Saturday, 30 March 2013

यह दीप अकेला .........

यह दीप अकेला .........

                 मैं अपने को साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कुछ कहने का अधिकारी नहीं मानता। शिक्षा की द्रष्टि से मैं क़ानून से जुडा हूँ और कार्य की द्रष्टि से मैं हिसाब -किताब रखने वालों की श्रेणी में हूँ। पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के प्रत्येक चिन्तन शील और शिक्षित नर -नारी को इस दिशा में सोचने का प्रयास करना चाहिये कि अपनी मात्र भाषा हिन्दी में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिभायें उभर कर क्यों नहीं आ रहीं हैं साहित्य के क्षेत्र में तो कुछ समर्थ रचनाकार हैं भी पर तकनीक ,विज्ञान ,क़ानून ,व्यापार प्रबन्धन ,खगोल अन्वेषण ,भूगर्भीय ज्ञान ,सामुद्र्कीय ,सूचना प्रोद्योगकीय ,पर्यटन ,जैवकीय आदि -आदि के क्षेत्र में तो एक आध स्तरीय अनुवाद भले ही मिल जायेँ पर श्रेष्ठ मौलिक तो देखने को ही नहीं मिलता। ललित साहित्य में भी हमारे जीवन मूल्य अधिकतर रूढ़ हो गयी मान्यताओं को व्यक्त करते हैं ,उनमें बदलती वैश्विक संस्कृति की झलक पूरी तरह से नहीं दिखायी पड़ रही है। हमें ऐसा कुछ करना होगा जिससे हम हिन्दी भाषा -भाषी बदलते हुये युग की दौड़ में पिछड़ न जाये । आप सब जानते ही हैं कि कुछ हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों के पिछड़ेपन के लिये अंग्रेजी के बीमारू शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। एकाध राज्य इस शब्द के दायरे से बाहर निकलने वाले हैं पर उत्तर- प्रदेश अभी तक ऊपर उठने की ओर प्रयत्न शील नहीं दिखायी देता। अपनी इस बढ़ती ऊमर में मेरा मन कहीं कुछ ऐसा करने के लिये बेचैन रहता है जिससे हमें अपना जीवन कुछ सार्थक लगे। परिवार का भरण -पोषण और आजीविका का अर्जन तो गृहस्थ जीवन में करना ही होता है पर इसके अतिरिक्त संस्कृति के उच्चतर मूल्यों को सहेज कर उन्हें दूसरों तक पहुचाने का  काम भी हमें करना होगा । पर मैं तो साहित्य और संस्कृति के एक पाठक होने के नाते उसकी सुरक्षा में एक सिपाही बन कर काम करना चाहता हूँ। आकाश कुसुम तोड़ लेने की कल्पना करना तो मेरे लिये अपने को भुलावे में डालना होगा। इस छलना से अपने को दूर रखकर मैं तो हिन्दी भाषा -भाषी प्रदेश की' माटी' में ही रत्नों की तलाश में लगा हूँ। मासिक पत्रिका  'माटी ' का प्रकाशन इसी दिशा में एक प्रारम्भिक पहल है । आप सब का सहयोग और आशीर्वाद उसे उभरते नवीन भारत की चेतना का प्रबल वाहक बना सके यही मेरी कामना है ।
                       
               मेरा प्रयास है कि भारत के हिन्दी भाषा -भाषी सभी प्रदेशों के शब्द धनी इस पत्रिका के साथ जुड़ जायँ । साहित्य शब्द से आज मानव ज्ञान की हर शाखा का अभिप्रेत होता है। ललित साहित्य का अपना स्थान है तो विज्ञान ,तकनीक और नाभिकीय साहित्य का अपना अलग स्थान है। 'माटी 'ज्ञान प्रसार की चौमुखी दिशाओं में अपनी पहुँच बढ़ाने का प्रयत्न करेगी। हम आस -पास के निष्कलंक ,बेदाग़ कर्म योगियों को 'माटी ' के माध्यम से जन सामान्य के सम्पर्क में लायेंगे ताकि आदर्श स्थापना के लिए प्राणवान उर्जा मिल सके। आप तो जानते ही हैं कि लेखकों ,शब्द -शिल्पियों ,रचनाकारों ,और भाषा विद्वानों के पास विशेषत : हिन्दी भाषा -भाषी साहित्यकारों के पास आर्थिक सम्पन्नत : का अभाव है। इस अभाव को हमें अपने मनोबल और सामूहिक प्रयत्नों से पूरा कर लेने का विश्वाश पैदा करना है। अपना -अपना अभिमान छोड़कर बड़े और छोटे होने का दम्भ त्याग कर हर हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी को एक जुट होकर आगे आना होगा। अज्ञेय जी की काब्य पंक्ति 'यह दीप अकेला स्नेह भरा मदमाता ,इसको भी पंक्ति को दे दो ' इस दिशा में एक बहुत सार्थक अभिव्यक्ति है। आइये हम सब नि : स्वार्थ भाव से राष्ट्र भाषा की सेवा में अपने को समर्पित करने का संकल्प करें ।                                                      

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