Wednesday, 14 August 2013

भाषा विदों नें .......

                                           भाषा विदों नें शब्दों के  अर्थ के सम्बन्ध में अनेकानेक व्याख्यायें  दी हैं । महान दार्शनिक नोवेल पुरुष्कार प्राप्त बर्टेन्ड रसल से जब यह पूछा गया कि किसी शब्द का  कोई विशेष अर्थ कैसे बनता है तो उन्होंने भाषायी उद्दगम के प्रभातकाल से लेकर  समूहगत विस्तार पर एक लम्बा चौड़ा व्याख्यान दे डाला । संक्षेप में वह यह कहना चाहते थे कि किन्हीं विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाली  कोई विशिष्ट जन-जाति किसी शब्द को जब किसी पदार्थ या मनोभावना से बार -बार गहरे रूप से जोड़ देती होगी तो उसका वही अर्थ हो जाता होगा।  भिन्न -भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में भिन्न -भिन्न जातीय समूहों नें उच्चारण  द्रष्टि से समान शब्दों के भी भिन्न -भिन्न अर्थ संरचित कर दिये थे । हम उनकी विशद दार्शनिक व्याख्या में गहरायी से प्रवेश करना नहीं चाहते क्योकि वह भाषा विज्ञान का अत्यन्त जटिल अध्याय है। पर शब्दों का अपना महत्त्व तो है ही और कई बार समानार्थक होकर भी भिन्न -भिन्न सन्दर्भों में शब्दों के भिन्न -भिन्न अर्थ हो जाते हैं ।  अब देखिये " सम्पूर्ण " और " समाप्त " को । जब हम कहते है यज्ञ  समाप्त हो गया तो उसका अर्थ वही ध्वनित नहीं होता जो यह कहने में होता है कि यज्ञ सम्पूर्ण हो गया । अब यदि किसी को सम्पूर्ण सिंह कहा जाय तो उसके लिये यह एक बहुत प्रेरणा दायक नाम होगा पर उसको समाप्त सिंह कहने पर शायद वह अपना मानसिक बैलेन्स खोकर कहने वाले के प्रति आक्रामक हो जाय । भाषा को संस्कारित करने वाले महापुरुष शब्दों की इस सन्दर्भीय भिन्नता से भली -भांति परिचित होते थे। अर्थ भिन्नता की उनकी व्याख्यायें कई बार चमत्कारिक प्रभाव पैदा कर देती थीं । अंग्रेजी भाषा तो शब्दों की भिन्न सन्दर्भीय अर्थों से ही अलंकृत हो पाती है और अब भारत की अपनी भाषाओं में भी इस प्रकार के प्रभावशाली प्रयोग दिखायी पड़ने लगे हैं। हिन्दी भाषा में इस प्रकार की सम्भावनाओं की अपार क्षमता है  इसका प्रमुख कारण यह है कि हिन्दी लगभग समूचे भारत में आज वाजार की सफलता का मूल मन्त्र बिखेर रही है। दूसरा कारण है हिन्दी के गीतों और हिन्दी के चल-चित्रों की देशव्यापी लोकप्रियता। बम्बई की सिनेमायी दुनिया में न जाने कितने ऐसे शब्द गढ़ दिये गये हैं जो पुराने भाषा कोशों में नहीं मिलते। प्रबुद्ध पाठक यह जानते ही हैं नदी के जल की भाँति भाषा को सतत प्रवहमान रहना चाहिये । जल का वहना यदि रुक जाता है तो सडांध उत्पन्न हो जाती है इसी प्रकार यदि भाषा का प्रचलन कम होने लग जाय तो उसमें स्थिरता आ जाती है।  रमता जोगी बहता पानी । संस्कृत अपनी अनोखी विशिष्टता और निराली व्याकरण क्षमता के बाद भी आज आम जन की भाषा न होने के कारण संकुचित होती जा रही है ।
                                हिन्दी अपने प्रवाह में पंजाब ,गुजरात ,महाराष्ट्र ,और तेलंगाना क्षेत्रों से नये -नये शब्दों का समावेश और विस्तार पाती  रही है । 'माटी ' के समर्थ लेखकों और अंग्रेजी भाषा से हिन्दी में अनुवाद करने वाले समर्थ पाठकों से यह अपेक्षा  है कि वो हिन्दी को अखिल भारतीय विस्तार देने की प्रक्रिया में दूसरी भाषाओं के खप जाने वाले शब्दों का प्रभावी प्रयोग करें और इस प्रकार हिन्दी को सच्चे अर्थों में भारत की राष्ट्रभाषा बनने में सार्थक योगदान दें । महाकवि कबीर की भाषा परनिष्ठित न होकर  भी इतनी वेधक और चुटीली है कि वह सीधे अन्तर को हिला देती है कारण यही है कि उन्होंने भाषा के अपने समय के प्रवहमान स्वरूप को तर्जीय दी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। नये प्रयोगों की प्रचुरता नें कहीं -कहीं हास्यास्पद भूलें भी हो सकतीं हैं पर जो सच्चे साधक हैं वे प्रारम्भिक फिसलन के बावजूद शिखर छूने का प्रयास करते ही रहते हैं। मुझे याद आता है कि अखबार में रोज विज्ञापित होने वाली न जाने कितनी सँस्थाओं के छात्र हिन्दी और अंग्रेजी भाषा का माध्यमिक स्तर का ज्ञान भी नहीं रखते। अभी उस दिन गलगोटिया  युनिवर्सिटी में बी० टेक ०  रही एक चतुर्थ सेमेस्टर की छात्रा से युनिवर्सिटी के विषय में कुछ जानकारी जाननी चाही थी। मैंने उससे पूंछा कि आप जैसी आकर्षक और प्रबुद्ध छात्राओं को मैन हैंडलिंग की समस्या से तो नहीं जूझना पड़ता तो वह चुप रह गयी क्योंकि वह शायद मैन हैंडलिंग का ठीक अर्थ ही नहीं जानती हो । दरअसल आज की तकनीकी बहुलता की दुनिया में हम अपनी स्वाभाविक भाषायी सामर्थ्य खोते चले जा रहे हैं। प्रासंगिक अर्थों को समझे बिना हम शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं। शायद यही कारण है कि हमें  राजनेताओं के मुँह से 'टंच माल 'और 'वेहूदा औरत ' जैसे शब्द युग्म सुनने को मिल जाते हैं। पकिस्तान के राष्ट्रपति यहियाखान नें महान नेत्री इन्दिरा को this Woman कहकर तिरस्कृत किया था और सारी दुनिया जानती है कि पकिस्तान को इसका कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा\ 'माटी ' का सम्पादक अपने लेखकों और पाठकों से शब्द -साधना की माँग करता है । हमें भूलना नहीं चाहिये कि भारत की डिज़िटल दुनिया में भी शब्द वेधी वाण ड्रोंस का रूप ले चुके हैं । और आने वाले कल में मंगल गृह तक इनका प्रसार सुनिश्चित हो जायेगा । 

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