Sunday, 30 June 2013

सम्पादकीय अभिव्यक्ति में .......

                                                             सम्पादकीय अभिव्यक्ति में .......

                 सम्पादकीय अभिव्यक्ति में स्रजनात्मक अभिव्यक्ति की सी सहजता ला पाना लगभग असम्भव सा हो जाता है यही कारण है कि अधिकतर सम्पादकीय पत्रिकाओं के कलेवर में सिमटे हुये लेखों ,आलेखों और अन्य विविध सरंचना प्रकारों पर छोटी -मोटी टिप्पणियाँ देकर समाप्त कर दिये जाते हैं । "माटी ' इस दिशा में सम्पादन और सृजन दोनों का सन्तुलन बनाये रखने का प्रयास करती रही है। इस प्रयास की अपनी सीमायें हैं । पर यदि असीम का निर्वाध प्रसार हमें मुक्त करता है तो सीमान्तों से घिरा सजा संवरा सौन्दर्य भी हमें मुग्ध कर लेने की क्षमता रखता है । आज के बदलते युगीन परिद्रश्य में एशिया महाद्वीप के कुछ विशाल भूखण्ड संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और योरोपीय महासंघ को अपना अभिमान छोड़ देने के लिये विवश कर रहे हैं। उन्नीसवीं शताब्दी यदि योरोप की थी तो बीसवीं शताब्दी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की । अब ऐसा लगने लगा है कि इक्कीसवीं शताब्दी में उच्चतम स्थान की ओर एशिया महाद्वीप के कुछ भू भाग दावेदार बन जायें । सुदूर अतीत में भारत नें जो गौरव पाया था और जिस गौरव से क्षीण होकर वह काफी लम्बे काल तक उपेक्षा और अपमान का शिकार होत्ता रहा वह गौरव या कम से कम उस अद्भुत गौरव की स्वर्णिम चमक अब उस तक पहुँचने लगी है । आर्थिक प्रगति का बीसवीं शताब्दी के नवें दशक से प्रारम्भ होने वाला अध्याय निरन्तर विस्तार पाता जा रहा है और संसार के विकसित कहे जाने वाले देश चकित होकर भारत की विकास सम्भावनाओं के प्रति हल्की -फुल्की प्रशंसा की बातें करनें लगे हैं । हमें इस प्रशंसा से प्रमाद ग्रस्त होकर प्रगति के रास्ते से भटक जाना आत्मघात जैसा ही होगा । कैसे और कब ये हल्की -फुल्की प्रशंसा ठोस और वास्तविक प्रशंसा में बदले इस दिशा में ही भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रत्येक केन्द्रीय और राज्य स्तरीय सरकारों को प्रयत्न शील रहना होगा। जनतंत्र में कुछ छोटे -मोटे आर्थिक उपादानों की समीचीनता पर भिन्न -भिन्न राजनीतिक विचारधारायें प्रश्न चिन्ह लगाती चलती हैं। पर हर राजनीतिक पार्टी का यही अन्तिम लक्ष्य होता है और होना ही चाहिए कि देश किस प्रकार आर्थिक प्रगति के शिखर पर पहुँच जाय। एक समय था जब मानव हिन्दू इकनामी के नाम पर भारत की प्रगति को दो या तीन प्रतिशत आर्थिक विकास की दर से अधिक कभी नहीं आंका जाता था पर नौ प्रतिशत का स्तर छू लेने के बाद विदेशी अर्थशास्त्रियों की निगाहें प्रशंसा भरे आश्चर्य से हमारे ओर देखने लगीं थीं। हिन्दू इकनामी के लिये पाया गया यह नया गौरव समूची हिन्दुस्तानी जनता के लिये एक ईश्वरीय वरदान है । हमें यह कभी भूलना नहीं चाहिये   कि आर्थिक सम्पन्नता के बिना जनतान्त्रिक स्वतन्त्रता के और सभी दावे खोखले लगने लगते हैं। सामरिक श्रेष्ठता और उच्चतम वैज्ञानिक उपलब्धि भी सुद्रढ़ आर्थिक तन्त्र के अभाव में धराशायी हो जाती है। यूनाइटेड स्टेट आफ सोवियत रशिया का विघटन मूलत : आर्थिक आधार का लचर होना ही था। हमारे पड़ोसी और हमसे अधिक विशाल भू भाग और आबादी रखने वाला महादेश चीन U.S.S.R.के विघटन से ही सबक सीखकर नयी आर्थिक रण नीतियाँ तैय्यार करने में सफल हुआ है। आधुनिक चायना अब गौतम बुद्ध के मध्यम मार्ग से अलग हटकर वैभव को ही गौरव मानने के लिये प्रस्तुत दिखायी पड़ता है और इसीलिये यह नारा दे रहा है "  To be wealthy is desirable ,to be prosperous is honourable  ." जनतन्त्र को एक राजनीतिक पार्टी के जनतन्त्र में बदलकर चाइना नें आर्थिक प्रगति की आश्चर्य जनक मिसाल पेश कर दी है ।विश्व में 1 /5 प्रतिशत मानव जाति को अपने में समेटे चीन का विशाल भू- भाग इन दिनों हर चौथे वर्ष अपनी आर्थिक सम्पन्नता को दुगना करता जा रहा है और निश्चय ही आज विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति अमरीका के वर्चस्व को एक गहरी चुनौती पेश होने जा रही है । हिन्दुस्तान का जनतन्त्र स्वतन्त्रता की परिभाषा को अभिव्यक्ति और विचारधारा की स्वतन्त्रता के साथ जोड़कर देखता है। यही कारण है कि भारत में अनेक राजनीतिक पार्टियां हैं और उनमें सत्ता प्राप्ति के लिये सदा जोड़ -तोड़ होते रहते हैं । इन परिस्थितियों में एक पार्टी जैसा आर्थिक विकास सम्भव नहीं हो पाता पर जनतन्त्र की सच्ची राह पर चलते हुये भी भारत जो कर दिखाया है वह सचमुच आश्चर्यजनक ही है। विचारकों में दोनों मत प्रचलित है। कुछ कहते हैं इतिहास अपने को सदैव दोहराता है। कुछ कहते है इतिहास अपने को कभी नहीं दोहराता। पर हम भारतवासी काल चक्र में विश्वास करते है। काल निरन्तर चलायमान है और वह एक सीधी रेखा में नहीं चलता उसकी गति चक्राकार है। जो शीर्ष बिन्दु पर है वह चक्राकार गतिमयता में नीचे आ जाता है और अधोस्थित बिन्दु ऊर्ध्वगामी गति अर्जित कर लेता है। कभी ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था आज कामन वेल्थ गेम्स में भी वह शीर्ष स्थान पाने का अधिकारी नहीं रहा था। क्या पता कुछ एक दशकों की दौर में भारत चीन को पछाड़ कर आज विश्व की पांचवीं  सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में लगे वैज को उतारकर विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति होने का वैज पाने का अधिकारी बन जाय। संसार के कुछ प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जिनमें हमारे देश के डा ० मनमोहन सिंह भी हैं ऐसा मानकर चल रहे हैं कि 2050 तक भारत विश्व आर्थिक परामिड के सबसे ऊँचे शिखर पर जा खड़ा होगा। "माटी " के अनेक वय : प्राप्त रचनाकार तब तक शायद न रहें पर उनके लिये इससे बड़ा संतोष और क्या हो सकता है कि राष्ट्र की भावी सन्तति शताब्दियों से भुगत रहे गरीबी के शाप से मुक्त हो जायेगी। आर्थिक सम्पन्नता और सामरिक अजेयता पाकर भी भारत दंम्भ की डींगें नहीं हाकेगा। ब्रिटिश साम्राज्य सा ही और अमरीका की अप्रत्यक्ष राजनीतिक साजिशें उसके इतिहास का अंग नहीं होंगीं। ऐसा इसलिये होगा कि भारत के पास भारत है , बुद्ध हैं , गाँधी है और हैं उसके वे पूज्य सहस्त्रों त्यागी महापुरुष जो अखबारी चर्चा से दूर मानव कल्याण के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर रहे हैं। 'माटी ' का सम्पादक इसी अचर्चित पंक्ति में खड़ा  होकर अपने को गौरवान्वित अनुभव करेगा ।

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