Sunday, 9 November 2014

Vaishvik Sandharbh me........

                          वैश्विक सन्दर्भ में भारतीय अस्मिता की सहभागी जीवन -अभिव्यक्ति

                                                                    मानव विकास का वैज्ञानिक विश्लेषण आधुनातन शिक्षा का एक अनिवार्य अंग बन गया है । ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि नृतत्व शास्त्र के प्रामाणिक ज्ञान के बिना जीवन मूल्यों के विकास की विश्वशनीय व्याख्या अधूरी रह जाती है। वैज्ञानिक विकास वाद दस लाख वर्ष से  अधिक किसी कुहासे भरे अतीत से बानर मानव से प्रारम्भिक आदि मानव के विकास की कहानी दुहराता रहा है। इस विकास के कुछ विश्वसनीय प्रस्तरीकृत अस्थि पिंजर और पाषाण उपादान मिलने से ऐसा लगता है विकास की यह अनवरत धारा सत्य से बहुत हटकर नहीं है । पर भारतीय मनीषा इस दिशा में एक सनातन विकास ब्यवस्था की बात करती रही है जो प्रगति के अन्तिम छोर तक जाकर विनिष्ट हो जाती है और फिर विनाश में छिपे श्रजन के  बीज  से पुन : प्रस्फुटित होकर प्रगति के और अधिक उच्चतर सोपानों की ओर चल पड़ती है। सतयुग ,त्रेता ,द्वापर और कलियुग की विभाजन प्रक्रिया के पीछे एक ऐसी ही विश्लेषण पद्धति सक्रिय रही होगी। ऐसे विभाजन को रूढ़ अर्थों में लेना अवैज्ञानिक होगा क्योंकि कलयुग के  साथ अपार तकनीकी संभावनाओं का जुड़ाव रहता है जबकि सतयुग मानव की बाल सुलभ सरलता और सहज ज्ञान से जुड़ता है। जैसे जैसे यह बाल सुलभ सरलता यानि ईश्वरीय सम्पर्क की आसन्नता कम होती जाती है वैसे  वैसे सांसारिक ज्ञान का विकास ,चातुर्य जो कालान्तर में छल -छद्म में बदलता है बढ़ता जाता है। यह विकास होकर भी विकास नहीं रहता क्योंकि आत्म तत्व का विस्मरण हमें शुचिता और सरलता से दूर करके मूल पशुत्व की ओर ढकेलता है । मानव इन्द्रियों के एक सामूहिक संयन्त्र के अतिरिक़्त और कुछ नहीं रहता। द्वापर में तुला के दोनों पलड़े लगभग बराबर से रहते हैं और रह रह कर बहिरावलोकन और अन्तरावलोकन में अदलाव -बदलाव होता रहता है। कलयुग आते ही यन्त्र शक्ति परमात्म शक्ति पर भारी पड़ती दिखयी पड़ती है। इन्द्रिय सुख के अनूठे और अकल्पनीय साधनों की भरमार हो उठती है। भक्षण वृत्ति संपोषण वृत्ति पर हावी हो जाती है। भाषा के अर्थवान शब्द विपरीतार्थ बन जाते हैं। चातुर्य का अर्थ हेराफेरी ,बुद्धिमान का अर्थ धूर्त और सफलता का अर्थ परपीड़न कुशलता में बदल जाता है । गीता के अर्जुन 'सर्व भावेन परन्तय 'न रहकर सर्व विनाशक आत्म रत भोगी बन जाते हैं। विकास की यह अद्धभुत गाथा सतत अवाधित ,अपरिहार्य और अथक रूप से गतिमान रहती है। कुछ ऐसी ही व्यवस्था के कलुष भरे मार्ग से आधुनिक मानव गुजर रहा है । इन्द्रिय सुख की मिथ्या मरीचका के पीछे वह इतना भ्रमित हो उठा है कि पारस्परिक सौमनस्य ,सहकारिता और सहभागिता के उन ऊर्जा पूर्ण विचारों से वह बहुत दूर जा चुका है जिन विचारों नें उसे चार पैरों   पर चलने वाले नर मानव से प्रज्ञा मण्डित मानव बननें की ओर विकसित किया था ।
(क्रमस :)

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