Sunday, 31 March 2013

काम से राम तक

                                                                     काम से राम तक

                  अर्ध रात्रि का गहन अन्धकार। मेघाच्छादित गगन, हल्की फुहारों की अविरल वृष्टि। एक दुमंजिले मकान की बाहरी दीवाल से ऊपर चढ़ते किसी पुष्ट व्यक्ति की धुँधली झलक। एक उछाल के साथ छज्जा लाँघकर अंतर प्रविष्टि। छज्जे की ओर खुलते एक कक्ष के काष्ठ द्वार पर हल्की सी थपक। भीतर से किसी नारी कंठ का मधुर स्वर। कौन है ?बासन्ती है क्या ?अभी तक सोयी नहीं ।
                                    उत्तर में धीमी दबी हुई आवाज में हुआ एक पुरुष स्वर। मैं हूँ रत्ने । राम बोला । काष्ठ पट खुल जाते हैं । नवयुवक पति को द्वार पर देखकर रत्नावली विस्मित हो जाती है । आप अर्धरात्रि को जी ,भयावह वर्षा के बीच।  बिना पूर्व सूचना के ! हाय किसी ने देख तो नहीं लिया ।

युवा तुलसी :-रत्ने मैं तुम्हारा पति हूँ ,किसी नें देख भी लिया हो तो क्या ?मैं तुम्हारा वियोग सहन नहीं कर सका । तुन बिना बताये भाई के साथ अपने घर चली आयीं । मैं जब हाट से पाक सामग्री लेकर गृह वापस पहुँचा तो द्वार अर्गला वद्ध था। पड़ोसी राम नयन नें बताया कि तुम भाई के साथ पितृ गृह चली गयी हो  और कह गयी हो कि वापस आने में कुछ दिन लग जायेंगे ।
रत्ना :- तो  आपने मेरे पितृ गृह में आने को सहज भाव में क्यों नहीं लिया ?इतनी उतावली क्यों कर डाली ? लाज ,मर्यादा भी तो कोई चीज होती है । आखिर घर में भाई -भाभी और बच्चे हैं और छोटी ननद बासन्ती है । आज बड़ी देर रात तक मेरे   ही पास तो बैठी थी। उसका पाणिग्रहण सुनिश्चित हो गया है ।  इसी सम्बन्ध में मेरे अग्रज प्रियम्बद मुझे ले आये हैं । मैं तो समझी थी वासन्ती ही दुबारा फिर से मेरे कक्ष में आना चाहती है। भविष्य की अनदेखी झांकियाँ उसके मष्तिष्क में अशान्ति पैदा कर रहीं हैं ।

युवा तुलसी :-प्रात :वासन्ती से भी मिलूँगा और प्रियम्बद जी को भी प्रणाम करूँगा। अब तो मुझे अन्दर कक्ष में बैठने की आज्ञा दो ।तुम नहीं जानती मैं कैसे उफनती हुयी जलधाराओं को चीर कर सर्पिल रज्जु के सहारे दीवार लांघकर तुम तक आया हूँ ।

रत्ना :-न जाने क्यों  आपके इस  समय अनाहूत आ जाने से मेरे ह्रदय में प्रसन्नता का भाव नहीं उठ रहा है। आप मेरी शैय्या  पर बैठ लें ,मैं भूमि पर आसनी लगा कर बैठ लेती हूँ । दीप की बाती को उकसा कर फिर से प्रज्वलित कर लेती हूँ । अभी -अभी ही तो लौ को आँचल से बुझाया था।

युवा तुलसी :-प्रिये ,अब दीप प्रज्वलित करने की क्या आवश्यकता है । आओ हम दोनो शैय्या पर बैठ -लेट कर प्रेमालाप करें। दीप का धीमा प्रकाश भी नीचे के कक्ष तक मेरे आने की सूचना पहुँचा देगा और बगल के कमरे में वासन्ती तो अभी जग ही रही होगी। अन्धकार का आवरण ओढ़कर हम दोनों प्रेमी युगल शैय्या पर विश्राम करें यही इस समय उचित होगा । रत्ने मेरी उतावली के लिये मुझे क्षमा नहीं करोगी ?

रत्नावली :-आपको अपने जीवन में पाकर मैं धन्य हो गयी थी। आपकी विद्वता की चर्चा आस -पास के किस घर तक नहीं पहुची है पर हे प्रिय आज मुझे लग रहा है कि जैसे आपकी सारी विद्वता जैसे निरर्थक है। मानव सभ्यता इसीलिये संभ्भव हो सकी है कि मानव नें अपनी वासनाओं पर सयंम करना सीखा है । शैय्या पर रमण केलि करने की आपकी आकांक्षा पशु वृत्ति से परिचालित है\ मुझे बाती उकसा कर प्रज्वलित करने दीजिये जो कोई आएगा आ  जायेगा। ससुर गृह में आपका मर्यादा के अनुसार स्वागत सत्कार होना ही चाहिये।

युवा तुलसी :-प्रिये ,मैं किसी स्वागत ,सत्कार के लिये नहीं आया हूँ । तुम्हारे  विक्षोह में न जाने क्यों अपना सारा जीवन निरर्थक लगता है। तुम मेरे पास होती हो तो वायु सुगन्ध से भर जाती है ,तुम्हे अपनी बाँहों में भरकर मुझे ब्रम्ह सुख का अनुभव होता है। तुम्हारे नयन तारों में मुझे अगणित आकाश गंगाओं का प्रकाश झलकता दिखायी पड़ता है । मेरी सारी विद्वता   तुम्हारे रूप के द्वार पर सर मार -मार कर पछाड़ जाती है । इस बीच रत्ना बाती को उकेर कर प्रकाशवान कर देती है। हल्का सा प्रकाश काष्ठ पटों की सन्धि से बाहर झलकने लगता है। बगल में बने सटे कक्ष से शैय्या से उठकर बैठने और फिर पट खोलकर बाहर आने की क्रिया में उत्पन्न वायु ध्वनियाँ रत्ना तक पहुँचती हैं। युवा तुलसी को वह सचेत करती है।

रत्ना :-वासन्ती आ रही है । सहज हो जाइये, अपनी प्रगल्भता पर सयंम करिये । मैं कहीं भगी नहीं जा रहीं हूँ । सदैव आपके पास ही रहूँगी। मैं जानती हूँ कि आप मुझे उतनी ही तीब्रता से प्यार करते हैं जितनी तीब्रता से श्री राम जनक पुत्री को चाहते थे । वासन्ती द्वार पर थपकी देती है। हल्के धक्के से द्वार खुल जाता है। धीमें प्रकाश में युवा तुलसी को शैय्या पर बैठते देखती है।बहन रत्ना नीचे आसनी पर द्वार की ओर मुख किये बैठी है ।

वासन्ती:-अरे वाह जीजा जी आप इतनी रात को ? क्या पुष्पक विमान से आ गये। बूँदें गिर रहीं हैं .हाँथ को हाँथ नहीं सूझता ,सरितायें उफन रहीं हैं। भूगर्भ में रहने वाले सरीसृप घबड़ा कर इधर -उधर तरंगायित हैं और आप हैं कि एक  सवायोजन तय करके बहिना के द्वार पर आ पहुँचे। बैठिये जीजा जी मैं भाभी को खबर दे आती हूँ आप के खान पान की कुछ व्यवस्था हो जाय।
युवा तुलसी :- अरे वासंन्ती रहने दे ,प्रियम्बद को कष्ट मत दे । पति -पत्नी और दोनों बच्चे अपने कक्ष में होंगे । इतनी रात को उनकी नींद उच्चाट करना अशोभन होगा ।
वासन्ती :- जीजा जी जब आप आये हैं तो आपका सम्मान तो करना ही है। और फिर आप बड़ी बहिना के यंहा आ जाने के कारण कुछ पकाकर उदर में पायन के लिये कुछ डाल भी तो नहीं आये होंगें। घर आया जमाई भूखा सो जाये ऐसा क्या कभी हो सकता है ? रत्ना कुछ नहीं बोलती ।
      वासन्ती समझ लेती है कि रत्ना की सहमति है और भाई -भाभी को सूचना देने के लिये सीढियाँ उतरकर नीचे कक्ष में जाती है ।
युवा तुलसी :- देखो रत्ना ,एक झंझट खड़ा हो गया। प्रियम्बद जी एक शास्त्री पुरुष हैं। पूर्व सूचना दिये बिना इस भयानक अर्ध रात्रि में मेरा यहाँ चले आना उनकी शास्त्रीय परम्परा में स्वीकृत नहीं होगा । इस समय उनके विश्राम में विघ्न उपस्थित कर शायद मैंने अच्छा नहीं किया। रत्ने मुझे बताओं मैं तुम्हारे प्रति अपनी आसक्ति को संयमित क्यों नहीं कर पाता हूँ । रत्ना चुप रहती है। सीढ़ियों पर पग चापों का स्पन्दन ,एक थाल में कुछ फल और हाँथ में गौ पेय से भरा एक ग्लास लिये वासन्ती ऊपर आती है ,पीछे -पीछे उसकी भाभी भी कक्ष में प्रवेश करती है। प्रियम्बद की पत्नी रत्ना की भाभी नीलाम्बरा युवा तुलसी को प्रणाम करती है ।
वासन्ती :- लीजिये जीजा जी कुछ खा पी लीजिये ,फिर हम लोग आपको इस कक्ष में बड़ी बहिना के साथ अकेले छोड़ देंगे। अभी तो काफी रात पडी है। युवा तुलसी कुछ संकुचित हो जाते हैं। कदली फल का एकाध ग्रास मुँह में डालकर पय पान कर लेते हैं। नीलाम्बरा और वासन्ती वापस जाने को होती हैं इसी बीच नीचे से एक शिशु के रोने का आवाज आती है । गोद में दो वर्ष के एक बालक को उठाये प्रियम्बद जी ऊपर आ जाते हैं। नीलाम्बरा उनसे पूछती है कि उनकी छह वर्षीय पुत्री सुनामा तो नहीं जग गयी ।  प्रियम्बद जी सिर हिलाकर बतातें है कि सुनामा नहीं जगी है। नीलाम्बरा छोटे बच्चे को गोद में ले लेती है। वासन्ती दूध का खाली गिलास और थाल में बाकी बचे फल हाँथ में लिये खड़ी है। युवा तुलसी उठकर प्रियम्बद को प्रणाम करते हैं। प्रियम्बद स्वास्ति का हाँथ उठाते है ,पर फिर उनमें हल्का क्रोध का भाव उभरता दिखाई पड़ता है ।
प्रियम्बद :- क्यों रत्ना तूने हम लोगों को बताया भी नहीं कि राम बोला जी को आज ही हमारे घर आना ह।  मेरे साथ आते समय तुम पड़ोसियों को बोल तो आंयीं थी , हम कुछ दिनों के बाद तुम्हें वापस भेज आयेंगे। चलो राम बोला का प्यार भी आस -पास के पड़ोस के लिये किस्सा कहानी बन जायेगा ।
रत्ना :- बड़े भईया मेरा इसमें कोई दोष नहीं है। मैं तो स्पष्ट निर्देश दे आयी थी कि इन्हें यंहां आने की आवश्यकता नहीं है पर शायद प्रेम की अतिशयत :के कारण ऐसा हो गया होगा।
प्रियम्बद :- आस -पास के पड़ोसी जब सुनेंगे तो क्या कहेंगे ? रत्ना अभी तेरी छोटी बहिन का पाणिग्रहण संस्कार होना है ,कुछ ही दिन शेष है। हम लोग शास्त्री पण्डित हैं ,संयम हमारा धर्म है और आचरण हमारा गौरव है। नारी के प्रति किया गया प्यार ईश्वरीय भक्ति भरे प्यार जैसा नहीं होता। उसमें सदेव वासना की गन्ध होती है और जो वासना का गुलाम है उसे विद्वान मानने का मेरा मन नहीं करता। अब प्रियम्बद वासन्ती को अपने कमरे में जाने का निर्देश करते है स्वयं कक्ष से बाहर निकल जाते हैं। नीलाम्बरा उनके पीछे बच्चे को गोद में लेकर चल पड़ती है जाते -जाते कहती है पट बन्द कर ले रत्ना ,अब कोई नहीं आयेगा ।
                               रत्ना न जाने क्यों अपने को अपमानित महसूस करती है शायद बड़े भाई की बातों नें उसके मन को चोट पहुचाई है। रत्ना जानती है कि उसके पति वेद ,शास्त्रों के ज्ञाता ,जन भाषाओं के शीर्षस्थ अधिकारी विद्वान और हीरक उज्जवल चरित्र के धनी हैं। अपने बड़े भाई द्वारा अपने पति की विद्वता का किया गया उपहास उसकी छाती पर शूल सा गड़ता है ।
                       युवा तुलसी उठ कर दीप बुझाना चाहते हैं और पट बन्द कर रात्रि शयन की सोच रहें हैं। पर वे जैसे ही दीप बुझाने के लिये उठते है रत्ना वली का मुँह तमतमा जाता है। तमतमाये चेहरे से युवा तुलसी की ओर देखते हुये वह तुलसी से कहती है ।
रत्ना :- सुन लिया धिक्कार आपने अपनी विद्वता का। कितना बड़ा गौरव आज की रात आपने मुझपर लाद दिया है ?
युवा तुलसी :- रत्ने मेरी ओर एक बार  प्यार की द्रष्टि से देख लो। मैं कृति कृत्य हो जाऊँगा ,तुम्हारे प्यार से मुझे अन्त :शक्ति मिलती है।
रत्ना :- हे विद्वद श्रेष्ठ मेरे प्रति तुम्हारा प्यार एक प्रवंचना है ,वासना के जिस गुवार को तुम प्यार की संज्ञा दे रहे हो वह मनोवेगों का एक क्षणिक उफान मात्र है। यदि मेरे प्रति तुम्हारा प्यार चिरस्थायी है तो इस प्यार को भगवान् राम और भगवती सीता के प्यार में बदल कर दिखाओ। मैं आजीवन तुम्हे मन -प्राणों से प्यार करूंगी। पर रत्ना का किया गया आज का अपमान इतिहास की एक महान उपलब्धि में बदल दो। कर सकोगे क्या ऐसा ,मेरे जीवन धन ,मेरे प्राण ,मेरे सर्वस्व ,मेरे भविष्य ।
                   सहसा पीछे से महाकवि निराला की अमर पंक्तियों की गूँज।
धिक् ,धाये तुम यों अनाहूत
खो दिया धर्म ,कुल धाम धूत
रे नहीं राम के अरे काम के सुत कहलाये ।
                और फिर इसके बाद स्वर और तीब्र हो जाता है । जैसे कोई मन्त्रोचार हो रहा हो ।
जागा -जागा संस्कार प्रवल
रे गया काम तत्क्षण वह जल
देखा वामा वह न थी ,अनल प्रतिमा वह
                   युवा तुलसी रत्ना की ओर देखते हैं। एक अन्तिम द्रष्टि जिसमें पहले प्यार झलकता है फिर तटस्थता और फिर विराग। पट की ओर वहिर्गमन करने से पहले कहते सुने जाते हैं । रत्ना तुम्हारा प्यार भरा तिरस्कार मेरे जीवन की सबसे बड़ी बहुमूल्य पूँजी है। भारत का इतिहास इस पूँजी के काब्य निवेश से सज संवर कर हिन्दू जाति के उत्थान का अप्रतिम सोपान बन जायेगा। 'हिन्दू जाति ' शब्द युग्म को मैं सम्पूर्ण विश्व मानव धर्मिता के समानार्थी छवि चित्रों में मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ। मेरी ओर से यह अन्तिम मिलन है रत्ना। इस मिलन की याद को धूमिल मत होने देना। पट खोल कर छज्जा लाँघकर युवा तुलसी दीवार के सहारे शरीर सन्तुलन की असाधारण कुशलता दिखाते हुये नीचे उतरने लगते हैं। आतुर रत्नावली छज्जे पर खड़ी होकर उनकी ओर देखती है। जिसे कौन जाने तुलसी सुन पाते हैं या नहीं ।
                          "मेरे आराध्य ,मेरे पूज्य ,मेरे प्रात : स्मरणीय अपनी दासी 'रत्ना 'को जीवन में एक बार मिलने का अवसर और देना। गगन से एक स्वर गूँजता है ।"
                   एव अस्तु, एव अस्तु लम्बी प्रतीक्षा करनी होगी रत्ना !

                   (उपर्लिखित मानस चक्षु विम्ब अपनी पूरी नाटकीयता के साथ गहरी नींद में न जाने कहाँ से उभर कर लेखक की चेतना को रंजित कर गया। जगने  पर उसने इस नाटकीय विम्ब के मूल स्रोत को आलोचनात्मक ढंग से टटोला तो उसे लगा कि वह महाकवि निराला की अमर कविता 'तुलसीदास 'की प्रथम दो तीन पंक्तियाँ पढ़ने के बाद दिन भर की थकान के कारण कविता संग्रह को अपने बगल में रखकर निद्रा की गोद में चला गया था। कविता की प्रारम्भ की वह पंक्तियाँ ही शायद स्वप्न जाल को बुनने का आधार बना गयीं हों ।) "भारत के नभ का प्रभा सूर्य अस्तमित आज सांस्कृतिक सूर्य है तमस तूर्य दिग्मंडल "



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