Tuesday, 2 July 2013

स्वप्नाविष्ट रात्रि निंद्रा गोद में कैवल्य धाम से अवचेतन पर अंकित किया गया स्वास्ति सन्देश


           योरोपीय सभ्यता प्राचीन यूनानी सभ्यता को अपने आदि श्रोत के रूप में स्वीकार करती है। निसन्देह ईषा  पूर्व यूनान में विश्व  की कुछ महानतम प्रतिभायें देखने को मिलती हैं। सुकरात, प्लेटो (अफलातून )और अरिस्टोटल (अरस्तू ) का नाम तो शिक्षित समुदाय में सर्वविदित ही है पर बुद्धि परक मीमांसा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां प्राचीन यूनानी प्रतिभा नें अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो इसी प्राचीन यूनान में Sparta के नगर राज्य में मानव शरीर की प्राक्रतिक विषमताओं से लड़ने की आन्तरिक क्षमता को मापने का एक अद्दभुत प्रयोग किया था। ऐसा माना जाता है कि Sparta के नगर राज्य में जन्म लेने वाला प्रत्येक शिशु नगर के छोर पर स्थित एक विशाल समतल प्रस्तर पर निर्वस्त्र छोड़ दिया जाता था। दिन रात के चौबीस घन्टे उसे अकेले चीखते ,चिल्लाते धूप ,छांह ,प्रकाश अन्धकार , और क्रमि कीटों से उलझते -सुलझते बिताने पड़ते थे। आंधी आ जाये  या मूसलाधार वर्षा उसे आठ पहर ममता रहित उस चट्टान पर निर्वस्त्र काटने ही होते थे। इस दौरान यदि प्रकृति उसका जीवन समाप्त कर दे तो Sparta का प्रशासन उसे मात्र  भूमि की माटी में अर्पित कर देता था और यदि वह बच जाये तो उसका हर प्रकार से लालन -पालन कर उसे Sparta नगर राज्य का समर्थ चट्टानी पेशियों वाला जागरूक नागरिक बनाया जाता था। प्राचीन इतिहास के मनीषी पाठक जिन्होंने विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का गहनतम अध्ययन किया है जांनते ही हैं कि Sparta नगर राज्य और एथेन्स के नगर राज्य में बहुत लम्बे समय तक संघर्ष की स्थिति रही थी और अन्तत : अपनी सारी समृद्धि ,वैभव और ज्ञान विपुलता के बावजूद स्पार्टा का पलड़ा भारी रहा था।हमें स्वीकार करना ही होगा कि मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अंकुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता। व्यक्ति का आन्तरिक सामर्थ्य जिसमें शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का कान्चन मणि संयोग शामिल है -उसे जीवन संग्राम में अपराजेय योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करती है। काया का बाहय आकार अन्तर की विशालता का प्रतीक नहीं होता। शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता किन्ही उन आन्तरिक शक्तियों से प्रतिचालित होती है जिन्हें मानव के वरण -आवरण की प्रक्रिया के द्वारा लाखों -लाख वर्षों में पाया है। बौद्धिक कुशाग्रता और जिसे हम प्राणशक्तियां प्राण वत्ता के रूप में जानते हैं वो भी चयन -अचयन की लाखों वर्षों की दीर्घ प्रक्रिया से गुजर कर आयी है।हर  श्रेष्ठ मानव सभ्यता -प्राचीन या अर्वाचीन इसी विरासत में पायी असाधारण आन्तरिक क्षमता को प्रस्फुटन -पल्लवन का काम करती है। पोषण ,सिंचन और संरक्षण पाकर भी कुछ लता ,पादप -तरु थोड़ा बहुत बढ़कर सीमित विकास को समेटे विलुप्त होने की सनातन प्रक्रिया का अंश बन जाते हैं। और कुछ हैं जिन्हें ओक ,बरगद या देवदार बनना होता है। शताब्दियाँ उन को छू कर निकल जाती हैं और वे सिर -ताने खड़े रहते हैं।  पर आकार की विशालता ही श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है। रग पेशियों की द्रढ़ता प्रभावित अवश्य करती है पर सनातन नहीं होती। कुछ पैरों से निरन्तर दलित ,मलिन होने वाली वनस्पति प्रजातियाँ भी हैं जो काल की कठोर छाती पर अपनी कील ठोंककर अजेय खड़ी हैं। विनम्र घास और सदाबहारी निरपात और प्रान्तीय लतायें इसी श्रेणी में आती हैं। सनातन धर्म वाले सनातन भारत का विश्व को यही सन्देश है कि केवल आन्तरिक ऊर्जा ,दैवी स्फुरण ,प्रज्ञा पारमिता या समाधिस्त संचालित जीवन ही काल को जीतकर अकाल पुरुष तक ले जाता है। व्यक्ति का चाहना या न चाहना निर्मम प्रकृति के विस्मय कारी और अबाधित गतिमयता में कोई परिवर्तन ला पाता है इस पर मुझे सन्देह है । पर यदि चाहना का कोई सकारात्मक प्रभाव होता है तो मैं चाहूँगा कि 'माटी 'अपनी अमरता अपने कलेवर में समेट लेने वाली मन्त्र -पूत सामग्री से संचित करे निर्वात दीप्त शिखा की भाँति प्रकाश पुन्जों की श्रष्टि ही उसके साधन बनें और साध्य भी। आकाश गंगा की तारावलियाँ और ज्योतित पथ उसे अमरत्व का उर्ध्वगामी पथ दिखायें -इसी कामना के साथ । 

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