Friday, 24 May 2013

न्यायालय की ड्योढ़ी पर

                                                                   न्यायालय की ड्योढ़ी पर

            सिंहासन बत्तीसी की मनोरंजक न्याय कथायें सम्भवत :इतिहास के ठोस प्रमाणों पर सही साबित न हो सकेंगीं। पर उत्तर भारतीयों के मन में यह बात गहरायी से बैठी हुयी है कि राजा विक्रमादित्य का न्याय सर्वथा निष्पक्ष था और उसमें न कोई लाग लगाव था ,न पूर्वाग्रह ,न दुराग्रह। न्याय की तराजू के दोनों पलड़े किंचित मात्र झुकाव के बिना समानान्तर खड़े रहते थे। हाँ उस काल के प्रचलित विधि विधानों का दायरा ही निर्णय को एक अन्तिम रूप दे पाता था। यूनानी जन कथाओं में भी न्याय की देवी की आँखों में पट्टी बंधीं दिखायी जाती है। हाँ न्याय की देवी है या न्याय का देवता है। इस विषय में यूनानी इतिहास के विद्वानों में तर्क -वितर्क होते अवश्य देखा गया है। पट्टी बाँधने की कल्पना शायद इसीलिये की गयी है। ताकि न्याय करते समय दोनों पक्षों में से किसी पर निगाह न पड़े। क्या पता किसी पक्ष में कोई परिचय का सूत्र हो जिसके कारण निर्णय क्षमता प्रभावित हो जाय ? भारतीय विश्वास में तो मृत्यु का देवता ही न्याय का अधिष्ठाता है ऐसा इसलिये है कि हजारों वर्षों तक चलने वाली जन्मकरण की प्रक्रिया में मृत्यु  के बाद ही सारे कर्मों पर विचार कर यह फैसला किया जाता है कि जीव को आगे किस योनि में जन्मकरण  लेना है या कितने दिन तक स्वर्ग या नरक भोगना है आदि आदि। यमराज ही इन सब दशाओं के लिये एक निर्णायक फैसला ले सकते हैं क्योकि उन्हीं के पास चित्रगुप्त और उसके अनेकानेक सहकर्मियों द्वारा संचित रिकार्ड उपलब्ध रहता है। चलो यह तो हुयी जनसाधारण में प्रचलित पौराणिक विश्वासों की बातें। ऐतिहासिक काल में भी न केवल भारत के प्राचीन इतिहास में बल्कि मुग़ल शासन के काल में भी न्यायप्रियता की आदर्श कथायें सुनने को मिलती हैं। कई इतिहासकारों नें इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है की मुगुल शहंशाहों के महलों में एक घंटा बंधा रहता था जिसकी बाहर पड़ी जंजीर को पहरेदार की अनुमति से न्याय की गुहार करने वाला कोई भी साधारण से साधारण नागरिक खींच सकता था। घण्टे की आवाज सुनते ही शासन का न्याय चक्र अपनी पूरी तेजी के साथ चल निकलता था और गुहार करने वाले को न्याय मिल जाता था। सिखों के महाराजा रणजीत सिंह की न्याय कहानियाँ तो पंजाब के घर घर में सुनी जा सकती हैं। अंग्रेजों के राज्य काल में भी पराजित भारतीय जनता के मन में यह विश्वास बिठा दिया गया था कि गोरा जज कभी गलत फैसला नहीं देता और यदि कोई गल्ती हुयी है तो वह नीचे  के हिन्दुस्तानी मुसाहिबों के कारण हुयी है। बहुत वर्ष पहले चौथी -पांचवीं की हिन्दी की किताब में किसी न्याय प्रिय राजा की एक कथा छपी थी। राजा शायद कोई ऐतिहासिक आधार नहीं रखता था पर उसे सत्ता के प्रतीतात्मक रूप में चित्रित किया गया था। ज्यों ज्यों राज्य का विस्तार और सम्रद्धता बढ़ती गयी त्यों त्यों राजभवन का विशालीकरण और सौन्दर्यीकरण भी बढ़ता गया। अब विस्तार करने के लिये आस पास कोई अवरोध नहीं होना चाहिये। इस राजा के महल के आगे काफी बड़ा मैदान था पर महल के अग्र  भाग को अपनी सीधायी में आगे बढ़ाने में एक बुढ़िया की झोपड़ी आड़े आती थी। झोपड़ी का कुछ हिस्सा सीधायी को टेढ़ा कर रहा था। महल के प्रधान वास्तुकार नें राजा के वजीर को बुलाकर अपनी समस्या उसके आगे रखी। वजीर नें तुरन्त इसका समाधान खोज निकाला उसने उसी समय झोपड़ी की बुढ़िया को अपने सामने पेश होने के लिये मुसाहिबों द्वारा बुलावा भिजवा दिया। बुढ़िया सामने आयी। वजीर के आगे हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी ,वजीर बोला ," बूढ़ी माँ आप अपने राजा को कितना प्यार करती हैं उसके परिवार के लिये अब महल को और बड़ा किया जायेगा। महल की सीधायी में आगे बढ़ने पर तुम्हारी झोपड़ी रुकावट डालती है हम तुम्हे दूसरी जगह इससे अच्छा रहने का स्थान बनवा देंगें। तुम यह झोपड़ी महल के विस्तार के लिये छोड़ दो।" बुढ़िया नें हाथ जोड़कर कहा ," हुजूर मेरे नाती ,पोते बाल -बच्चे सभी दक्षिण की ओर चले गये हैं सुनती हूँ वहाँ मजदूरों के लिये बहुत काम है। अब मैं यँहा अकेली ही रहती हूँ मौत के दरवाजे पर आ खड़ी हुयी हूँ। अब मुझे कितने दिन और जीना है। मेरे सारे बुजुर्ग सास ,ससुर इसी झोपड़ी में रहकर मरे हैं मैं भी इसी में मरकर यह दुनिया छोड़ना चाहती हूँ आप मुझे झोपड़ी छोड़ने पर मजबूर मत करे। वजीर असमंजस में पड़ गया। न्याय प्रिय राजा का न्याय प्रिय वजीर। चाहता तो उसी समय झोपड़ी नष्ट करवा देता। पर नहीं उसने सोचा कि राजा से बातचीत कर ली जाय। महाराजा न्याय सेन उस समय अपनी बड़ी रानी के निवास में थे पर उनके सबसे बड़े वजीर को सन्देश भेजकर रनिवास में भी आवश्यकता पड़ने पर बुला लिया जाता था। वजीर के अनुरोध पर राजा नें उसे रनिवास में बुलाया। वजीर नें प्रधान वास्तुकार द्वारा रखी हुयी समस्या महाराज के सामने पेश की। सुनकर महाराजा नें महारानी की ओर देखा और पूंछा कि उनकी राय में क्या होना चाहिये। महारानी बोली ," जब हम उसे एक बहुत अच्छी रहने की जगह दूसरी जगह देने को तैयार हैं तब उस बुढ़िया को क्या हक़ है कि वह हमारे महल की सुन्दरता को खराब करने पर अड़ जाय। महाराज आप वजीरे आला को बोलिये कि वे उसके रहने का बढ़िया इन्तजाम दूसरी जगह करवा दें। और झोपड़ी को तोड़ कर महल की सीधायी को बरकरार रखा जाय। " महाराज के मन को यह फैसला नहीं भाया पर उन्होंने महारानी की बात को तुरन्त न काटने का फैसला लिया। उन्होंने हुक्म दिया कि बूढ़ी माँ को मेरे सामने पेश किया जाय और यदि वह बुढापे के कारण आने में असमर्थ हो तो उसे बताया जाय कि महाराज स्वयं चल कर उससे मिलने आ रहे हैं। वजीर बहुत समझदार था उसने एक रथ सजाया और रथ के साथ बुढ़िया की झोपड़ी के द्वार पर जा पहुँचा बोला महाराज नें आपको मिलने के लिये बुलाया है। रथ भेजा है ताकि बुढापे में चलने में आपको तकलीफ न हो। बुढ़िया संकोच के मारे मर गयी पर क्या करती रथ पर बैठकर महाराज के सामने आना  ही पड़ा। उसको अपने सामने आता देखकर महाराज  अपने आसन से उठ कर खड़े हो गये बोले ," माँ सुना  है हमारा वजीर तुम्हें कुछ तकलीफ दे रहा है। " अपने प्रति दिखाये गये इस आदर भाव से बुढ़िया की सोच बदल गयी उसने कहा महाराज मैं अपनी झोपड़ी हटाने को तैयार हूँ। आप जैसा चाहें अपने महल को बनवा लें। महारानी और वजीर प्रसन्न हो गये पर महाराज नें जो कहा उसमें छिपा आदर्श हर पीढी के लिये प्रेरणा स्रोत बना रहेगा। उन्होंने कहा ," बूढ़ी माँ यह महल आपकी झोपड़ी को तनिक भी हानि पहुँचाये टेढायी में ही बनाया जायेगा। आप उसी झोपडी में रहेंगीं और आपका वैसा ही सम्मान किया जायेगा जैसा राजमाताओं का होता है। बूढी माँ मेरा प्रणाम स्वीकार करें । बुढ़िया की आँखों में आँसू भर आये ऐसा महाराज पाकर कौन सा देश धन्य नहीं हो उठेगा। यह तो रही एक कथा की बात अभी कुछ दिन पहले न्याय का एक फैसला मेरे सुनने में आया था जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया था।
                    हल्दीराम की भुजिया उनका नवरतन ,खट्टा -मीठा ,पंजाबी तटका और मूँग दाल से हर घर के बच्चे परिचित हैं। हल्दीराम की कहानी १९३७  में बीकानेर से शुरू होती है। जहाँ गंगा विशन अग्रवाल ने मिठाई की एक दुकान खोली। गंगाविशन को हल्दीराम कहकर पुकारा जाता था। पाँच -दस साल वह मिठाई की दुकान साधारण दुकानों की तरह तौल कर और पुराने अखबारों वाले थैली में मिठाई भरकर चलायी गयी। १९५०  में हल्दीराम के बेटे और पोते नें बीकानेर के व्यापार को कलकात्ता में ले जाने का फैसला किया । मिठाई के साथ नमकीन को जोड़ा गया क्योकि कलकत्ता अपने चनाचूर और दालमोट के लिए मशहूर था। हल्दीराम के बेटे का नाम रामेश्वर लाल था और पोते का नाम प्रभू शंकर अग्रवाल है। कलकत्ता में बनायी गयी फैक्ट्री में बनने वाली नमकीन चल निकली। हल्दी राम का ब्रैण्ड मशहूर होने लगा। भुजिया ,मूँगदाल और खट्टा -मीठा बच्चों और किशोरों में रोज के खाने और चबाने की चीजें बन गयीं । अब हल्दीराम के पोते प्रभु नें १९७०  में नागपुर में एक फैक्ट्री और बनवायी वे बीकानेरी भुजिया वाला नाम से     मशहूर हो गये। २०००  आते आते बीकानेरी भुजिया उत्तरी अमेरिका ,योरोप ,सुदूर पूर्व आस्ट्रेलिया और मध्य एशिया तक बाजारों के बीच पंहुँच गयी। ४०० करोड़ से ऊपर की खरीद दर्ज होने लगी अब हल्दीराम का चढ़ता हुआ नाम एक झटके के साथ नीचे आ गया है। कलकत्ता के बड़ा बाजार में हल्दी राम नें एक नये फ़ूड प्लाजा का निर्माण शुरू करवाया। जो सड़क इस प्लाज़ा तक जाती थी।  उसके शुरू में एक छोटी सी पान की दुकान थी जिसको प्रमोद शर्मा चलाते थे। सड़क के मुँह पर बनी एक छोटी सी पान की दुकान विशाल नवनिर्मित फ़ूड प्लाजा पहुँचने में एक अशोभन द्रश्य पैदा करती थी। प्रभु अग्रवाल नें प्रमोद शर्मा से दुकान हटा लेने को कहा पर वह इसके लिये राजी नहीं हुआ अब प्रभु अग्रवाल कहानी के महाराजा की भाँति आदर्शों के प्रतीक तो हैं नहीं। वे आजकल के अधिकाँश उद्योग पतियों की भाँति अपने उद्योग विस्तार के लिये रास्ते में आयी सभी अड़चनों की पूरी सफाई कर देने में विश्वास  रखते हैं पूरे डिटेल्स में न जाते हुये इतना कहना ही यंहां समीचीन होगा कि उन्होंने मार्च ३० ,२००५ को कुछ खरीदे हुये असामाजिक तत्वों द्वारा शर्मा को गोली मरवा दी। घायल शर्मा सौभाग्यवश मरने से बच गये। उसके लगभग पाँच वर्ष बाद फैसला आया था जिसमे खरीदे हुये अपराधियों के साथ साथ प्रभु शंकर अग्रवाल को भी उमर कैद की सजा सुनायी गयी थी। हल्दी राम ब्रैण्ड तो चलता रहेगा पर प्रभु शंकर अग्रवाल नें अपने दादा के नाम पर जो धब्बा लगाया है उसका मिटना मुश्किल दीख पड़ता है। न्याय पालिका के इस प्रकार के फैसले सामान्य भारतीय के मन में विश्वास की एक किरण जगाते हैं। उसे लगता है कि विक्रमादित्य के भारत में न्याय की लौ अभी तक जल रही है यद्यपि मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दिनकरन जैसे सन्देह भरे किस्से भी न्यायपालिका का हिस्सा बनते जा रहे हैं। पर सब मिलाकर भारत की न्यायपालिका से अभी आदर्श न्याय की आशा अभी जीवित है। साथ ही आर्थिक विकास के इस तूफानी दौर में उभरते अरब -खरबपतियों को केवल अमरीका और पश्चिम से ही नहीं बल्कि भारत के अतीत  से भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। 

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