Wednesday, 3 April 2013

क्षीरेश्वर के आँचल में

                                                                    क्षीरेश्वर के आँचल में

                        चिदानन्द ढूढ़िया के साथ लक्ष्यहीन भटकने का मैं भी आदी हो गया हूँ। चिदानन्द जी तो चिर अन्वेषक हैं और चिर नवीनता की तलाश करते हैं तभी तो उन्होंने अपने नाम के साथ ढूढ़िया जोड़ रखा है। और मैं उनका साथ देकर भी जहाँ कहीँ पहुचता हूँ वहाँ पहुच कर उस स्थान ,तीर्थ या प्रकृति स्थल के अतीत में झाँकने की कोशिश करता हूँ। उस बार जब वे मुझे कानपुर देहात जनपद में शिवराजपुर स्टेशन से उतार कर कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित खेरेश्वर मंदिर में ले गये तो संध्या हो चुकी थी। यह तो कहिये कि खेरेश्वर में ढूढ़िया जी के कई मित्र पुजारियों की छोटी -मोटी धर्मशालायें हैं इसलिए वहाँ भोजन और विश्राम कर रात्रि काट लेने का प्रबन्ध है। ऐसा न होता तो उस देर शाम लौटने की विकट समस्या खडी हो जाती। पर अच्छा ही रहा कि मैं उस रात को अकेले उस कमरे में सो गया जो मेरे लिए ढूढ़िया जी ने सुनिश्चित करवा दिया था। चिदानन्द जी अन्य  किसी मित्र के परिवार सदस्य के रूप में मुझसे रात्रि भर के लिए विदा मांग कर चले गए थे।
                           मैं खेरेश्वर के मंदिर में शिवलिंग पर गंगा जल की शीतलता देकर नतमस्तक होकर कमरे में विश्राम करने आया था। मन्दिर के पुजारी ने मुझे बताया था कि खेरेश्वर का शुद्ध नाम क्षीरेश्वर है क्योंकि क्षीर यानि दूध की ही धार डालकर यहाँ शिवलिंग को शीतलता प्रदान की जाती है । साथ ही उसने यह भी बताया था कि प्रत्येक सुबह सूर्योदय से काफी पहले अचानक मन्दिर की घंटी बज उठती है न जाने कैसे मन्दिर का द्वार   खुल जाता है। और कोई विशाल आकृति का छाया पुरुष शिवलिंग को दूध से नहला जाता है। पुजारी ने कहा कई बार मैंने देखने की कोशिश की है पर कोई अलौकिक कौंध मेरी आँखों को बंद कर देती है वह छाया वहां से पलक मारते ही लुप्त हो जाती है। उसने कहा कि यहाँ के लोगों का ऐसा विश्वाश है कि अश्व्थामा महाभारत काल से लेकर आज तक इस स्थान पर आते रहे हैं और शिवलिंग को दूध स्नान कराते रहें हैं। मैंने आश्चर्य से पुजारी से पूंछा था कि महाभारत काल को तो हजारों वर्ष हो गये फिर अश्व्थामा अभी तक कैसे जीवित है तो उसने कहा था," अरे आप इतना भी नहीं जानते अश्वथामा अमर है। युद्ध की अन्तिम रात्रि को कृत वर्मा के साथ जाकर कैम्प में सोये हुये द्रोपदी के पाँचों पुत्रों को भ्रम वश पांडव समझ कर ह्त्या कर दी गयी थी। अश्वथामा के शिव भक्त होने के कारण ही कैंम्प में पहरा दे रहे त्रिशूलधारी शिव ने उन्हें अन्दर जाने दिया था। दण्ड के फलस्वरूप द्रोपदी के कहने पर गांडीवधारी अर्जुन नें अश्वथामा को विवश कर द्रोपदी के समक्ष उपस्थित किया था। पर गुरु पुत्र होने के नाते चक्रधारी कृष्ण ने उसे निर्वासित कर पाण्डव साम्राज्य की सीमा से बाहर जाने का सुझाव दिया था। हाँ उसके माथे की गौरव मणि अवश्य निकाल ली गयी थी  ताकि वह निस्तेज हो जाय। द्रोपदी नें भगवान् श्री कृष्ण से कहकर एक ऐसा वर दिला दिया था जो शाप से भी अधिक भयानक था। कृष्ण ने कहा था तू कभी मरेगा नहीं इसलिए ताकि युगों -युगों तक जीवित रह कर पश्चाताप की अग्नि में जलता रहे।तब अश्वथामा नें कृष्ण से यह याचना की थी कि जीवन से उसकी मुक्ति कैसे सम्भव होगी\ जो पाप उसके हांथों हुआ था वह अन्जाने में हुआ था। दुर्योधन की मित्रता उसे दुर्योधन के शत्रु पाण्डव को मार देने का सामरिक अधिकार तो देती थी  पर पाण्डव पुत्र तो कुरुवंश की सम्पत्ति थे उन्हें मारकर वह आत्मग्लानि से जी जी कर भी मरता रहा है । देवकीनंन्दन ने तब उसे यह कहकर आश्वस्त किया था कि वह किसी सुरम्य स्थल पर गंगा के किनारे किसी शिव मन्दिर में नित प्रात : भगवान शिव के लिंग को क्षीर से नहलाता रहे। जब कभी त्रिलोकेश्वर शिव सम्पूर्ण रूप से प्रसन्न हो जायेंगे उसी दिन तुझे शरीर के बंधन से मुक्ति मिल जायगी ।"  हजारों वर्ष बीत गये हैं  पर अश्वथामा का नित्य कर्म अभी भी उसी ढंग से चल रहा है। बताते हैं कि    भगवान श्री कृष्ण नें यह भी कहा था कि धीरे -धीरे तुम्हारे माथे की मणि जिसका प्रकाश छीन लिया गया है फिर से ज्योतित हो जायेगी। और जब यह प्रकाश पूर्ण रूप से वापस हो जायेगा तो भगवान् शिव तुम्हे देवलोक में जाने की अनुमति दे देंगे। पुजारी ने आगे कहा था कि शायद जो प्रकाश मेरी आँखों को चौंधिया देता है वह अश्वतथामा के माथे की मणिका ही है। जान पड़ता है कि अब  द्रोंण पुत्र का देवलोक में जाने का समय आ गया है। मैंने कहा ," मैं सुबह चार बजे से पहले ही तुम्हारे पास बाहर के कक्ष में आ जाऊँगा। मैं स्वयं देखना चाहता हूँ कि घन्टियां अपने आप बज जाती हैं और दरवाज़ा अपने आप खुल जाता है यह सब स्वाभाविक रूप से होता है या इसके पीछे कोई पुरुष योजना है ।" पुजारी ने कहा था आप जैसे और भी कितने अविश्वासी यहाँ आ चुके हैं और अन्त  में महाकालेश्वर त्रिनेत्र भगवान शिव के प्रति शिवलिंग के सामने दण्डवत लेटकर अपने शंकालु स्वभाव के लिये क्षमां याचना कर चुके हैं । तुम आना ही चाहो तो कल सुबह आ जाना ४ बजे से पहले। तुम पास ही की धर्मशाला के ख़ास कमरे में तो हो। थोड़ी ही दूर तो है । मैं मन्दिर की बाहरी दालान में ही सोता हूँ। मैं अगली सुबह मंदिर में गया या नहीं गया। इस बात का उल्लेख करना यहाँ मुझे प्रासगित नहीं लगता। जिस बात का मैं उल्लेख  करना चाहता हूँ वह यह है कि उसी रात अपने कमरे में मेरी द्रोंण -पुत्र अश्व्थ्थामा से मुलाक़ात हो गयी।
                            हुआ यों कि मैं लगभग रात्रि १० बजे अपने कमरे में आकर तख़्त पर लेट गया। तख़्त पर दरी बिछी थी और सिरहाने के लिये एक तकिया रखा हुआ था। थका मादा था ही पुजारी की बातों को मन ही मन तौलता हुआ मैं  न जाने कब निद्रा की गोद में चला गया । निद्रा गहरी होती चली गयी और मुझे लगा कि मैं सुबह होने से  पहले ही उठकर उठकर मन्दिर की ओर जा रहा हूँ। अचानक पास बहती गंगा में छ्प -छप की आवाज़ हुई। लगा जैसे कोई ६. ५ -७ फीट का विशालकाय गौर वर्ण पुरुष ताँबे के एक सुराही दार लोटे में कुछ लिये हुये मन्दिर की और बढ़ रहा है। मैंने उसे देखते ही प्रणाम किया तो उसने  मुँह से कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं सका। शायद कोई आशीष वचन कहे हों। नजदीक से मैंने देखा कि तांम्बे के पात्र में ऊपर तक दूध भरा हुआ  था उस महाकाय पुरुष की पूरी आकृति मुझे दिखाई नहीं पड़  रही थी पर उसके अत्यन्त गौर वर्ण की झलक अंधियारे में हल्की सी चमक पैदा कर रही थी। मैंने सोचा कि द्रोंण पुत्र अश्वथामा से मन्दिर में मुलाक़ात करने के बजाय अगर रास्ते में ही बात -चीत कर ली जाय तो शायद मुझे कोई दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो  सके। मैंने कहा ,"हे महापुरुष ,क्या तुम अश्व्थामा हो। उस महाकाया ने अपना सिर  स्वीकृति में हिलाया। हो सकता है यह मेरा अनुमान मात्र ही हो। मैंने आगे कहा ,"आप महाभारत काल से अब तक सहस्त्रों की जीवन यात्रा में अभी तक थके नहीं हैं ? उस महाआकृति नें वायु में कुछ ध्वनियाँ की उन ध्वनियों से मुझे यह लगा कि वह लौकिक संस्कृति की ध्वनियाँ हैं । पहले तो वह ध्वनियाँ मेरी समझ में नहीं आयीं फिर उनका अर्थ मेरे निकट स्पष्ट से स्पष्टतर होता चला गया। उस महाकाय  धवल नर छाया नें कहा ," म्रत्यु उसी का वरण करती है ,हे जिज्ञासु ,जिसे जीवित देखती है। मैं तो महाभारत के अन्तिम पटाक्षेप के साथ ही मर चुका हूँ।"
                                        मेरी अमरता तो ब्राम्हणत्व की अमरता है क्योंकि ब्रम्हं कभी मरता नहीं है। और ब्रम्ह और शिव का अनन्य सम्बन्ध है क्योंकि शिवलिंग के माध्यम से ही ब्रम्हा अपनी स्रष्टि योजना पूरी कर पाते हैं । लिंग पर क्षीर स्नान तो एक प्रतीतात्मक क्रिया है । "
                                        लौकिक संस्कृत में कही हुई उस महाकाया की बातों का मैं गलत सही हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहां हूँ। अब चूंकि अश्वत्थामा जी ने मेरे प्रश्नों का उत्तर देना प्रारम्भ कर दिया था इसलिए मेरा साहस और बढ़ गया मैंने डरते डरते पूंछा ,"क्या मैं आपको स्पर्श कर सकता हूँ ?
                                          छाया बोली ,"हे जिज्ञासु क्या तुम अपनी छाया का स्पर्श कर सकते हो?चूंकि तुम हो इसलिए छाया है। अश्वत्थामा है तभी तो उसकी छाया तुम्हे दिख रही है। हे जिज्ञासु जीवन की  थकान में एक मधुर मिठास होती है। पर म्रत्यु की थकान में अहसास शून्यता होती है। ये आश्चर्य में डालने वाला विरोधाभाष है कि मानव जीवन की थकान मिटाने के लिए मरना चाहता है और मरने की शून्यता भरने के लिए जीना चाहता है। मेरी त्रासदी देखो जिज्ञासु मैं न मर रहा हूँ और न जी रहा हूँ । मैं शिवलिंग को नित्य प्रति क्षीर स्नान कराता हूँ कि वे जन्म और म्रत्यु के अंतराल में फँसे मेरे निष्क्रिय  जीवन या तो फिर किसी महाभारत में लगावें या फिर मेरे मित्र दुर्योधन की भाँति मुझे भी चिर निद्रा में सुला दें। पर मैं गुरु द्रोंण का पुत्र हूँ। गुरु पुत्र तो हूँ ही साथ में ब्राम्हण पुत्र भी हूँ। परम्परागत पाये हुए इन दोनों मर्यादाओं का बोझ मुझे उठाना हे पड़ेगा। हे जिज्ञासु तुम नही  होगे तब अगली पीढ़ी के खोजी इसी प्रकार के प्रश्नों के उत्तरों की तलाश करते रहेंगे। यह पुजारी नहीं होगा तो इसकी अगली पीढियां और फिर अगली पीढ़ियाँ निरन्तर मेरे द्वारा शिवलिंग के क्षीर स्नान को कराये जाने वालों को देखते रहेंगे। हे जिज्ञासु तुम जानते हो परम्परा किसे कहते हैं। अब मैं घबडाया। अभी तक मैं प्रश्न करता था पर अब प्रश्न मुझसे किया गया। मैंने अपनी सामान्य बुद्धि से उत्तर दिया ,"परम्परा पुराने जमाने से चले आने वाली सामाजिक रिवाज़ों और विश्वासों को मानकर चलने की रीति को कहते हैं । " अश्वत्थामा जी बोले हे जिज्ञासु पुराने से तुम क्या समझते  हो  । क्या पुरातन है और क्या नूतन है ?हर नूतन भूत से आकर भविष्य की ओर जाता है ,तुम नूतन शब्द का इस्तेमाल क्या वर्तमान के सम्बन्ध में कर रहे हो मैंने सोचा कि कहाँ फँस गया ?द्रोंण पुत्र अश्वत्थामा न केवल महारथी हैं बल्कि गुरुपुत्र हैं उनसे तर्क करना सामान्य मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर की बात है। अत : मैंने कहा ,"हे ब्रम्ह श्रेष्ठ मैं काल की विशेष व्याख्या नहीं जानता। आपके ज्ञान से लाभान्वित होना चाहूँगा।
                                        मुझे लगा कि वह लम्बी गौर आकृति कुछ मुस्करायी ,धुधलके में उजले कण से तिरते दिखायी दिये। हो सकता है यह मेरा भ्रम हो वह महाकाया आकृति बोली ," हे जिज्ञासु जीवन के सबसे बड़े रहस्य को मैंने तब जाना जब वासुदेव कृष्ण ने मुझे बचाकर अमर होने का वरदान दे दिया। अरे जिज्ञासु कौन्तेय को युद्ध में प्रवृत्त करने वाला वह वेणु वादक गोपाल निश्चय ही आदि श्रष्टि से लेकर आज तक के जीवन ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ है , वह स्वयं चाहता तो अमरत्व उसकी मुट्ठी में था पर जब जीवन की उपयोगिता समाप्त हो जाय तब उसे बनाये रखने की कामना पीब भरे वण  को सहेजने जैसी है । यदि धनन्जय मुझे म्रत्यु दण्ड दे देते तो महाभारत की कहानी अपनी सम्पूर्ण समाप्ति को प्राप्त हो जाती। पर उस चक्रधारी नें तो मुझे इतनी अपार पीड़ा दी है कि जो शूली की नोक पर लटकाये उस दण्डित को मिलती है जो नोंक से मरने के पहले उतार लिया जाता है और फिर कुछ ठीक होने पर शूली की नोंक पर टाँग दिया जाता है। मैंने कुछ और हिम्मत बाँधी  सोचा कुछ पण्डित कुछ अन्य अमर लोंगों की गाथाएँ गाते रहते हैं। शुकदेव जी तो हैं हीं पर कुछ अल्हैडी आल्हा के अमर होने की बात भी कहते हैं। और फिर पवन पुत्र हनुमान की अमरता तो सब मान कर ही चलते है।  मैंने कहा गुरुपुत्र आपने मुझे एक नयी द्रष्टि दी है। आप की इस बात को मैं गाँठ में बाँध कर रखूँगा कि जब जीवन समाज के लिये उपयोगी न रह जाय तो उसको बनाये रखने की कामना एक मानसिक अपंगता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है पर आप अब शायद जाना चाहते हैं क्योंकि शिवलिंग को दुग्ध स्नान करा देने की घड़ी आ गयी है। जाते जाते इतना बताते जाइये कि क्या आपको उन अमर पुरुषों का सानिध्य मिल सका है जो भारत की जनश्रुतियों और पण्डितों की कथाओं में सदैव शरीर धारण किये रहेंगे। द्रोण पुत्र नें आवेश में हाथ उठाया। शायद बायाँ हाथ क्योंकि  दाहिने में तो दुग्ध पात्र था। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बायीं ओर का अन्धकार हटता हुआ सा दिखायी पड़ा । बोले हे जिज्ञासु एक बार तुम्हारे मित्र चिदानन्द दूढ़िया ने भी मुझसे रात्रि के अन्तिम पहर में मुलाक़ात करके यही प्रश्न पूछा था ,मैंने जो उत्तर उसको दिया था वही उत्तर आज फिर दोहराता हूँ। हे जिज्ञासु जो जन्मा है उसे मरना ही चाहिए। नारी के उदर  में निर्मित कोई भी मानव काया अमरत्व नहीं पाती। सौ वर्ष की आयु सीमा के आस पास वह स्वयं ही जीवन की थकान मिटाने के लिए म्रत्यु की कामना करता है  , तुम्हारे बताये हुए कथा कहानियों के अमर लोग यदि मेरी ही तरह नारी जन्मा होंगे तो जो अमरत्व वह भोग रहें हैं वह वरदान न होकर अभिशाप होगा। मुझे भी एक बार मर जाने दो और उन सब को भी। फिर नए सिरे से नये गुणों और युग मूल्यों से सुसज्जित कर युगानुकूल भेष भूषा में मुझे जीवित कर दो, ऐसा कर सकोगे तभी जीवन के नये महाभारत में हम धर्म पक्ष का साथ देंगे। पवन पुत्र तो सदा धर्म के साथ थे ही वे तो श्री राम के साथ रहेंगे ही। शुकदेव जी तो सनातन सत्यों का प्रचार करते थे और करते ही रहेंगे पर मुझ अश्वत्थामा को तो एक बार श्री कृष्ण के साथ खड़ा होने दो अपने पिता द्रोण की भूल का भी तो मुझे प्रायश्चित्त करना है यद्यपि उनकी भूल का मूल कारण पितामह के प्रति उनकी श्रध्दा थी। अच्छा जिज्ञासु यह मिलन मुझे काफी उत्तेजक लगा। फिर न जाने क्या हुआ हल्का सा प्रकाश छा गया शायद उषा का प्रकाश था। दरवाज़े के बाहर से किसी ने पुकारा अरे श्वेतकेश सोते ही रहोगे सुबह हो गयी। मेरी आँख खुल गयी जान गया चिदानन्द दूढ़िया दरवाजे के बाहर खड़े हैं। यह उन्हीं की पुकार थी। आखिर उन्होंने मुझे क्षीरेश्वर में आने वाले महाभारत के महापात्र द्रोंण पुत्र अश्वत्थामा से मुलाक़ात करवा ही दी तो क्या मैं स्वप्न देख रहा था स्वयं अपने ही व्यक्तित्व के ,अपनी ही चेतना के दो विभाजित अंगों के बातचीत में लगा था ,मनोविज्ञान ही इसका उत्तर दे  सकेगा ।
             



                                

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