जो इस कलयुग के बीच भी आत्मा की सतयुगी गरिमा और शुचिता को अक्षुण रख सके हैं। ऐसे ही महापुरुषों में उदाहरणार्थ - रामकृष्ण परमहँस , विवेकानन्द , स्वामी रामतीर्थ , महर्षि दयानन्द , महर्षि रमण , महर्षि कण्डवे , रवीन्द्र नाथ व महात्मा गान्धी आदि -आदि में हमें नव सृजन के सतयुगी बीज देखने को मिलते हैं । हमें विकास की नयी परिभाषाओं को खोजने के लिये संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सर्वोच्च पद पर बैठे पूर्व राष्ट्रपति की ओर देखने का आवश्यकता नहीं है मोनिका लेवेंस्की से कामातुर आचरण करने वाले राष्ट्रपति क्लिंटन जो एक वयष्क पुत्री के पिता हैं  भले ही अमेरिका में अनादर के पात्र न हों पर वह भारतीयों के लिये आदर्श नहीं हो सकते। हमें इस दिशा में भारत के अतीत में आदर्श खोजने होंगें और सहस्त्रों वर्ष पूर्व मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का ही अनुसरण करना होगा । आधुनिक भारत में भी यदि हम पाँच प्रतिशत अत्याधुनिक पश्चिमी दासता वाले वर्ग को छोड़ दें जो अभी जीवन मूल्यों के उस विघटन स्थल से थोड़ा ऊँचे हैं जहाँ नर नर न रहकर नर पशु बन जाता है । माटी  का इन्हीं जीवन मूल्यों की  तलाश की ओर एक छोटा पर विश्वाश भरा प्रयास है । संकल्प की शक्ति ही मन्त्र शक्ति होती है और नये जीवन मूल्यों का उदभव निर्मम भौतिकवाद की खाद से ही संभव हो पायेगा।
                                 आज के इस निराशा  ,संत्राष , और आत्म जड़ता से भरे तुमुल कोलाहल के बीच रहकर भी हम सबको ज्ञान सागर में गोता लगाकर सच्चे मोती खोजने होंगें। हठ धर्मिता या जेहादी जुनून किसी भी काल में भारतीय संस्कृति का अपरिहार्य अँग नहीं रहा है। हम हर युग और हर काल में विशुद्ध बुद्धि की कसौटी पर कसनें के बाद ही मूल्यों और समाज रचना की संघिहताओं को स्वीकार करते रहें हैं। ऐसा ही हमें आज भी करना है । दरअसल जनूनीपन कुछ धर्मों का ही अँग नहीं है यह आज विज्ञान कहे जाने वाले आधुनिक धर्म प्रवंचना का भी अँग बन गया है। विज्ञान का कोई भी सकारात्मक अनुयायी इस बात की हठ नहीं करेगा कि जो कुछ उसनें जाना है वहीे अन्तिम सत्य है। ईजाक न्यूटन के काल में सर्व मान्य वैज्ञानिक मान्यतायें आइंस्टाइन के युग तक पहुँच कर अपनी सार्थकता से वंचित हो गयीं और अब तो प्रकृति की रहस्य मयी प्रक्रिया को सुलझाने का दावा करनें वाले नोबल लारियेटस ( Laurets) भी नेति -नेति की पुकार लगाने लगे हैं। क्लोनिंग की समस्याएँ और अल्पकालीन जिजीविषा उभर कर सामनें आ चुकी है। जैविक गुण सूत्रों का सूक्ष्म विश्लेषण नयी मीमांसाओं की माँग कर रहा है।बौनी मानव बुद्धि ब्रम्हाण्ड के अपार विस्तार में उलझ कर दिशाहीन सी हो गयी है। फ्रोफेसर हाकिन ब्लैक होल की थ्योरी लेकर रहस्य व्याख्या का प्रयत्न कर रहे हैं। जबकि आकाश गंगाओं का उत्सर्जन और विकिरण की भी नियम संहिताओं को चुनौती दे रहा है। सत्य अभी बहुत दूर है और सत्य को क्या कोई मरणशील शरीर में पलती चक्षु बिन्दुओं से देख सकने की क्षमता रखता है। ज्ञान -विज्ञान का अहँकार कुछ राष्ट्रों को इतना निरंकुश बना  चुका है कि वे संसार को एक ठोकर मारने वाला खिलौना समझ बैठे हैं। उनका दंभ है कि वे मानव श्रष्टि के नियामक है और वे मानव संतति को अपनी इच्छा के अनुसार आरोपित जीवन पद्धतियों में बाँध देंगें। भारत यह अहँकार न जाने कितनी बार देख चुका है और अभिमान से भरी न जाने कितनी संस्कृतियों को रेत के विशाल विस्तारों में बदलता देख चुका है। केवल दानव संस्कृति ही नहीँ देव संस्कृति भी अहँकार के इस विस्फोट से कितनी बार निर्मूल हो चुकी है। तभी तो महा कवि प्रसाद ने कामायनी में मनु से यह विचार व्यक्त करवाये हैं -
                          " देव न वे थे , देव न हम हैं
                            सब परिवर्तन के पुतले
                            हाँ कि गर्व रथ में तुरंग सा
                            जो चाहे जितना जुत ले  "
तो मित्रो हमें दम्भ नहीं सकारात्मक आत्म गौरव से प्राण शक्ति लेनी होगी। पाश्चात्य जीवन पद्धत्ति को सर्वोत्तम मानकर अपनी जीवन पद्धत्ति को हीन भाव से देखना दासत्व की पहली पहचान है। भारत भारती की जिस पंक्ति नें स्वतन्त्रता संग्राम के निर्णायक क्षणों में राष्ट्र में प्राण फूंके थे वह पंक्ति आज फिर और अधिक सार्थक हो उठी है।
(आगे अगले अँक में.……… )
   


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