Thursday 9 January 2020



काल का अजगर 

काल का अजगर
आज अर्ध रात्रि में
 केंचुल की परतें उतारेगा
नयी साज सज्जा ले
नयी शक्ति संचय कर
हिंसा -दबोच में
शांत मृग छौनें को
घेर बाँध
तोड़ मोड़ डालेगा |
आँखों में जल रहे
मारक सम्मोहन से
द्रष्टि- बद्ध मन्त्र -खचित
खिंचे चले आवेंगें
दूब के हरित तृण
दाँतों में दाबे
भोले शश -शावक |
जबड़े खुल जायेंगें
गरल - रसायन की छींटें पा
कितनें निरीह तन
कितनें अबोध मन
पड़े पड़े
उदर गुहा की
अंधेरी - अंध राहों में
हाय ! घुल जायेंगें |
काल का अजगर
रात्रि - सन्नाटे में
शिथिल कर गुंजलक
अन्तिम दम तोड़ते
बीते हुए वर्ष को
हड़पेगा |
दूर कहीं तारों भरी गलियों से
झाँक रहा शान्ति दूत
आंसू ढाल
तार तार
तड़पेगा |
शेष पर आस है
एक विश्वास है
नया वर्ष जन्मा है
इसे एक धार दो
गिरनें से पहले ही
उठ रही गुंजलक के
पार दो |
नारी मूल्याँकन 

और कि यह
प्रोफ़ेसर , पंडित ,  कलाकार , कवि
सृष्टिकार सब
जो
प्रसाद से , तुर्गनेव से
पंत , नीत्से और पिकासो से
नीचे है बात न करते
देख कहीं लेते निज पथ पर
रूपगर्विता
ऐसी रमणीं
सीख चुकी है जो
आधुनिका का पहरावा
जहां उग्र की या जोला की
कला मूर्त हो कर रह जाती
तो
चाल बदलते
चुपके चुपके मन के भीतर
हाल बदलते
कालर पर की गर्द भगाते
कंठ -लंगोटी खींच सजाते
और कहीं नेता गण हों तो
मत्थे पर की सीधी टोपी ,
कर देती जो घाव
अगर पड़ जाये किन्हीं मांसल अंगों पर ,
तिरछी करते
और
उसी दिन
कला - भवन में , ज्ञान - कक्ष में
संसद में
सर्वोदय के कल्याण -पक्ष में
भाषण देते
'  नारी पूज्य महान
भोग की नहीं वस्तु है | '

नई डगर 

चल रहा हूँ जो डगर अब तक रही अनजान है
इसलिये सब  कह रहे हैं यह सिर - फिरा इन्सान है
हंस रहीं प्रिय तुम , जगत उपहास करता
स्वप्न -जीवी कह न मुझसे बात करता
सोचता जग मैं पुरानी लीक पर चढ़ बढ़ता चलूँ
स्वर्ग -सीढ़ी पर संभल हर वर्ष मैं चढ़ता चलूँ
पर मुझे वह राह चलनी जो निबल के द्वार तक
जा सके लेकर मुझे दुखिया बहन के प्यार तक
राह जो फुटपाथ पर सोते अनाथों तक चले
राह जिसपर गान्धी की , बुद्ध की ममता पले
राह जिससे राह खुल जाये व्यथा -उन्मुक्ति का
राह जिससे राह खुल जाये कि अन्तर -मुक्ति का
चल सके जो राह यह छोटा नहीं इन्सान है
क्या हुआ यदि राह यह तुम तक रही अनजान है
चल रहा हूँ जो डगर ------------------------------
हर हिंडोला स्वर्ग का संसार में होता नहीं
विलखता शिशु देख करके हर हृदय रोता नहीं
हर हृदय- विश्वास कब पहुँचा प्रिया के द्वार तक
हर लहर  पहुँचीं भला क्या तीर के उस पार तक
क्या हुआ यदि मैं तुम्हारी राह से हटता गया हूँ
चन्द्रमा सा हर दिवस आकार में घटता गया हूँ
और हैं जो द्रष्टि - पथ पर प्रिय तुम्हारे चल सकेंगें
स्वप्न तेरे ,हृदय में उनके निरन्तर पल सकेंगें
राज पथ पर चल सकें जो वे तुम्हारा साथ देंगें
हेम -मण्डित  सीढ़िया चढ़ हाथ में वे हाँथ देंगें
पर मुझे चल कर पहुँचना हर गली चौपाल में
आस्था के स्वर जगानें हैं कृषक गोपाल में
श्रवण - दुनिया के अपरचित हैं रहे जिस गीत से
सर्वथा नूतन रचे जय -गीत की यह तान है
चल रहा हूँ जो डगर --------------------------
बहुत संम्भव है कि जीवन इस तरह ही बीत जाये
मृत्यु मेरी कामना पर खिलखिलाकर कर जीत जाये
पर झरे जो बीज धरती पर उगेंगें
पुष्प उनमें फिर कभी निश्चय लगेंगें
सूख कर भी बूँद , प्रिय क्या नष्ट होती
वायु में मिलकर जलद में सृष्टि होती
और फिर मिट भी गया यदि इस क्षणिक संसार से
मुक्त ही होगी धरा कुछ हड्डियों के भार से
हैं सहस्त्रों उठ रहे निश दिन धरा की गोद से
जगत का व्यापार पर चलता सदा ही मोद से
राज पथ पर जो चले हैं धूल में मिल जायेंगें
सोम रस पीती रही दुनियां युगों से आज तक
किन्तु शिव की साधना तो बस गरल का पान है
चल रहा हूँ जो डगर -----------------------------
राह जो मैनें चुनी है राजपथ बन जायेगी
धूल से उठकर सितारों तक प्रिये तन जायेगी
उस समय शायद न हूँ मैं देखनें को यह छटा
ज्वार का उन्माद कब कुछ बूँद घटनें से घटा
इस नये संसार की  ही खोज मेरी राह है
है यही बस स्वप्न मेरा , एक ही यह चाह है
हूँ अकेला ही नहीं मैं और भी कुछ साथ हैं
किन्तु गोवर्धन उठानें के लिये कम हाँथ हैं
प्रलय को बरसात सर पर आ रही है
अणु  -घटा  बढ़ती घहरती छा रही है
बह  न जायें चूर्ण होकर दीन दुखियों के बसेरे
कृष्ण पर , युग बोध पर , फिर से न कोई अब हँसे रे
थूक दे हीरक - खचित इस जगमगाते ताज पर
दे बता ओ तरुण , तेरी देह में भी जान है
चल रहा हूँ जो डगर -------------------------------


सोम, 14 मई 2018, 7:03 pm

गुलाब की कलम 

जब कभी सृजन के गीत पिरोने बैठा हूँ
जब कभी तूलिका से आकाश उतारा है
सौ धूम केतु घिर घिर आये हैं आँखों में
हर बार तड़प कर गीत गद्य से हारा है |
जब जब गुलाब की कलम लगाने बैठा हूँ
बन्ध्या युग धरती प्रश्न चिन्ह बन आयी है
जब मलय बयार चली है मन की दुनिया में
चिन्ता दोपहरी तप्त बगूले लाई है
जब कभी भाव की टेक उभर उठ आती है
मन की चट्टानें ही सीमा बन जाती हैं
कुछ सरस पनपने से पहले मन आँगन में
शंका की काली छायायें तन जाती हैं
यह साँझ सुबह का अन्तहीन अविनासी क्रम
माटी की धरती को प्राणों से प्यारा है
जब कभी ---------------------------------
काली रातों के अँधियारे में बार बार
द्वितिमान पिंड रह रह कर राह दिखाते हैं
अभिभूत नहीं होना मावस की छाहों में
कुछ ऐसा ही सन्देश गगन से लाते हैं
हर बार असाढ़ी मेघों के पंखों पर चढ़
चाहा विस्तार गगन का मुझको मिल जाये
 जो विश्व भावना दबी पड़ी मन ऊसर में
रस की छींटें पा विहँस मुक्त हो खिल जायें
मैं एक नवल संसार बसा दूँ धरती पर
जिसमें न घुटन हो , क्षुधा न मानव पीड़ा हो
जिसमें न देह का दर्शन निगले प्राणों को
जीवन निसर्ग की निश्छल मादक क्रीड़ा हो
पर मेरे मन का सृष्टिकार निष्क्रिय हो बैठा वात - ग्रस्त
यह क्षुधा , घुटन का विश्व अभी वैसा सारा का सारा है
जब कभी -------------------------------------------
मेरी नाजुक कल्पना सितारों में इठलाती रही सदा
धरती की  जलती राह न वह चल पायी है
समता की दुनिया सजा सजा कर सपनों में
अपनें को ही बस आज तलक  छल  पायी है
अन्याय , अन्धेरा , पाप पल रहा राहों पर
उनसे भगकर कल्पना कहाँ तक जायेगी
टकरा कर क्षितिज किनारों से असहाय विवश
आखिर माटी की ठोस धरा  पर  आयेगी
उठनें को आकुल  नयी सृष्टि का हर अंकुर
रौंदते पगों की निठुर चाप से हारा है
जब कभी -------------------------------


सोम, 14 मई 2018, 7:02 pm

श्यामली आँचल 

हर सुबह प्रतिज्ञा करता हूँ अब वीतराग बन जाऊँगा
हर शाम श्यामली आँचल में फिर याद तुम्हारी आती है
कितना चाहा मन - मधुप विरागी बन जाये
मन की लहरों का कोई और किनारा हो
माटी की मटियाली राहों को छोड़ बढ़ूँ
मंजिल मेरी भी नील गगन का तारा हो
जो प्यास रूप - मदिरा पर पलती रहती है
वह प्यास सृष्टि - जिज्ञासा बनकर ढल जाये
जो सांस वक्ष के सरगम पर स्वर भरती है
वह सांस प्राण की पीड़ा बन कर पल जाये
जो द्रष्टि उभारों के सौष्ठव से खेल रही
वह द्रष्टि दीप्त हो युग का सत्य दिखा जाये
जो वक्ष पिया  के आतुर अंग सम्हाल रहा
वह वक्ष कठिन हो यौवन - धर्म सिखा  जाये
जो चाह देह की  बाता छू छू जलती है
वह चाह उमग  कर इश्क - हकीकी बन जाये
जो राह तुम्हारे द्वारे आकर रुकती है
वह राह पसरकर आसमान तक तन जाये
पर द्वार तुम्हारे पहुँच कदम रुक जाते हैं
साँसों में केशों की सुगन्ध बस जाती है
हर सुबह प्रतिज्ञा करता हूँ ------------------
माना कि ऊर्ध्वगामी राहें कुछ विरले ही चल पाते हैं
हर एक जन्म अमरत्व नहीं बन पाता है
हर प्रीती मिलन के द्वार नहीं पहुँचा करती
हर सत्य कला का तत्व नहीं बन पाता है
हर भाव  चाह  कर भी कब कविता बन पाया
हर कली कहाँ यौवन पाकर मुस्काती है
हर एक संदेशा मुखर नहीं होता माना
हर पवन - लहर कब बनी पिया की पाती है
फिर भी प्रयास का दर्शन था मैनें सोचा
कुछ दूर लक्ष्य की ओर मुझे ले जायेगा
उद्दातीकरण प्रक्रिया के परिमल से मिल
आध्यात्म्य समीरण की सुगन्ध दे जायेगा
पर हर प्रयास बाँहों के बन्धन में जकड़ा
जाने कब से है सिसक सिसक दम तोड़ रहा
हठ योग पड़ा है औंधाये मुँह देहरी पर
वेदान्त बिचारा रच रच जूड़ा जोड़ रहा
लाखों लहरों पर तिरा सत्य इतना पाया
हर लहर पिया के पैर चूमनें आती है


सोम, 14 मई 2018, 6:59 pm

वन्ध्यत्व 

ठीक है सर कर न पाया पार हूँ मैं 
ठीक है अब तक पड़ा मंझधार  हूँ मैं 
जो न तेरे धार में विजयी बनें हैं 
कर्म -रत  सच्ची कलम की हार हूँ मैं | 
पर न इसका अर्थ मैं गतिहीन था 
याकि  पहुँचे पार  जो वे वीर थे 
बात इतनी है कि मैं तेरा स्वयं 
जबकि उनके पाँव नीचे तीर थे | 
चतुर्दिश जय -घोष  उनका गूंजता है 
नट - तमाशे  ढोल -स्वर  पर चल रहे 
 सृजन  - रत  हलधर  उपेक्षित हैं पड़े 
मुफ्तखोरे सांड़ कितनें पल रहे | 
पर दमामों का दबेगा शोर जब 
सत्य का स्वर उभर कर छा जायेगा 
उछल  कर लघु बूँद सा सहसा , प्रिये 
नाम अपना भी कहीं आ जायेगा | 
समुद है स्वीकार इस जग की उपेक्षा 
पर गला अपना किसी का स्वर न लूँगा 
दान काली को करूँगा जीभ अपनी 
पर उसी माँ की शपथ मैं वर न लूँगा | 
जान लूँगा जब कलम बंध्या हुयी है 
रेत का प्रस्तार मन पर छा रहा है 
छोड़ प्राणों का अनूठा देश मेरा 
कवि कहीं परदेश को प्रिय जा रहा है | 
जान लूँगा जब विगत पर जी रहा हूँ 
काल से है कट चुका अनुबन्ध मेरा 
श्रोत अन्तर के सिमट कर चुक गये हैं 
सतह से ही शेष है सम्बन्ध मेरा | 
तो नये अंकुर जगाने को धारा में 
खाद बनकर देह यह मिल जायेगी 
देखते ही देखते इतिहास के सन्दर्भ में 
फसल कविता की नयी खिल जायेगी | 


सोम, 14 मई 2018, 6:49 pm

दोहरी जिन्दगी

हूँ एक जिन्दगी साथ तुम्हारे काट रहा
पर एक जिन्दगी और कहीं मैं जीता हूँ
तुम मेरे लिये  किसी की केवल छाँह रहीं
तुमसे चलकर मैं और कहीं पर जाता हूँ
तुमको समेट कर बाहों में सुधि के रथ पर
मैं पास खींचकर और किसी को लाता हूँ
केशों में गुम्फित बेला -पुष्पों की सुगन्धि
वन नीम -मंजरी की सुवास लहराती है
नासा -पुट रख उन केशों में जो पाया था
उसकी सुगन्ध प्राणों से कभी न जाती है
अधरों पर रखे अधर तुम्हारे सच मानों
मैं और किसी की अधर -सुधा को पीता हूँ
हूँ एक जिन्दगी साथ तुम्हारे काट रहा -------
तुमको मुस्कान समर्पित है ,तुम क्या जानों
निः शब्द रात की गहरायी में रोया हूँ
तुम पास पड़ीं परितृप्त -शिथिल जब सो जातीं
बाहों में बंधकर मैं भी कभी न सोया हूँ
विस्मृति के उन अनुराग -क्षणों में कभी कभी
जब अधर - दान देकर मुझको ठगती हो
संवरित लता सी वक्ष -वृक्ष का संम्बल ले
आन्दोलित होकर सोते सोते जगती हो
तब क्या जानों तुम अंक - शायिनी पास पड़ा
रस छींटों से मैं विरस   रेत सा रीता हूँ
हूँ एक जिन्दगी साथ तुम्हारे काट रहा --------
कुछ रूठ कभी तुम कहती हो जब प्राणनाथ ,
तकते ही रहते मुझे सदा कुछ बोलो ना
स्मृति के पंखों पर उड़ आते वही शब्द
' गुमसुम 'से बैठे आज अधर  अब खोलो ना
हूँ बहुत बार लड़ चुका स्वयं से मैं अब तक
इसलिये कि तुमको तुम करके मैं पा जाऊँ
माध्यम बननें की जगह तुम्हीं बन सको लक्ष्य
तुमसे कल का गुजरा संसार बसा पाऊँ
पढ़ सको गीत को आज राज यह कह देना ,
प्रिय , सुषमा होकर भी मैं  ही संगीता हूँ
हूँ एक जिन्दगी साथ तुम्हारे काट रहा
पर एक जिन्दगी  और कहीं मैं जीता हूँ |



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