Saturday, 11 January 2014

Angrejee Ke Ek..........

अंग्रेजी  की एक बहुत मशहूर कविता है - " Death the Leveller"  इस कविता को हाईस्कूल या इंटरमीडिएट के उन सभी विद्यार्थियों ने पढ़ा होगा जो अंग्रेजी को एक विषय के रूप में लेते हैं । कविता का सारांश यही है कि सिंहासन और ताज , हँसिया और कुदाली सभी को मिट्टी में मिल जाना है और एक जैसा बन जाना है । मृत्यु न तो सम्राटों को छोड़ती है न अरबपतियों को। स्वर्ण महल में रहने वाला और झुग्गी -झोपडी में रहने वाला दोनों को एक दिन  मिट्टी बन जाना है इस सत्य को सभी जानते हैं पर न जाने क्यों संसार के अधिकाँश नर -नारी मिथ्या बड्डप्प्न का आडम्बर ढोने  चेष्टा करते रहते हैं। जब विवेकानन्द नें अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में 1898 में सभागार में उपस्थित लोगों को " Sister and Brothers of America " कह कर सम्बोधित किया था तो सारा हाल करतल ध्वनि से दो मिनट तक गूँजता रहा था। ऐसा इसलिये हुआ था कि विवेकानन्द नें भाषण के बहुप्रचलित सम्बोधन " Ladies and Gentlemen " को बदलकर  " Sister and Brothers " का जामा पहनाया था । दरअसल साम्राज्यवादी ब्रिटेन में इतने पद और पदवियाँ वहाँ के King या Queen के द्वारा प्रदान किये जाते थे कि सामान्य आदमी जीवन भर अपने को उपेक्षित महसूस करता था| ड्यूक और अर्ल या प्रिन्स के  यह पद और उपाधियाँ खानदानी बन गयी थीं । और जन्म से ही  औरों से अलग एक निराधार उच्चता का भाव सामन्तीय वर्ग में फ़ैल चुका था आप जानते ही हैं कि अमरीका में काफी समय तक ब्रिटिश साम्राज्य की एक कालोनी ही थी और अन्तत :जब उसने संघर्ष करके स्वतन्त्र और सार्वभौम राज्य का अधिकार पाया तो वहाँ खानदानी टाइटल्स समाप्त कर दिये गये और उस व्यवस्था को अलोकतान्त्रिक  गया पर अँग्रेजी सम्बोधन में " Ladies and Gentlemen " फ्रेज चलता रहा। विवेकानन्द जी नें अपनें विवेक से अमेरिका में जन्मी सच्ची जनतान्त्रिक भावना को सराहा और इसी कारण उन्हें अनूठी प्रशंसा प्राप्त हुयी ।  अंग्रेजी का शब्द Ladies उस समय की   कुछ ख़ास ऊँचे घराने की Ladies के  लिए लिए प्रयोग होता था और Gentlemen की भी एक उच्च  वर्गीय अवधारणा स्थापित हो चुकी थी ।  यह दोनों शब्द कुलीन वर्ग से सम्बन्धित थे । अंग्रेजी के एक  प्रसिद्ध कवि  ने इसी सन्दर्भ में एक सुन्दर दोहा बनाया था। दोहा इस प्रकार   है " When Adam delved and Eve span Who was then a Gentlemen ." अकेले ब्रिटेन में ही  नहीं लगभग संसार के हर देश में ही पुराकाल और मध्य काल यानि अठ्ठारहवीं शताब्दी तक सच्चे अर्थों में मानव समानता को स्वीकार नहीं किया गया था। भारत में तॊ प्राचीन काल में   शासकों के साथ न जाने कितने अजीबो -गरीब  विशेषण लगाये जाते थे। परम् भट्टारट , चक्रवर्ती ,राजाधिराज , देवनाम प्रिय ,जैसे अनेकों शब्द गढ़कर ऊँच -नीच की कभी न भरी जाने वाली विभाजक खाइयाँ तैयार कर दी   गयी थीं     । मुगल काल में भी जहाँगीर , शाहजहाँ , आलमगिर जैसी उपाधियाँ अतिशयोक्ति की कहानियाँ बन कर  गयी हैं । नवाबों और देशीय राजघरानों के अपने अलग ठाठ -बाट थे । अँग्रेज हुकूमत  नें हिन्दुस्तान में किसी को राजासाहब बनाया तो किसी को राव साहब, किसी को Knight की उपाधि दे डाली तो किसी को बहादुर की।  भारत की जनता में सैकड़ों भेद -विभेद कर दिये गये । आजादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से 540  से अधिक देशी रियासतों का विलयन स्वतन्त्र भारत में सम्भव हो सका । त्रावनकोड ,जूनागढ़ और हैदराबाद में शक्ति प्रदर्शन  करना पड़ा ,जम्मू और कश्मीर के राजा हरीसिंह को काफी देर बाद भारत में मिलने की समझ आयी पर तब   तक पाकिस्तान समर्थित कवीलाई हमले नें कश्मीर की राजनैतिक स्थिति को डावाँडोल कर दिया था । भारतीय सेना नें अपने अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के बल पर कश्मीर घाटी को मुक्त कर लिया पर गिलगिट और वाल्टिश्तान जिसे अब आजाद कश्मीर कहा जाता है अभी तक पाकिस्तानी कब्जे में हैं । दुनिया की पंचायत में मामला डाल देने से नेहरू और पटेल को लाचार होकर जम्मू कश्मीर में विभाजन की  रेखा को स्वीकार         करना  पड़ा यह तो खुशी  की        बात है कि महाराजा हरीसिंह के पुत्र कर्ण सिंह एक पतिष्ठित विद्वान हैं और महाराजा       के       पुत्र  होने का मिथ्या अभिमान नहीं पाल रहे हैं पर अभी भी भारत न जाने कितने ऐसे  नवाबी और राजसी घराने हैं जो अपना मिथ्या अभिमान ढोते चले जा रहे हैं। जनतान्त्रिक चुनाव में भी इन राजसी घरानों के लोग अपनी उच्च कुलीनता का ढोंग रचकर परम्परा के आधार पर साधारण जनता से वोट माँगते रहते हैं। पर अब स्वतन्त्र भारत में एक नये प्रकार का राजतन्त्र और नवाबी कल्चर शुरू हो गया है। लता मंगेश्कर , सचिन तेंदुल्कर या वैज्ञानिक C.N.R. Rao को तो भारत रत्न अपनी प्रतिभा के बल पर मिला है और जनतांत्रिक भारत को  अभिमान है पर हर राज्य में बहुत से न कुछ और नकारा नर -नारी विशेष प्रकार की गाड़ियाँ पाकर राज्य मन्त्री या उप राज्य मन्त्री का दर्जा पाये हुये हैं। उनका गुण केवल उनकी राजनीतिक चाटुकारिता ही होती है। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने विल्कुल उचित कहा है कि नाम के  पहले किसी भी उपाधि के जोड़ने से कोई व्यक्ति महान नहीं बनता महानता व्यक्ति की  निजी विशेषता में होती है । जिसे वह कुदरत की दी   हुयी प्रतिभा को अपने प्रयासों से चमका कर पाता  है । स्वतन्त्रता के बाद भारतवर्ष में भारत रत्न , पद्मविभूषण ,पद्मभूषण और पद्मश्री जो मानद        उपाधियाँ प्रदान की जाती हैं उंनमे  भी आने वाले बहुत सारे नाम उपाधि के योग्य नहीं होते। एक अनुमान के अनुसार लगभग 50  % उपाधियाँ मात्र राजनैतिक दबावों के कारण प्रदान की जाती हैं । आज भी भारत में कितने वैज्ञानिक , चिन्तक , विचारक और लेखक , समाज सेवी और सन्त मौन भाव से जन कल्याणकारी योजनाओं को रूपायित कर रहे हैं । उन्हें किसी उपाधि या सम्मान की आकांक्षा नहीं है क्योंकि वे  निष्काम कर्म की अमरत्व वाली व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। अखबारों में चर्चित होने की इच्छा भी एक प्रकार की मानसिक वीमारी है । सन्त -महात्माओं को यदि वे वास्तव में सन्त , महात्मा हैं तो इस वीमारी से मुक्त रहना चाहिये। आवश्यक नहीं कि हर एक सदाचारी की मृत्यु पर ताजमहल बनवाया जाय या हर व्यक्ति की एक आदम कद प्रतिमा खड़ी की जाय । अफगानिस्तान से लेकर मगध तक शासन करने वाले कनिष्क की प्रतिमा का सिर कहीं उखड़ कर कहीं चला गया है। एक हाथ भी गायब है ,दो पैरों पर खड़ा धड़ ही शेष रह गया है पर बुद्ध धर्म के गहरे विवेचक होने के नाते सम्राट कनिष्क का नाम आज भी आदर के साथ लिया जाता है ।  जो अपने को सन्त कहते हैं उन्हें महाकवि तुलसी   दास द्वारा वर्णित सन्तों की गुणावली का अध्ययन करना चाहिए ।  अरबों की संपत्ति से कोई सम्मान का अधिकारी नहीं बन जाता है हाँ जनसाधारण को भयातुर  अवश्य कर सकता है। आइये  हम आप स्वतन्त्र भारत के आदर्श नागरिक बनने का प्रयास करें । इस दिशा  में यदि हमें  आंशिक सफलता भी मिलती है तो वह हमारे जीवन की एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी । 

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