शब्द -समर
उत्तर मध्य भारत का एक अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है। त्रिपाठी सद्ग्रहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह। गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्रांगण ,सुरिचिपूर्ण मिट्टी के बने ऊँचे धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका ,फिर अगल -बगल के कई कक्ष ,बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान।गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पान वाला खुला मैदान। गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता :घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग। चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है। दिन के दस बजे हैं अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है। भरे पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन। गृह में उसकी दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे आँगन में ,दौड़ने ,खेलने वाले भतीजे और भतीजियाँ। दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख रेख में व्यस्त। भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित। मस्त मौला ,फक्कड़ पर अद्वितीय स्रजनात्मक प्रतिभा का धनी। मुग़ल सम्राट अकबर ,जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्तप्राय। औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या। बहु संख्यक हिन्दू जन मानस में आक्रोश। मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरुआत। कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें। आस -पास के सभी क्षेत्रों में उसका सम्मान। हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व कविता पाठ। अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर। सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य। सिर पर सिर त्राण (पगड़ी )कटि से ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुंचता है। कटि के नीचे सुथ्थ्न ढंग की धोती का पहनावा। पैरों में पत्राण। आँगन में पहुचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठ कर पैर धोते हैं। मिट्टी लगाकर हाँथ साफ़ करते हैं। फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं। दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं। सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं। भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है। कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल -रोटी रख कर सामने रख देती है। यह रोज का सुनिश्चित क्रम है। भाभी जानती है कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रखकर कह देती है कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ ,एक छोटी कटोरी में शुद्ध घृत भी है फिर भाभी रसोई छोड़ कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती है। भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते हैं। वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है। माँ अब बहुत बृद्ध हो गयी है। अलग कक्ष में बैठी या पड़ी रहती है। भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं। माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो। सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं। उन्हें लगता है कि दाल सब्जी में नमक न के बराबर है। कहीं भाभी भूल तो नहीं गयी ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते हैं क्योकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है। शरीर से काफी स्वेद श्रवित होता है कुछ अतिरिक्त नमक की मांग रहती है। भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं। भाभी को समय लग रहा है। छोटे बच्चे को साफ़ सुथरा करने में समय लगता ही है। भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला इतने बेताब क्यों हो रहे हो। भूषण कौर लिये बैठे हैं। नमक की कमी से स्वाद किर किरा हो रहा है। फिर तीसरी आवाज देते हैं। जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ। कहाँ उलझ गयी भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है। छोटा बच्चा जो अभी तक शिशु ही है रोने लगता है। भाभी गुस्से में हाथ धोकर रसोई में घुसती है चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है। कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो। जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना। मुझे और भी तो कितने झंझट हैं। खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं\ और उनके पास समय नहीं होता। बच्चे के रोने की आवाज भाभी तक आती है। भाभी तैश में आकर कहती है ," लाला तुम तो ऐसे रोब से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता। "
भूषण का आत्म अभिमान चोट खाता है कहते हैं ," भाभी मैं क्या किसी हाथी नसीन से कम हूँ। " मेरी प्रशंसा क्या किसी हाथी नसीन से कम होती है। भाभी को नहले पर दहला लगाना आता है। आखिर वह मतिराम की पत्नी है। उसके पति स्वयं जाने -माने कवि हैं। फिर भी वह गृह गृहस्थी चलाने के लिये जायदाद की पूरी देख -भाल करते हैं। अपना समय फिजूल की शेखियों में बर्बाद नहीं करते। वह चोट करती है , " सभी के भाग्य में हाथी नसीन होना नहीं होता। बेकार की शेखी मत बघारो लाला। मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है। बोलो और नमक तो नहीं चाहिये ,वह छोटा विभीषण रो रहा है। " न जाने क्या होता है। अद्दभुत प्रतिभा के धनी , हिन्दू सस्कृति के प्रति पूर्णत : समर्पित भाभी के शब्दों का प्रहार झेल कर तिलमिला उठते हैं\ पर अपने आवेश को नियन्त्रित कर शांत स्वर में कहते हैं देखो भाभी तुम मेरी आदरणीया हो , तुम मेरी माँ तुल्य हो क्या जैसा जो कुछ मैं हूँ वह तुम्हारी माप पर खरा नहीं उतरता\ यदि मैं हाथी नसीन हो जाऊं तो मैं क्या कुछ बदल जाऊँगा। भूषण तो भूषण ही रहेगा भाभी उसे बिकने के लिये बाध्य मत करो। उत्तर भारत में तो मेरा खरीददार दिखता ही नहीं। हलाहल कूट को बस त्रिनेत्र शिव ही कंठ में धारण कर सकते हैं। बच्चे के रोने की आवाज तेज होती है भाभी उठ खड़ी होती है उठते उठते कहती है। जब ब्याह कर आयी थी तुम्हारे बड़े भाई भी इसी प्रकार की लम्बी -चौड़ी हांका करते थे कहते थे राजसी ठाठ से घर को मढ़ दूँगा। कहते थे स्वर्ण आभूषणों से मेरे रूप को कई गुना बढ़ा देंगें। अरे लाला तुम सब भाईयों में अपना बड़प्पन दिखाने का मर्ज लग गया है। मेरे जेठ जी कुछ लिखते -विखते रहते हैं। बड़ी बहना भी कह रही थी कि इन लफ्फाजी करने वाले भाइयों में सभी केवल प्रशंसा का आसव पीकर मस्त रहते हैं। जीवन की कठोर सच्चायी से इनका कोई परिचय नहीं है। हमारी नसीब में बैलगाड़ी ही बनी रहे यही बहुत है। हमारी गैय्या बछडे देती रहे तो खेती बाड़ी चलती रहेगी। रथ हमारे भाग्य में कहाँ है। और हाथी क्या हमारी जिन्दगी कभी हमारे दरवाजे पर खड़ा हो सकता है।
भूषण नें अभी तक कुछ ही कौर मुँह में डाले हैं। तीन चौथायी भोजन थाली में अनछुआ पडा है भाभी तो खड़ी ही थी। खुद भी तमग कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं भाभी मैं अपना अपमान तो बर्दाश्त कर सकता हूँ पर आपने न केवल देवर का अपमान किया है बल्कि अपने पूज्य पति और ज्येष्ठ श्री का भी। हमारे पूज्य पिता आज नहीं हैं पर जो विरासत हमने उनसे पायी है कि वह इतनी भव्य और ओजपूर्ण है कि वह हमें अमरत्व के द्वार तक पहुँचा सकती है। अच्छा तो सुनो भाभी मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इस घर के द्वार पर तभी आकर भाइयों को अपना मुँह दिखाऊंगा जब मैं सबसे आगे विशाल गजराज पर बैठा हूँगा और मेरे पीछे हाथियों की लम्बी कतार होगी। तब नमक देने में देरी तो नहीं करोगी भाभी ?
भूषण यह कहकर उठ जाते हैं हाथ पैर धोते हैं मुँह पर जल के छीटे मारते हैं सिर पर उष्णीष रखते हैं , वक्ष वस्त्र पहनते हैं फिर माँ के कक्ष में जाकर माँ के चरणों में सिर रखकर उसका आशीर्वाद मांगते हैं । माँ की श्रवण शक्ति बहुत कम है भाभी और देवर में क्या बातचीत हुयी है इसे वह नहीं जानती। माँ आशीर्वाद का हाँथ भूषण के सिर पर रखती है कहती है बेटा रात्रि को जल्दी आ जाया करो। स्वर्ग जाने से पहले तुम्हारे पिता ने जो मुझसे कहा था सुनना चाहोगे ? उन्होंने कहा था हमारा भूषण हम दोनों को अमर कर देगा। भूषण के आँखों के जल बिन्दु माँ के चरणों पर पड़ते हैं। रुदन को रोककर आँगन से बाहर आकर पदत्राण पहन लेते हैं और शीघ्रता से गृह के मुख्य द्वार से बाहर निकल जाते है। सोचते जा रहें हैं कि उत्तरावर्त का शौर्य तो मर चुका मेरी रणभेरी किस नरसिंह को हिन्दू संस्कृति के सच्चे उद्धारक के रूप में इतिहास के पटल पर अवतरित होने की प्रेरणा दे पायेगी। चलते है ओरछा से होकर महाराष्ट्र की ओर अब तो अन्याय पूर्ण मुल्ला संस्कृति को जड़मूल से उखाड़ ही फेकना होगा। हिन्दू चिन्तन की सामासिकता कोई कालजयी राष्ट्र पुरुष देश का भविष्य रचने के लिये उभार कर सामने लायेगी। असमर्थ तो यह कर नहीं सकते पर सम्भवत : समर्थ राम दास महाराष्ट्र की चेतना में पुन : नव चेतना का सन्चार कर दें।
पटाक्षेप .......दूर से गूँजती कविता की पंक्तियाँ " शिवा जो न होतो सुन्नत हॉट सबकी ।"
( आगे अगले अंक में )
उत्तर मध्य भारत का एक अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है। त्रिपाठी सद्ग्रहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह। गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्रांगण ,सुरिचिपूर्ण मिट्टी के बने ऊँचे धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका ,फिर अगल -बगल के कई कक्ष ,बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान।गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पान वाला खुला मैदान। गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता :घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग। चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है। दिन के दस बजे हैं अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है। भरे पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन। गृह में उसकी दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे आँगन में ,दौड़ने ,खेलने वाले भतीजे और भतीजियाँ। दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख रेख में व्यस्त। भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित। मस्त मौला ,फक्कड़ पर अद्वितीय स्रजनात्मक प्रतिभा का धनी। मुग़ल सम्राट अकबर ,जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्तप्राय। औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या। बहु संख्यक हिन्दू जन मानस में आक्रोश। मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरुआत। कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें। आस -पास के सभी क्षेत्रों में उसका सम्मान। हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व कविता पाठ। अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर। सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य। सिर पर सिर त्राण (पगड़ी )कटि से ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुंचता है। कटि के नीचे सुथ्थ्न ढंग की धोती का पहनावा। पैरों में पत्राण। आँगन में पहुचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठ कर पैर धोते हैं। मिट्टी लगाकर हाँथ साफ़ करते हैं। फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं। दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं। सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं। भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है। कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल -रोटी रख कर सामने रख देती है। यह रोज का सुनिश्चित क्रम है। भाभी जानती है कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रखकर कह देती है कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ ,एक छोटी कटोरी में शुद्ध घृत भी है फिर भाभी रसोई छोड़ कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती है। भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते हैं। वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है। माँ अब बहुत बृद्ध हो गयी है। अलग कक्ष में बैठी या पड़ी रहती है। भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं। माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो। सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं। उन्हें लगता है कि दाल सब्जी में नमक न के बराबर है। कहीं भाभी भूल तो नहीं गयी ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते हैं क्योकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है। शरीर से काफी स्वेद श्रवित होता है कुछ अतिरिक्त नमक की मांग रहती है। भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं। भाभी को समय लग रहा है। छोटे बच्चे को साफ़ सुथरा करने में समय लगता ही है। भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला इतने बेताब क्यों हो रहे हो। भूषण कौर लिये बैठे हैं। नमक की कमी से स्वाद किर किरा हो रहा है। फिर तीसरी आवाज देते हैं। जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ। कहाँ उलझ गयी भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है। छोटा बच्चा जो अभी तक शिशु ही है रोने लगता है। भाभी गुस्से में हाथ धोकर रसोई में घुसती है चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है। कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो। जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना। मुझे और भी तो कितने झंझट हैं। खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं\ और उनके पास समय नहीं होता। बच्चे के रोने की आवाज भाभी तक आती है। भाभी तैश में आकर कहती है ," लाला तुम तो ऐसे रोब से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता। "
भूषण का आत्म अभिमान चोट खाता है कहते हैं ," भाभी मैं क्या किसी हाथी नसीन से कम हूँ। " मेरी प्रशंसा क्या किसी हाथी नसीन से कम होती है। भाभी को नहले पर दहला लगाना आता है। आखिर वह मतिराम की पत्नी है। उसके पति स्वयं जाने -माने कवि हैं। फिर भी वह गृह गृहस्थी चलाने के लिये जायदाद की पूरी देख -भाल करते हैं। अपना समय फिजूल की शेखियों में बर्बाद नहीं करते। वह चोट करती है , " सभी के भाग्य में हाथी नसीन होना नहीं होता। बेकार की शेखी मत बघारो लाला। मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है। बोलो और नमक तो नहीं चाहिये ,वह छोटा विभीषण रो रहा है। " न जाने क्या होता है। अद्दभुत प्रतिभा के धनी , हिन्दू सस्कृति के प्रति पूर्णत : समर्पित भाभी के शब्दों का प्रहार झेल कर तिलमिला उठते हैं\ पर अपने आवेश को नियन्त्रित कर शांत स्वर में कहते हैं देखो भाभी तुम मेरी आदरणीया हो , तुम मेरी माँ तुल्य हो क्या जैसा जो कुछ मैं हूँ वह तुम्हारी माप पर खरा नहीं उतरता\ यदि मैं हाथी नसीन हो जाऊं तो मैं क्या कुछ बदल जाऊँगा। भूषण तो भूषण ही रहेगा भाभी उसे बिकने के लिये बाध्य मत करो। उत्तर भारत में तो मेरा खरीददार दिखता ही नहीं। हलाहल कूट को बस त्रिनेत्र शिव ही कंठ में धारण कर सकते हैं। बच्चे के रोने की आवाज तेज होती है भाभी उठ खड़ी होती है उठते उठते कहती है। जब ब्याह कर आयी थी तुम्हारे बड़े भाई भी इसी प्रकार की लम्बी -चौड़ी हांका करते थे कहते थे राजसी ठाठ से घर को मढ़ दूँगा। कहते थे स्वर्ण आभूषणों से मेरे रूप को कई गुना बढ़ा देंगें। अरे लाला तुम सब भाईयों में अपना बड़प्पन दिखाने का मर्ज लग गया है। मेरे जेठ जी कुछ लिखते -विखते रहते हैं। बड़ी बहना भी कह रही थी कि इन लफ्फाजी करने वाले भाइयों में सभी केवल प्रशंसा का आसव पीकर मस्त रहते हैं। जीवन की कठोर सच्चायी से इनका कोई परिचय नहीं है। हमारी नसीब में बैलगाड़ी ही बनी रहे यही बहुत है। हमारी गैय्या बछडे देती रहे तो खेती बाड़ी चलती रहेगी। रथ हमारे भाग्य में कहाँ है। और हाथी क्या हमारी जिन्दगी कभी हमारे दरवाजे पर खड़ा हो सकता है।
भूषण नें अभी तक कुछ ही कौर मुँह में डाले हैं। तीन चौथायी भोजन थाली में अनछुआ पडा है भाभी तो खड़ी ही थी। खुद भी तमग कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं भाभी मैं अपना अपमान तो बर्दाश्त कर सकता हूँ पर आपने न केवल देवर का अपमान किया है बल्कि अपने पूज्य पति और ज्येष्ठ श्री का भी। हमारे पूज्य पिता आज नहीं हैं पर जो विरासत हमने उनसे पायी है कि वह इतनी भव्य और ओजपूर्ण है कि वह हमें अमरत्व के द्वार तक पहुँचा सकती है। अच्छा तो सुनो भाभी मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इस घर के द्वार पर तभी आकर भाइयों को अपना मुँह दिखाऊंगा जब मैं सबसे आगे विशाल गजराज पर बैठा हूँगा और मेरे पीछे हाथियों की लम्बी कतार होगी। तब नमक देने में देरी तो नहीं करोगी भाभी ?
भूषण यह कहकर उठ जाते हैं हाथ पैर धोते हैं मुँह पर जल के छीटे मारते हैं सिर पर उष्णीष रखते हैं , वक्ष वस्त्र पहनते हैं फिर माँ के कक्ष में जाकर माँ के चरणों में सिर रखकर उसका आशीर्वाद मांगते हैं । माँ की श्रवण शक्ति बहुत कम है भाभी और देवर में क्या बातचीत हुयी है इसे वह नहीं जानती। माँ आशीर्वाद का हाँथ भूषण के सिर पर रखती है कहती है बेटा रात्रि को जल्दी आ जाया करो। स्वर्ग जाने से पहले तुम्हारे पिता ने जो मुझसे कहा था सुनना चाहोगे ? उन्होंने कहा था हमारा भूषण हम दोनों को अमर कर देगा। भूषण के आँखों के जल बिन्दु माँ के चरणों पर पड़ते हैं। रुदन को रोककर आँगन से बाहर आकर पदत्राण पहन लेते हैं और शीघ्रता से गृह के मुख्य द्वार से बाहर निकल जाते है। सोचते जा रहें हैं कि उत्तरावर्त का शौर्य तो मर चुका मेरी रणभेरी किस नरसिंह को हिन्दू संस्कृति के सच्चे उद्धारक के रूप में इतिहास के पटल पर अवतरित होने की प्रेरणा दे पायेगी। चलते है ओरछा से होकर महाराष्ट्र की ओर अब तो अन्याय पूर्ण मुल्ला संस्कृति को जड़मूल से उखाड़ ही फेकना होगा। हिन्दू चिन्तन की सामासिकता कोई कालजयी राष्ट्र पुरुष देश का भविष्य रचने के लिये उभार कर सामने लायेगी। असमर्थ तो यह कर नहीं सकते पर सम्भवत : समर्थ राम दास महाराष्ट्र की चेतना में पुन : नव चेतना का सन्चार कर दें।
पटाक्षेप .......दूर से गूँजती कविता की पंक्तियाँ " शिवा जो न होतो सुन्नत हॉट सबकी ।"
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