Thursday, 4 April 2013

केंचुल निस्तरण

                                                                  केंचुल निस्तरण

                              गोस्वामी तुलसीदास निसंदेह हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि  हैं और यद्यपि वात्सल्य चित्रण के क्षेत्र में सूरदास उनसे बाजी मार ले जाते हैं पर सब मिलाकर समग्रता के सन्दर्भ में तुलसी की श्रेष्ठता पर प्रश्न चिन्ह लगाना मुश्किल हो जाता है।
                 "सूर -सूर , तुलसी शशी उदगुण  केशवदास " की  कहावत ऐतिहासिक कालक्रम में सही कही जा सकती है पर साहित्यिक गौरव के सम्बन्ध में इस पंक्ति को यदि इस प्रकार लिखा जाय तो भी अनुचित न होगा।  "सूर -शशी तुलसी रवी उदगुण  केशवदास "
                     पर इस लेख का विषय तुलसी के काब्य के महत्त्व या रामायण में अभिब्यक्त उनकी अप्रतिम भक्ति भावना से सम्बंधित नहीं है। यहाँ हम इस बात पर विचार करना चाहेंगे कि तुलसी का सामाजिक चिन्तन अपने समकालिक और परम्परा से पाये हुए मूल्यों से ही नियन्त्रित होता था। वे भक्ति मार्ग के द्वारा आत्म शान्ति और मोक्ष का मार्ग सुझा पाने में भले ही सक्षम रहे हों पर पुरुष और नारी के सम्बन्ध में उनकी धारणायें मध्य काल की भ्रामक मान्यताओं से ऊपर नहीं उठ पायीं थीं। सच तो यह है कि कोई भी कवि या शब्दकार अपने युग में बड़ा नहीं होता और काल का प्रत्येक युग नये चिन्तन ,नयी तकनीकी खोजों और नयी जैविक उपलब्धियों से प्रभावित होता रहता है। जब तक अश्व ही सबसे द्रुतगामी साधन थे तब तक कुशल अश्वारोही ही सेना नायक ,विजेता और सम्राट बनते थे। तब से लेकर आज तक मानव मस्तिष्क  ने जाने कितनी अपार संभावनायें तलाश कर ली हैं। चील के बड़े -बड़े डैने फैलाये हवाईजहाज अब नयी पीढ़ी के लिये रोज के खिलौने हैं और अन्तरिक्ष के आर -पार की सैर किस्से कहानियों से हटकर वास्तिविकता के धरातल पर आ खड़ी हुयी हैं। विष्णु और शिव दोनों की शक्तियां तो अब मानव के पास हैं ही और ब्रम्हा जी की नया जीवन उत्पन्न करने वाली शक्ति भी उसके पास आ पहुची है। थोड़ी बहुत कसर यदि कहीं रह गयी है तो उसे एक -दो दशक की छलांगें अपने घेरे में ले लेंगी। हम यह कहना चाहते हैं कि हमारे सामाजिक मूल्य भी परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरते है और बीते कल में जो मान्य था वह आज भी मान्य हो ऐसा आवश्यक नहीं है। यह तो ठीक है कि पीड़ितों की मदत करना मानवता का एक अमिट पहलू है पर पीड़ित किसे कहते हैं इसकी पहचान करने के लिए अपने -अपने विशिष्ट क्षेत्रों ,राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को पृष्टभूमि में रखना होगा। अब नर नारी के सम्बन्धों को ही लें। तुलसी के राम जगत जननी सीता के प्यार में सदैव डूबे रहे पर जहां कहीं यह प्यार उन्हें सामाज स्वीकृत मूल्यों से टकराता हुआ दिखलायी पड़ा वहाँ उन्होंने नाटकीय मुद्रायें अपनायी और बहुसंख्यक समाज को अपने साथ रखा। आज  का प्रखर बुद्धजीवी इसे राम के चरित्र में सामाजिक विरोध झेलने के साहस की कमी मानता है पर भारत का सामान्य भक्त जन इसे एक सर्वथा उचित सामाजिक कदम मान कर स्वीकार करता है। स्वतन्त्र भारत में जिस संविधान को भारत की जनता ने स्वीकार किया है उसमें नर और नारी दोनों में कोई अन्तर नहीं है।वे  दोनों ही मानवीय आकृतियाँ हैं और उनकी शरीर रचना का अन्तर  प्रकृति की अनिवार्यता है । जिसके बिना मानव श्रष्टि का विस्तार नहीं हो सकता । सर्वथा समान पद और गौरव की अधिकारिणी नारी नर से उसी वफादारी ,प्रेम ,देखरेख और सेवा की मांग करती है जो माँग बहुत लम्बे अरसे से केवल पुरुष वर्ग के अधिकार क्षेत्र में रही है। आइये हम आपको तुलसीदास के राम चरित मानस के तृतीय सोपान अरण्य काण्ड में ले चलें राम और लक्ष्मण दोनों भाई सीता जी के साथ ऋषि अत्रि के आश्रम में आ पहुचे। अत्रि ऋषि नें ईश्वरा अवतार राम की पूजा वन्दना  की। सीताजी नें अनुसुइया के पैर छूकर आशीर्वाद माँगा और साथ ही नारी धर्म के विषय में उनके द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव की कुछ सीख। अनुसुइया जी नें जो  बांते सीता जी से कहीं उन्हें आज के संविधान में समानता का हक़ पायी हुयी नारी स्वीकार कर सकेगी या नहीं? ऊँचे और अर्धशिक्षित परिवारों में कानूनी ढंग से वैध तलाक भी समाज -स्वीकृत आचार है और उसे कोई हेय द्रष्टि से नहीं देखता । विदेशों में तो न -जाने कितने तलाक लेने के बाद भी नारी प्रसिद्ध के चरम शिखर पर पहुचती है और अपनी सेक्सुअल अपील का डंका बजवाने में समर्थ होती है । पतिव्रता नारी के सम्बन्ध में अनुसुइया जी ने सीता जी को जो शिक्षा दी वह नीचे लिखी गयी चौपाइयों में देखी जा सकती है ।
वृद्ध  रोग बस जड़ धन हीना । अन्ध वधिर -क्रोधी अति दीना ॥
ऐसेहु पति कर किये अपमाना। नारी पाव जमपुर दुःख नाना ॥
एकई धर्म एक वृत नेमा। कायं वचन मन पति पद प्रेमा ॥
जग पतिव्रता चारि विधि अहिहीं । वेद पुराण संत सब कहहीं ॥
उत्तम के असवस मन मांहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीँ ॥
मध्यम परिपति देखई कैसे। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे ॥
धर्म विचारि समुझि कुल रहई । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥
बिनु अवसर भयते रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई ॥
पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई ॥
छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुःख न समुझ तेहि समको खोटी ॥
(रामचरित मानस मूल गुटका प्रष्ठ ४०९  /४१० )
                    उपरोक्त पंक्तियों में जो पतिव्रत धर्म व्याख्याइत है वह आज के बन्धन मुक्त नर -नारी सम्बन्धों में कितना सार्थक होगा इसका आँकलन पाठक स्वयं ही अपने अनुभव के आधार पर कर पायेंगे और मेरे पाठक शब्द में पाठिकाएँ भी सम्मलित हैं क्योंकि मैं 'पाठक' को उभयलिगी अर्थों में प्रयुक्त कर रहा हूँ। आइये ऊपर लिखित पंक्तियों में से पहली पंक्ति को लें। किशोरी व युवा स्त्री को बृद्ध पति देकर कोई भी समाज अपने पर गर्व नहीं कर सकता। जड़ यानि मूर्ख, प्राणघातक रोग से ग्रसित ,अंधे और बहरे पति को पाकर जिस समाज की नारी अपने को धन्य समझती है उस समाज के उत्थान की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अगली पंक्तियों में जो कुछ कहा गया है वह तभी स्वीकार्य है जब ये सभी बातें पुरुष वर्ग के सम्बन्ध में भी लागू की जायें । अन्तिम पंक्ति में एक क्षणिक सुख के लिये १०० कोटि जन्मों के बर्बाद होने की जो बात कही गयी है उसे एक महिमा मंडित अंध विश्वाश के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। परस्पर मैत्री और एक -दूसरे  के प्रति सामान आदर और समझौता भाव इन्हीं के आधार पर नर -नारी के सम्बधों की व्याख्या होनी चाहिये। पुरुष प्रधान समाज यदि अपनी सोच नहीं बदलता और नारी से ही प्यार के नाम पर गुलामी और धीमें पदों आने वाली मौत की मांग करता है तो इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है ।
                       अमेरिकन लेखिका Betty Friedan जिन्होंने "The Feminine Mystique " नामक किताब लिखी थी जिसने बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़ दिये थे १ ९६९ में शिकागो में कहा था कि पति की गुलामी तो यन्त्रणा है ही पर उससे बड़ी यन्त्रणा है, अनचाहे माँ बनने का बोझ वहन करना। उनके शब्द नीच उद्धत किये जाते हैं।
                                    " Motherhood is a bane almost by definition or at least partly so, as long as women are forced to be mothers-and only mothers-against their  will . Like   a cancer cell living its life through another cell women today are forced to live too much through their children and husbands.  Like all oppressed people,women have been taking their violence out on their own bodies,in all the maladies with which  they plague the MDs and the Psychoanalysts."
                                          महाकवि तुलसी दास हिन्दी भाषा भाषियों के लिये अपने काल में एक दिब्य वरदान बन कर आये थे।  रामायण की कथा आज भी अपने पात्रो की जीवन्तता के बल पर भारतीय समाज के लिये पथ प्रदर्शन का कार्य करती है । पर, हम यत्र -तत्र बिखरी शिक्षाओं और सन्देशों में कुछ ऐसी बातें हैं जो मुगल कालीन भारत में भले ही सार्थक रही हों पर धर्म निरपेक्ष , सार्वभौम सम्पन्न नर -नारी समानता मूलक आधारों पर निर्मित संविधान संचालित आज के भारत में उनका कोई औचित्य नहीं दिखायी पड़ता। मानव चिन्तन को कभी भी किसी कटघरे में  बन्द नहीं करना चाहिये और मोक्ष या मुक्ति के नाम पर भरपूर स्वस्थ्य सामाजिक जीवन बिताने को मिथ्या की दौड़ कहकर नहीं पुकारना चाहिये। आखिरकार सारी राजनीतिक उलट -पुलट और सत्ता प्राप्ति  तथा प्रशासन सुधार का लक्ष्य क्या है। विश्व के प्रत्येक  मनुष्य को जीवन की वो सभी सुविधायें  प्रदान करना जो उपलब्ध तकनीकी विकास के द्वारा और अर्जित सम्पत्ति  के न्याय पूर्ण बटवारे के द्वारा सुलभ करायी जा सकती हैं। धरती पर  जिया हुआ यही जीवन  धरती का मोक्ष है । म्रत्यु के बाद स्वर्ग या बैकुण्ठ की प्राप्ति व्यक्तिगत विश्वाश की अन्तर्मुखी उड़ान है। उसे सब तक किन्ही भी साधनों से सुलभ नहीं कराया जा सकता। हिन्दी के विचार शील समर्थ नये कवियों नें नारी को सच्चे मानवीय सन्दर्भों में देखा परखा है तभी तो सुमित्रानन्दन पन्त कहते हैं :-
" योनि नहीं है रे नारी ! वह भी मानवी प्रतिष्ठित ,
उसे पूर्ण   स्वाधीन करो ,वह रहे न नर पर अवसित "
और राम धारी सिंह दिनकर नें उर्वशी में नारी के सम्बन्ध में पुरुखा द्वारा यह कहलाया है ," और देवि ! जिन दिब्य गुणों को मानवता कहते हैं। उसके भी अत्यधिक निकट नर नहीं मात्र नारी है ॥"
                       हम स्वीकार करते हैं कि काब्य ,भक्ति ,आचरण ,पवित्रता ,संस्कृति और औपनिषदिक ज्ञान में हम गोस्वामी तुलसीदास की जूठन उठाने के काबिल भी नहीं हैं  । पर नारी स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में  गोस्वामी जी अपने युग से ऊपर उठ कर भविष्य द्रष्टा नहीं बन सके हैं। मध्य युग का समाज चिन्तन उन्हें नारी को एक सर्वथा स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में देखने की इजाजत नहीं देता। गोस्वामी जी अपने समय के चिन्तन को भी मर्यादा मान कर स्वीकार कर लेते हैं। वे चाहते तो उसे ललकार कर नर -नारी सम्बन्ध का नया मार्ग भी सुझा सकते थे।  महापुरुष राम और महामाया सीताजी के सम्बन्धों में  उन्होंने एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया है पर समाज के सामान्य वर्ग के लिये उन्होंने प्रचलित वर्जनाओं को ही स्वीकृति दी है। हिन्दी के इस महानतम कवि का निधन १ ६ २ ३  में स्वीकार किया जाता है। कहते हैं श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को महाकवि के प्राणों की दिब्य ज्योति परम ज्योति में विलीन हुयी थी। आज ३ ८ ९  वर्ष बाद उनसे पाये हुये ज्ञान ने ही हमें यह शक्ति दी है कि हम उनके द्वारा कही गयी कुछ बातों  पर पुनर्र -विचार कर उन्हें आज के युगीन सन्दर्भों में सार्थक बनाने का प्रयास करें। हमें विश्वास है कि उनकी कृपा का ईश्वरीय वैभव हमें क्षमां का आँचल प्रदान करेगा। महाकवि को शत शत नमन ।              

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