Tuesday 27 November 2012

भाषा की सेवा किन्ही भी अर्थों में मन्दिर की पूजा से कम नहीं होती ।

                                        शब्द भेदी बाण की मार करने में सम्पूर्णत: की उपलब्धि पाए हुये कुछ महानायकों की गाथायें हिन्दी भाषा -भाषी भारतीय जनों के प्रत्येक घर में गूंजती रहती हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के पिता श्री महापुरुष दशरथ अपने शब्द भेदी बाण के अप्रतिम कौशल के कारण ही एक भयानक शाप के ग्रसित हो गए थे ।और दिल्ली के अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वी राज चौहान के शब्द भेदी बाण की कौशल गाथा चन्द्र वरदायी के साथ जुड़ कर भारत के शौर्य की कहानी बन ही चुकी है ।पर मै शब्द भेदी बाण को उसके सीधे अर्थों में न लेकर एक लांक्षणिक अभिव्यंजना के रूप में ले रहा हूँ शब्द भेदी बाण मैं उन शब्दों को समझता हूँ जिनमें बाण की भेदक शक्ति निहित रहती है ।ऐसे सार्थक शुभ फलक वाले रचनात्मक शब्दों की नुकीली चोंट "माटी "अपने कलेवर में संयोजित करना चाहती  है जो उसके पृ ष्ठों से विकीर्णित होकर अन्त स्थल तक प्रवेश कर जाय और वहां धूमिलता ला दे।चेतना स्थलों को छिन्न -भिन्न कर उन्हें फिर से दीप्तिमान बना सके ।भारत की आर्ष परम्परा में लिखित और वाचित दोनों ही प्रकारों में शब्दों का प्रयोग उज्वल सोपानों की ओर प्रेरित करने के लिए ही होता रहा है ।निरन्तरता के उन सहस्त्रों वर्षों के दीर्घ काल में कुछ समय के लिये गिराव के झकोरे भी लगते रहे हैं पर सम्पूर्ण रूप से उन्नयन की प्रक्रिया ही माँ संस्कृत और पुत्री  हिन्दी की सनातन प्रक्रिया रही है ।इन दोनों भाषाओं में और सच पूंछो तो संस्कृत  जन्मी और प्रभावित अन्य  सभी भारतीय भाषाओं में नग्न वासना भी शब्दों के परिशोधन से गुजर कर कंचन की भाँती चमकती दिखाई पड़ती हैऔर इन्द्रिय विलास से ऊपर उठकर आत्म उन्नयन का साधन बनने  में समर्थ हो जाती है ।ललित साहित्य ही तो वह संजीवनी बूटी है जो मरणासन्न समाज को जीवित कर जीवन संग्राम में एक विजेता के रूप में परिवर्तित कर देती है ।पिछली कई शताब्दियों से भारतीय होने का गौरव हमें इतनी अधिक दीप्ति नहीं दे सका है कि हम विश्व को अपनी प्रभा से चमत्कृत कर सकें ।इसका मुख्य कारण रहा है हमारा पराधीन होना ।पराधीनता राष्ट्रीय गौरव के लिए अभिशाप बन जाती है ।हम अपनी भाषा ,अपनी संस्कृति ,अपनी जीवन शैली और अपने आर्थिक उपादानो को सहज संतोष भरी द्रष्टि से नहीं देख पाते ।विजेता कौमें अपनी भाषा ,जीवन शैली ,और जीवन द्रष्टि विजित कौमों पर लाद  देती हैं ।मानव सभ्यता में इस प्रकार के उतार चढ़ाव किसी भी प्रखर समालोचक बुद्धि की पकड़ में सहज रूप से आ जाते हैं।एक अत्यन्त दीर्घ काल तक हिंदी भाषा की उपेक्षा सत्ता पोषित समाज के द्वारा होती रही है ।स्वतन्त्रता के बाद भी शिखर पर बैठा नव कुलीन पूंजीवादी समाज विदेशी भेष -भूषा और विदेशी भाषा व्यवहार को अपनी श्रेष्ठता के रूप में प्रदर्शित करने में लगा हैं।इसका हमें डटकर मुकाबला करना पड़ेगा ।अधिक सम्पन्न घरों में विशेषत :विदेशों में बसे भारतीयों के घरों में अपनी मात्र भाषा का प्रयोग घर के उन छोटे -मोटे कामों के लिए ही किया जाता है जो सामान्य सामाजिक द्रष्टि में ऊँचे कार्य नहीं मानें जाते हैं ।यही कारण है कि उन घरों में पली हुयी नयी पीढ़ियाँ अपनी मात्र भाषाओं के प्रति हीन भाव से देखने लगती हैं ।भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रथम महारथी ,ने जो कहा था वह आज भी कितना सार्थक है इसे "माटी "के प्रखर पाठक ,विवेचक सहज रूप से ग्रहण कर सकते हैं ।
                                          "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कर मूल
                                           विनु निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय का शूल "
अपनी मात्र भाषा में दक्षता प्राप्त किये बिना अंग्रेजी का ज्ञान बखारने वाले दंम्भी साहित्यकारों को "माटी "एक ललकार लगाती है।भारत की मात्रभाषाओं में विश्व स्तर का साहित्य उपस्थित है।हिन्दी में बहुत कुछ ऐसा है जिसे रचना सौष्ठव और चेतना परिष्करण के सन्दर्भ में विश्वस्तरीय साहित्य के समकक्ष रखा जा सकता है ।हम चाहते हैं कि ऐसी श्रेष्ठ रचनाएं जो  प्रकाशन के माध्यम से हिंदी भाषा -भाषी विज्ञ समाज के समक्ष नहीं आ सकी हैं "माटी "के माध्यम से आप के समक्ष पहुँच जायं ।हिंदी भाषा -भाषी पूंजीपतियों और आर्थिक द्रष्टि से समर्थ उच्च पदस्थ अधिकारियों से "माटी "यह मांग करती है कि वे अपनी मात्र भाषा की सेवा में सहयोग के लिये आगे आवें ।भाषा की सेवा किन्ही भी  अर्थों में मंदिर की पूजा से कम नहीं होती ।इससे लोक और परलोक दोनों ही संवरते है ।इकसठवीं जन्म गाँठ पर भारतीय गणतन्त्र ने सामरिक शौर्य के नवीनतम उपकरणों का अद्दभुत प्रदर्शन किया था ।आदरणीयाँ पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने भी जिस अधिकार से हिन्दी में अपना अभिभाषण पढ़ा था वह अपने में एक गौरव की बात है ।अंग्रेजी और मराठी पर तो उनका  है ही पर हिन्दी भाषा पर उनका अधिकार उन्हें कोटि कोटि घरों तक सहज रूप से आदर का पात्र बना सकने में समर्थ है। भारत के सामरिक शौर्य की अचूक वेधकता जो गणतन्त्र दिवस पर प्रदर्शित हो ही गयी है पर शब्द भेदी अचूक बाणों वेधकता अभी हिन्दी भाषा के समर्थ शिल्पियों के लिये संशय का विषय बनी हुई है ।शब्दों में वाणों की वेधकता समेट  कर प्राणों की उर्जावान धड़कन को सन्चालित और नियन्त्रित करने के लिये "माटी "अपनी प्रतिबद्धता दोहराती है।इस दम -ख़म केलिये आपका सहयोग ही हमारा सम्बल  है और हमारा सखेतक भी।

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