इतिहास के पन्नों से
डेरियस थर्ड की विशाल सेना सिकन्दर महान के सामरिक कौशल के आगे पस्त -हिम्मत हो गयी। परशियन सेना के हजारों सैनिक काट दिये गये। भगदड़ मच गयी। डेरियस थर्ड युद्ध क्षेत्र छोड़कर अपने रथ से भाग खड़ा हुआ। पहले युद्ध में भी वह भाग चुका था और फिर दोबारा सेना एकत्र कर वह सिकंदारसे लड़ने आया था। इस बार भी वह भग कर बच निकलना चाहता था पर अब उसकी सेना के अपने सिपह सालारों नें ही उसे काटकर फेक दिया। फारस का साम्राज्य मैसेडोनिया के साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। हिन्दुस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा के कुछ इलाके परसियन साम्राज्य के कुछ हिस्सा थे। इन इलाकों से परसियन साम्राज्य को बहुत बड़ा कर और सेना के लिये लड़ाकू जवान मिल जाया करते थे। अब ये सब सिकन्दर के अधिकार में आ गया था। लगभग एक वर्ष तक सिकन्दर महान नें इन सीमान्त इलाकों में शान्ति और व्यवस्था कायम करने में लगाया। और फिर हिन्दुकुश को पार कर उसने झेलम के बीच छोटे -मोटे राज्यों को रौंद डाला। अब उसका मुकाबला पोरस (पर्वत राज ) से होना था। जिसकी वीरता की गाथायें उसे तक्षशिला से ही सुनने को मिलने लगीं थीं। आभ्भीक की विजय के बाद अग्रिम क्षेत्र में भेजे गये उसके जासूसों नें लौट कर उसे बताया था कि वितस्ता के पार का राजा पोरस एक बहादुर राजा है। और वह कद -काठी में भी असाधारण है। यह दूसरी बात है कि वह सिकन्दर से उम्र में काफी बड़ा है पर देखने में वह पुरुषों में राजा ही दिखायी पड़ता है। सिकन्दर महान को जासूसों की इस सूचना नें और अधिक उत्तेजित कर दिया। उसने आज तक कभी पराजय का मुँह ही नहीं देखा था और उसे आज तक अपने बराबर का कोई योद्धा भी नहीं मिला था। सिकन्दर उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब पोरस से आमना -सामना हो जाय। सुकरात के शिष्य अफलातून (प्लेटो ) और अफलातून के शिष्य अरस्तू न केवल यूनान में बल्कि उस समय की सभ्य कही जाने वाली हर सभ्यता में अपने ज्ञान की अपार विशालता के कारण चर्चित हो रहे थे। अरस्तू का शिष्य सिकन्दर महान उनकी शिक्षा पाकर अपराजेय विजेता बन चुका था। धरती का एक बहुत बड़ा भू -भाग उसके साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था। सिकन्दर की सेना लड़ते -लड़ते थक गयी थी और स्वदेश वापसी के लिये आतुर थी पर सिकन्दर था जो विश्वविजेता बनने का सपना पाल रहा था और भारत की विजय इस सपने का सबसे सुनहरा पक्ष थी। इधर भारतवर्ष में तक्षशिला विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का एक अध्यापक विष्णु गुप्त चाणक्य भारत विजय का सपना पाले आगे बढ़ते हुये यूनानी विजेताओं को भारत की अदम्य शक्ति का परिचय देने के लिये एक योजना बना रहा था। यूनानी आक्रमण के समय वह तक्षशिला से दूर मगध के पाटिलपुत्र में जा बैठा था और वहां एक अत्यन्त प्रतिभा संपन्न नवयुवक को दीक्षित कर रहा था क्योंकि उस नवयुवक के द्वारा ही उसे भारत का एक चमकता हुआ स्वर्णिम इतिहास रचना था। सच पूंछो तो यह लड़ाई अरस्तू की शिक्षा -दीक्षा में पले अलक्षेन्द्र और चाणक्य की शिक्षा -दीक्षा में पले चन्द्रगुप्त में होनी थी। पर पोरस विजय के बाद सिकन्दर सेना के दबाव में और सेना नायकों की भयातुरता के कारण वापसी पर चल पड़ा। उसका मगध अभियान पूरा ही नहीं हो सका और इसलिये लगभग उसकी मृत्यु के ७ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त को वैक्ट्रिया के सम्राट सिल्यूकस निकेटर से टकराना पड़ा। वैक्ट्रिया का राज्य पहले परसियन साम्राज्य का एक हिस्सा था और अब मैसेडोनियम साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया था। सिल्यूकस सिकन्दर के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता अधिकार का उपयोग कर रहा था। भारतीय प्राचीन इतिहास के सामान्य विद्यार्थी भी यह जानते हैं कि पोरस की सेना की पराजय उसकी कायरता के कारण नहीं वरन सैन्य संचालन में हाथियों और अश्श्वों की भूमिका के कारण हुयी थी। एक महाकाय हस्ती पर हौदे में बैठा पोरस आतंकित अवश्य कर रहा था पर उसका हाथी सिकन्दर के चपल अश्व के खुराग्रों से विचलित होकर मुड़कर भागने को हुआ। महावत के सारे प्रयासों के बावजूद जब हाथी का सधना सम्भव न हुआ और हाथियों की पूरी कतार उलट कर दौड़ने में अपनी ही फ़ौज को कुचलने लगी तो पोरस हौदे से कून्दकर कृपाण हाथ में लिये हौदे से नीचे कूंद पडा। उसकी पुष्ठ लम्बी काया और उसका रोबीला चेहरा तथा जोश में आकर यूनानी सेना के सैनिकों के बीसों कटे सिर उसके अद्वितीय वीर होने के गवाही थे। दूर खडा सिकन्दर यह सब देख रहा था घोड़ा बढ़ाकर जब तक वह पोरस के नजदीक आया तब तक पोरस सकडों यूनानी सैनिकों के बीच घेर लिया गया था। उसकी तलवार टूट चुकी थी और केवल मुठ्ठी उसके हाथ में थी फिर भी कोई यूनानी सैनिक उसके आस -पास पांच छह फीट के घेरे में आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अलक्षेन्द्र नें यह सब देखा, सैनिको को चीरता हुआ बीच में आया और अपने अश्व पर से ही उल्टी तलवार की मूठ से पोरस के हाँथ में बंधी तलवार की टूटी मूठ को झटका देकर नीचे गिरा दिया फिर घोड़े से नीचे कूंदकर पोरस के सामने खड़ा हो गया। विशाल काया वाले युद्ध भूमि के अप्रतिम सेनानी दो महानायक आमने -सामने खड़े थे। पोरस यूनानी सैनिकों से घिरा था पर सिकन्दर नें हाँथ उठाकर आघात करने से रोक दिया था। युद्ध भूमि में ही द्विभाषिये को बुलाया गया जो यूनानी भाषा को सिन्धी भाषा में अनूदित कर सकता हो। प्रशंसा भरे नेत्रों से पोरस को देखते हुए महान अलक्षेन्द्र नें प्रश्न किया पर्वतराज आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाये ? निडर ,निशंक पोरस नें सिर ऊँचा करके कहा महान विजेता अलक्षेन्द्र से हमें उसी व्यवहार की आशा है जो एक राजा दूसरे राजा के साथ या एक अपराजित योद्धा दूसरे अपराजित योद्धा के साथ करता है। इस उत्तर को सुनकर अलक्षेन्द्र के मन में प्रशंसा का भाव उमड़ पड़ा। निश्चय ही पोरस सच्चा वीर है। आत्म विश्वास से परिपूर्ण एक आदर्श राजा। अलक्षेन्द्र नें फिर कहा पर्वत राज बराबरी का व्यवहार तो तुम्हे मिलेगा ही पर अलक्षेन्द्र से तुम और भी जो चाहो पा सकते हो। मेरे उस्ताद अरस्तू ने ठीक ही कहा था कि सच्चे वीर तो भारत में ही देखने को मिलते हैं। पोरस नें कहा देवपुत्र अलक्षेन्द्र मैंने राजा से राजा जैसे व्यवहार की बात कही है और मेरे इस वाक्य में ही सब कुछ माँगना शामिल हो जाता है ।
अलक्षेन्द्र नें खिलखिलाकर पर्वतराज की ओर मैत्री का हाँथ बढाया ,विश्व के इतिहास में इन दो मित्रों के ,विश्वाश ,सहयोग और पारस्परिक आदर का जो लेखा -जोखा मिलता है उससे अधिक रोमांचक और प्रभावशाली वीरत्व की गाथा और कहीं सुनने पढने को नहीं मिल सकती। भारत में सिकन्दर द्वारा जीते हुये सभी भू भाग पोरस के राज्य में मिला दिये गये और पोरस को उनके स्वतन्त्र प्रशासन का अधिकार सौंप दिया गया। यदि सिन्धु पार कर महान अलक्षेन्द्र पूर्व की ओर बढ़ता तो भारत का प्राचीन इतिहास कौन सा मोड़ लेता यह कहना अत्यन्त कठिन है। सिकन्दर की सेना का वापस लौटना और वापसी में होने वाले युद्धों की भयानकता और फिर उसके कुछ वर्षों बाद उसकी मृत्यू सभी का विस्तृत विवरण यूनानी इतिहासकारों के पन्नों में सुरक्षित है। और उन पन्नों में यह भी लिखा पाया जाता है कि सिकन्दर की मृत्यू का सबसे बड़ा दुःख उसके भारतीय मित्र पोरस को हुआ। जिसके आघात से वह कभी उबर नहीं सका।
अलक्षेन्द्र महान और उसके उस्ताद अरिस्टोटल दोनों ही विश्व इतिहास के अमर पुरुष हैं। रण विशारदों का यह मत है कि इतिहास पूर्व के मिथिकों .महाकाब्यों और पौराणिक वृतान्तों को यदि हम अलग कर दें तो मानव जाति के लिखित इतिहास में मैसेडोनिया के शासक फिलिप के पुत्र अलक्षेन्द्र महान से बड़ा कोई योद्धा धरती पर अवतरित नहीं हुआ है। न केवल व्यक्तिगत शूरता और विजेता होने पर भी विजित के प्रति मानवीय भाव बल्कि व्यूह रचना और सैन्य संचालन की तकनीक इन सभी में अलक्षेन्द्र विश्व का अजेय महानायक बनकर चर्चित हुआ है। और अलक्षेन्द्र के उस्ताद अरिस्टोटल जिन्हें भारतीय अरस्तू के नाम से जानते हैं अपनी बहुमुखी विद्वता के लिये संसार के महानतम ज्ञानियों में शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं । दर्शन ,विज्ञान ,समाजशास्त्र ,न्याय व्यवस्था ललित कला और व्यक्तित्व निर्माण कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें अरस्तू नें कोई अमिट छाप न छोड़ी हो पर जिन दिनों यूनान में अरस्तू के ज्ञान का डंका बज रहा था उन्ही दिनों भारत में घनी खुली चोटी लिए एक श्याम वर्णी ब्राम्हण एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना के सुद्रढ़ आधार स्तंभ्भ जुटाने में लगा था। यूनान की टक्कर में भारत कुछ देर के लिये भले ही पराभूत होता दिखायी पडा हो पर विश्व्गुप्त चाणक्य की आँखें एक दशक के बाद आने वाले उस युग को देख रहीं थीं जब भारत की सीमायें मगध के पूर्वी सीमान्त पहाड़ियों से लेकर वैक्ट्रिया को घेरते हुये अफगानिस्तान तक पहुँच जायेंगीं। चन्द्रगुप्त का प्रशिक्षण पूरा होने को था और विलक्षण विश्व गुप्त मगध में उथल -पुथल के बीज बो रहा था। आर्य और अनार्य ,लौकिक और अलौकिक ,गगन और धरित्री ,वीर और भूमा इन सभी के आदर्श मिलन नें विश्व गुप्त की चिन्तना को गढ़ा था। कर्मयोगी चाणक्य का शिष्य चन्द्रगुप्त अरस्तू की विश्व व्यापी ख्याति को चुनौती देकर ज्ञान विज्ञान में पाये उनके शीर्ष पद को भारत के लिये सुरक्षित करवा रहा था और ऐसा ही हुआ भी। सिकन्दर की मृत्यु के ७ वर्ष बाद ही उसका विशाल साम्राज्य वायु की लहरियों पर बीते गये कल का स्वर बनकर लहराने लगा। उसके साम्राज्य के भारत के पश्चिमी सीमान्त से मिले मध्य पश्चिम एशिया के सभी भू भाग मौर्य साम्राज्य में चाणक्य की कूटिनीति से सन्चालित चन्द्र गुप्त की तलवार के बल पर छीन लिये गये। काबुल ,कन्धार ,तक्षशिला में सिकन्दर के साथ आयी कला ,साहित्य और रण कौशल की विचार धारायें और तकनीकें पाटिलपुत्र से आयी हुयी भारतीय चिन्तन और तकनीकों से मिलकर कालजयी श्रष्टियाँ करने लगीं। १३७ वर्ष तक चलने वाला विशाल मौर्य साम्राज्य जिसने अशोक महान जैसे विश्व इतिहास के महानायक को जन्म दिया भारत के अतीत की सबसे गौरवमयी गाथा है।
डेरियस थर्ड की विशाल सेना सिकन्दर महान के सामरिक कौशल के आगे पस्त -हिम्मत हो गयी। परशियन सेना के हजारों सैनिक काट दिये गये। भगदड़ मच गयी। डेरियस थर्ड युद्ध क्षेत्र छोड़कर अपने रथ से भाग खड़ा हुआ। पहले युद्ध में भी वह भाग चुका था और फिर दोबारा सेना एकत्र कर वह सिकंदारसे लड़ने आया था। इस बार भी वह भग कर बच निकलना चाहता था पर अब उसकी सेना के अपने सिपह सालारों नें ही उसे काटकर फेक दिया। फारस का साम्राज्य मैसेडोनिया के साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया। हिन्दुस्तान के पश्चिमोत्तर सीमा के कुछ इलाके परसियन साम्राज्य के कुछ हिस्सा थे। इन इलाकों से परसियन साम्राज्य को बहुत बड़ा कर और सेना के लिये लड़ाकू जवान मिल जाया करते थे। अब ये सब सिकन्दर के अधिकार में आ गया था। लगभग एक वर्ष तक सिकन्दर महान नें इन सीमान्त इलाकों में शान्ति और व्यवस्था कायम करने में लगाया। और फिर हिन्दुकुश को पार कर उसने झेलम के बीच छोटे -मोटे राज्यों को रौंद डाला। अब उसका मुकाबला पोरस (पर्वत राज ) से होना था। जिसकी वीरता की गाथायें उसे तक्षशिला से ही सुनने को मिलने लगीं थीं। आभ्भीक की विजय के बाद अग्रिम क्षेत्र में भेजे गये उसके जासूसों नें लौट कर उसे बताया था कि वितस्ता के पार का राजा पोरस एक बहादुर राजा है। और वह कद -काठी में भी असाधारण है। यह दूसरी बात है कि वह सिकन्दर से उम्र में काफी बड़ा है पर देखने में वह पुरुषों में राजा ही दिखायी पड़ता है। सिकन्दर महान को जासूसों की इस सूचना नें और अधिक उत्तेजित कर दिया। उसने आज तक कभी पराजय का मुँह ही नहीं देखा था और उसे आज तक अपने बराबर का कोई योद्धा भी नहीं मिला था। सिकन्दर उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब पोरस से आमना -सामना हो जाय। सुकरात के शिष्य अफलातून (प्लेटो ) और अफलातून के शिष्य अरस्तू न केवल यूनान में बल्कि उस समय की सभ्य कही जाने वाली हर सभ्यता में अपने ज्ञान की अपार विशालता के कारण चर्चित हो रहे थे। अरस्तू का शिष्य सिकन्दर महान उनकी शिक्षा पाकर अपराजेय विजेता बन चुका था। धरती का एक बहुत बड़ा भू -भाग उसके साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था। सिकन्दर की सेना लड़ते -लड़ते थक गयी थी और स्वदेश वापसी के लिये आतुर थी पर सिकन्दर था जो विश्वविजेता बनने का सपना पाल रहा था और भारत की विजय इस सपने का सबसे सुनहरा पक्ष थी। इधर भारतवर्ष में तक्षशिला विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का एक अध्यापक विष्णु गुप्त चाणक्य भारत विजय का सपना पाले आगे बढ़ते हुये यूनानी विजेताओं को भारत की अदम्य शक्ति का परिचय देने के लिये एक योजना बना रहा था। यूनानी आक्रमण के समय वह तक्षशिला से दूर मगध के पाटिलपुत्र में जा बैठा था और वहां एक अत्यन्त प्रतिभा संपन्न नवयुवक को दीक्षित कर रहा था क्योंकि उस नवयुवक के द्वारा ही उसे भारत का एक चमकता हुआ स्वर्णिम इतिहास रचना था। सच पूंछो तो यह लड़ाई अरस्तू की शिक्षा -दीक्षा में पले अलक्षेन्द्र और चाणक्य की शिक्षा -दीक्षा में पले चन्द्रगुप्त में होनी थी। पर पोरस विजय के बाद सिकन्दर सेना के दबाव में और सेना नायकों की भयातुरता के कारण वापसी पर चल पड़ा। उसका मगध अभियान पूरा ही नहीं हो सका और इसलिये लगभग उसकी मृत्यु के ७ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त को वैक्ट्रिया के सम्राट सिल्यूकस निकेटर से टकराना पड़ा। वैक्ट्रिया का राज्य पहले परसियन साम्राज्य का एक हिस्सा था और अब मैसेडोनियम साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया था। सिल्यूकस सिकन्दर के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता अधिकार का उपयोग कर रहा था। भारतीय प्राचीन इतिहास के सामान्य विद्यार्थी भी यह जानते हैं कि पोरस की सेना की पराजय उसकी कायरता के कारण नहीं वरन सैन्य संचालन में हाथियों और अश्श्वों की भूमिका के कारण हुयी थी। एक महाकाय हस्ती पर हौदे में बैठा पोरस आतंकित अवश्य कर रहा था पर उसका हाथी सिकन्दर के चपल अश्व के खुराग्रों से विचलित होकर मुड़कर भागने को हुआ। महावत के सारे प्रयासों के बावजूद जब हाथी का सधना सम्भव न हुआ और हाथियों की पूरी कतार उलट कर दौड़ने में अपनी ही फ़ौज को कुचलने लगी तो पोरस हौदे से कून्दकर कृपाण हाथ में लिये हौदे से नीचे कूंद पडा। उसकी पुष्ठ लम्बी काया और उसका रोबीला चेहरा तथा जोश में आकर यूनानी सेना के सैनिकों के बीसों कटे सिर उसके अद्वितीय वीर होने के गवाही थे। दूर खडा सिकन्दर यह सब देख रहा था घोड़ा बढ़ाकर जब तक वह पोरस के नजदीक आया तब तक पोरस सकडों यूनानी सैनिकों के बीच घेर लिया गया था। उसकी तलवार टूट चुकी थी और केवल मुठ्ठी उसके हाथ में थी फिर भी कोई यूनानी सैनिक उसके आस -पास पांच छह फीट के घेरे में आने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अलक्षेन्द्र नें यह सब देखा, सैनिको को चीरता हुआ बीच में आया और अपने अश्व पर से ही उल्टी तलवार की मूठ से पोरस के हाँथ में बंधी तलवार की टूटी मूठ को झटका देकर नीचे गिरा दिया फिर घोड़े से नीचे कूंदकर पोरस के सामने खड़ा हो गया। विशाल काया वाले युद्ध भूमि के अप्रतिम सेनानी दो महानायक आमने -सामने खड़े थे। पोरस यूनानी सैनिकों से घिरा था पर सिकन्दर नें हाँथ उठाकर आघात करने से रोक दिया था। युद्ध भूमि में ही द्विभाषिये को बुलाया गया जो यूनानी भाषा को सिन्धी भाषा में अनूदित कर सकता हो। प्रशंसा भरे नेत्रों से पोरस को देखते हुए महान अलक्षेन्द्र नें प्रश्न किया पर्वतराज आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाये ? निडर ,निशंक पोरस नें सिर ऊँचा करके कहा महान विजेता अलक्षेन्द्र से हमें उसी व्यवहार की आशा है जो एक राजा दूसरे राजा के साथ या एक अपराजित योद्धा दूसरे अपराजित योद्धा के साथ करता है। इस उत्तर को सुनकर अलक्षेन्द्र के मन में प्रशंसा का भाव उमड़ पड़ा। निश्चय ही पोरस सच्चा वीर है। आत्म विश्वास से परिपूर्ण एक आदर्श राजा। अलक्षेन्द्र नें फिर कहा पर्वत राज बराबरी का व्यवहार तो तुम्हे मिलेगा ही पर अलक्षेन्द्र से तुम और भी जो चाहो पा सकते हो। मेरे उस्ताद अरस्तू ने ठीक ही कहा था कि सच्चे वीर तो भारत में ही देखने को मिलते हैं। पोरस नें कहा देवपुत्र अलक्षेन्द्र मैंने राजा से राजा जैसे व्यवहार की बात कही है और मेरे इस वाक्य में ही सब कुछ माँगना शामिल हो जाता है ।
अलक्षेन्द्र नें खिलखिलाकर पर्वतराज की ओर मैत्री का हाँथ बढाया ,विश्व के इतिहास में इन दो मित्रों के ,विश्वाश ,सहयोग और पारस्परिक आदर का जो लेखा -जोखा मिलता है उससे अधिक रोमांचक और प्रभावशाली वीरत्व की गाथा और कहीं सुनने पढने को नहीं मिल सकती। भारत में सिकन्दर द्वारा जीते हुये सभी भू भाग पोरस के राज्य में मिला दिये गये और पोरस को उनके स्वतन्त्र प्रशासन का अधिकार सौंप दिया गया। यदि सिन्धु पार कर महान अलक्षेन्द्र पूर्व की ओर बढ़ता तो भारत का प्राचीन इतिहास कौन सा मोड़ लेता यह कहना अत्यन्त कठिन है। सिकन्दर की सेना का वापस लौटना और वापसी में होने वाले युद्धों की भयानकता और फिर उसके कुछ वर्षों बाद उसकी मृत्यू सभी का विस्तृत विवरण यूनानी इतिहासकारों के पन्नों में सुरक्षित है। और उन पन्नों में यह भी लिखा पाया जाता है कि सिकन्दर की मृत्यू का सबसे बड़ा दुःख उसके भारतीय मित्र पोरस को हुआ। जिसके आघात से वह कभी उबर नहीं सका।
अलक्षेन्द्र महान और उसके उस्ताद अरिस्टोटल दोनों ही विश्व इतिहास के अमर पुरुष हैं। रण विशारदों का यह मत है कि इतिहास पूर्व के मिथिकों .महाकाब्यों और पौराणिक वृतान्तों को यदि हम अलग कर दें तो मानव जाति के लिखित इतिहास में मैसेडोनिया के शासक फिलिप के पुत्र अलक्षेन्द्र महान से बड़ा कोई योद्धा धरती पर अवतरित नहीं हुआ है। न केवल व्यक्तिगत शूरता और विजेता होने पर भी विजित के प्रति मानवीय भाव बल्कि व्यूह रचना और सैन्य संचालन की तकनीक इन सभी में अलक्षेन्द्र विश्व का अजेय महानायक बनकर चर्चित हुआ है। और अलक्षेन्द्र के उस्ताद अरिस्टोटल जिन्हें भारतीय अरस्तू के नाम से जानते हैं अपनी बहुमुखी विद्वता के लिये संसार के महानतम ज्ञानियों में शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं । दर्शन ,विज्ञान ,समाजशास्त्र ,न्याय व्यवस्था ललित कला और व्यक्तित्व निर्माण कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें अरस्तू नें कोई अमिट छाप न छोड़ी हो पर जिन दिनों यूनान में अरस्तू के ज्ञान का डंका बज रहा था उन्ही दिनों भारत में घनी खुली चोटी लिए एक श्याम वर्णी ब्राम्हण एक विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना के सुद्रढ़ आधार स्तंभ्भ जुटाने में लगा था। यूनान की टक्कर में भारत कुछ देर के लिये भले ही पराभूत होता दिखायी पडा हो पर विश्व्गुप्त चाणक्य की आँखें एक दशक के बाद आने वाले उस युग को देख रहीं थीं जब भारत की सीमायें मगध के पूर्वी सीमान्त पहाड़ियों से लेकर वैक्ट्रिया को घेरते हुये अफगानिस्तान तक पहुँच जायेंगीं। चन्द्रगुप्त का प्रशिक्षण पूरा होने को था और विलक्षण विश्व गुप्त मगध में उथल -पुथल के बीज बो रहा था। आर्य और अनार्य ,लौकिक और अलौकिक ,गगन और धरित्री ,वीर और भूमा इन सभी के आदर्श मिलन नें विश्व गुप्त की चिन्तना को गढ़ा था। कर्मयोगी चाणक्य का शिष्य चन्द्रगुप्त अरस्तू की विश्व व्यापी ख्याति को चुनौती देकर ज्ञान विज्ञान में पाये उनके शीर्ष पद को भारत के लिये सुरक्षित करवा रहा था और ऐसा ही हुआ भी। सिकन्दर की मृत्यु के ७ वर्ष बाद ही उसका विशाल साम्राज्य वायु की लहरियों पर बीते गये कल का स्वर बनकर लहराने लगा। उसके साम्राज्य के भारत के पश्चिमी सीमान्त से मिले मध्य पश्चिम एशिया के सभी भू भाग मौर्य साम्राज्य में चाणक्य की कूटिनीति से सन्चालित चन्द्र गुप्त की तलवार के बल पर छीन लिये गये। काबुल ,कन्धार ,तक्षशिला में सिकन्दर के साथ आयी कला ,साहित्य और रण कौशल की विचार धारायें और तकनीकें पाटिलपुत्र से आयी हुयी भारतीय चिन्तन और तकनीकों से मिलकर कालजयी श्रष्टियाँ करने लगीं। १३७ वर्ष तक चलने वाला विशाल मौर्य साम्राज्य जिसने अशोक महान जैसे विश्व इतिहास के महानायक को जन्म दिया भारत के अतीत की सबसे गौरवमयी गाथा है।
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