भारत की सांस्कृतिक परम्परा और धार्मिक प्राणपरता यह मान कर चलती है कि मनुष्य का जीवन प्रभु की एक दुर्लभ देन है। गोस्वामी जी की इस पँक्ति से तो आप हम सब परिचित ही हैं - "बड़े भाग्य मानुष तन पावा " । प्राकृतिक विज्ञान भी यह मानकर चलता है कि मानव अरबों वर्षों की विकास प्रक्रिया का चरम प्रतिफल है। अब यदि मनुष्य होकर भी हम मात्र अपने लिये जीते है तो इस जीनें में और पशु जीवन में अन्तर ही क्या ?मुझे चार्ल्स डिकन्स की बहुचर्चित कहानी क्रिसमस कैरल की याद आती है जिसमें एब्ने क्रूज को जब उसके मित्र पावल गोन का भूत मिलता है और उससे अपनी आत्मा की दारुण व्यथा की बात करता है तो एब्ने क्रूज उससे कहता है कि तुम तो एक अत्यन्त सफल व्यापारी थे इस पर ईथर में गूँजता उसके मृत मित्र का उत्तर आता है -कैसा व्यापारी ? मैंने मानव जाति के लिये क्या किया? मैंने अपने अतिरिक्त दूसरों के लिये क्या कभी त्याग या बलिदान का भाव पाला । कैसा वैभव ? अपनें इन्द्रिय सुख के अतिरिक्त क्या उस वैभव से मैनें वृहत्तर मानव कल्याण की संयोजना की। कुछ इसी प्रकार के प्रश्न और उत्तर मैं" माटी " पत्रिका के माध्यम से आप सबके समक्ष रखना चाहता हूँ ।
बन्धुओ मानव जीवन निश्चय और अनिश्चय का एक ऐसा समुच्चय है जो विज्ञान की सारी चमत्कारी विशेषताओं के बावजूद अनुत्तरित है। निश्चय इस लिए कि जो जन्मां है वह मरेगा अवश्य और अनिश्चय इस लिये कि उस महा प्रयाण की बेला गोधूलिकी धुंधलके की भाँति झिपी -अनझिपी रहती है । यही कारण है कि न जाने कितनी बार महामानव भी चाहते हुये कल की तलाश में बहुत कुछ नहीं कर पाते। हमें याद रखना है कि हमारे पास समय कम है और हमारे संकल्पों की यात्रा अत्यन्त कठिन और एक प्रकार अन्तहीन है। हमारे रास्ते में कितने ही मनमोहक पड़ाव आते है जहाँ रूकनें का मन होता है। हम विचलित होते हैं अपनें लक्ष्य पद से और सुहावन मरीचकाओं में भटकते हैं हमें राबर्ट फ्रॉस्ट की उन अमर पंक्तिओं को कभी नहीं भूलना चाहिये जिन्हें पण्डित जवाहर लाल नेहरू नें अपनी राइटिंग टेबिल ग्लास के नीचे लगा रखा था ।
" The woods are lovely dark and deep
But I have promises to keep
and miles to go before I sleep
and miles to go before I sleep."
" अभी कहाँ आराम बदा
यह मूक निमन्त्रण छलना है
अरे अभी तो मीलों मुझको
मीलों मुझको चलना है । "
(आगे अगले अँक में )
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