Wednesday 27 November 2019

     चारो ओर से घनी वृक्षावलियों से घिरा अभ्यारण्य के मध्य में मानव श्रम द्वारा स्वच्छ सपाट किया हुआ एक विस्तृत मैदान । मैदान के दाहिने पार्श्व में छोटे छोटे कृषि क्षेत्र जिनमें शालियों की क्यारियाँ लगी हुयी हैं । मैदान के बायें पार्श्व में स्वस्थ हरे -भरे फलदार वृक्षों की चार पंक्तियाँ । आम ,जामुन ,बिल्वफल ,और अमरूद के वृक्ष । बीच -बीच में केले की पाँति जिनमें लम्बी लम्बी गौहरें लटक रही हैं । कुछ खुले में और कुछ पेड़ों के नीचे मिट्टी की सजी- बजी पीठिकायें बनी हैं मैदान के उत्तरी भाग में एक साफ़- सुथरी मिट्टी , लकड़ी और तृण आच्छादित तीन कक्षों  की कुटी । कुटी के साथ खुले में तीन -चार श्वेत श्याम धनुयें और उनसे कुछ दूर बंधें धेनु  वत्स । कुटी के पीछे मिट्टी की दीवारों के ऊपर बांस की पट्टिकाओं पर लम्बी घास और विशालकाय पेंड़ की  पत्तियों से ढका हुआ छप्पर जहाँ रात्रि में विद्यार्थी विश्राम करते हैं । छप्पर को संभ्भालनें वाली दीवारों में बने आलो में अरण्डी तेल भरे दीपक ।
                               आचार्य सन्दीपन की बहुचर्चित पाठशाला जहाँ हर वर्ण का प्रवेश योग्यता के आधार पर सुनिश्चित । गोधूलिबेला ।
                                    आचार्य सन्दीपन का कुटी में प्रवेश । आचार्य तरुणायी के दौर में हैं । काले लहराते बाल ,प्रशस्त भाल ,कंचन जैसा पीताभ गौर वर्ण ,काष्ठ पादुकाओं पर आचार्य के पद ,अधोवस्त्र और सिरोवस्त्र से विभूषित ,कुटी में प्रवेश करते ही सहचारिणी पत्नी को सम्बोधित करते हुये कहते हैं ," सुभागे  अन्धेरा होने वाला है । अन्य सभी छात्र शयनशाला में आ गये हैं पर वासुदेव श्रीकृष्ण और तपस्वी प्रभुपद  पुत्र सुदामा अभी तक दिखायी नहीं पड़े । तुमनें उन्हें किसी काम के लिये भेजा था । ,तीसरे पहर से ही बरसात हो रही है । कहीं भटक भूल तो नहीं गये ,सुदामा का शरीर तो वैसे भी दुर्बल है । अति वृष्टि उसे नहीं झेलनी चाहिये ।
सुभागा :-आर्य पुत्र ,पाकशाला की लकड़ियाँ लगभग समाप्त प्राय थीं । श्रीकृष्ण पुष्ट देह का परिश्रमी और  आज्ञाकारी आपका प्रिय शिष्य है । मैनें उसे बन में गिरी हुयी सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा करके लाने को कहा था । उसके आग्रह पर उसके साथ के लिये मैनें तपस्वी प्रभु पद के पुत्र को भी उसके साथ भेज दिया था । आते ही होंगें ।
सन्दीपन :-आर्ये ,दूर जंगल में भटकते -भटकते उन्हें क्षुधा की अनुभूति भी तो  हो रही होगी । तुमनें उन्हें थोड़े भुने हुये शष्य कण दे दिये हैं न ?
सुभागा :-आचार्य आप तो जानते ही हैं कि गुरु माता होने के नाते मुझे आपके हर शिष्य का ध्यान रखना होता है ।  कृष्ण तो आगे चला गया था सुदामा को इससे पहले कि दौड़ कर कृष्ण के साथ पहुँचे मैंने अपने पास बुला लिया था और काफी सारे भुनें हुये चनें उसे देकर कह दिया था कि भूख लगने पर दोनों मिल कर खा लें ।
सन्दीपन :- स्वस्ति , आप निश्चय ही आदर्श गुरुमाता हैं ।
                            दो पास -पास खड़े विशाल वृक्षों के तनों  में बने कोटरों में श्रीकृष्ण और सुदामा बैठे हैं । घटाटोप  अन्धकार और अविरल वर्षा बूँदों के बीच के तने की कोटरों में सिकुड़े -सहमें बैठे हैं । एक दूसरे को देख नहीं पाते पर बात -चीत के लिये स्वर ऊँचा कर एक दूसरे को साहस बँधा रहे हैं । श्रीकृष्ण जी सुदामा से कहते हैं कि उन्हें गहरी भूख लग आयी है । पेड़ों की पत्तियों की घनी  छाँह में सूखी लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर पड़ा है । उसे आस -पास की घास फूस बटोर कर बड़ी चतुरायी से ढक दिया गया है ताकि वह अधिक गीला न हो सके । भूमि पर एक प्रस्तर रख कर उसके ऊपर उसे रखा गया है । इस सारे श्रम में सुदामा की देंन  ना के बराबर है शरीर से दुर्बल होने के कारण श्रीकृष्ण उसे स्वयं कड़े काम से दूर रखते हैं । हाँ उसके साथ बातचीत में उन्हें एक पवित्रता का आभाष होता है । वे जानते हैं कि सुदामा के पिता तपस्वी प्रभुपद के पास आर्थिक साधनों की कमी है । सुदामा गुरुकृपा से ही इस आश्रम में  शिक्षा पा रहा है । वर्षा और तेज हो जाती है । तेज हवा के झोंकें ठंडक की लहर फैलाने लगते हैं । कंप -कंपी लगने लगती है । श्रीकृष्ण जी फिर आवाज ऊँची कर सुदामा से कहते हैं कि भूल हो गयी, साथ में कुछ भुना या उबला शष्य लाना चाहिये था । सुदामा उन्हें नहीं बताते कि उनके पास गुरुपत्नी के दिये हुये भुनें हुये चनें हैं । उन्हें भी गहरी भूख लगी है । न जाने कब वर्षा बन्द होगी । उनके अपने पेंड के तने का कोटर काफी छोटा है । उसमें पुष्ट श्रीकृष्ण नहीं बैठ पायेंगें । एक बार उनके मन में आता है कि उठकर श्रीकृष्ण के कोटर में चले जायँ ,चनें चबाने की इच्छा तीब्र हो रही है फिर सोचते हैं कि चलो हम आधा चना चबाये लेते हैं । बाकी आधे चनें वर्षा बन्द होने पर श्रीकृष्ण जी को दे देंगें । झोली से चनें निकालकर मुँह में डालते हैं । दांतों से चबाने पर कट -कट की आवाज होती है । श्रीकृष्ण जी कट -कट की आवाज सुनते हैं । उन्हें कुछ शक होता है ।
श्रीकृष्ण :-अरे मित्र यह कट -कट करके क्या चबा रहे हो ? क्या गुरुमाता ने कुछ खाने को दिया था । सुदामा संकोच में पड़ जाते हैं । उन्हें याद आता है कि गुरुमाता ने स्पष्ट आदेश दिया था कि दोनों मिलकर साथ -साथ खाना । बड़ी चूक हो गयी । क्षुधा की आतुरता ने उन्हें बेचैन कर दिया फिर सोचा कि मेरे मन में कोई खोट तो थी नहीं, मैं तो आधे चनें मित्र कृष्ण को देने की सोचता  ही था पर यदि वह जान गया कि मैं चने खा रहा हूँ और वह भी  बिना उसके  बताये तो शायद उसका मन खिन्न हो जाय और क्या पता बात ही बात में गुरुमाता को भी बता दे । अब तो यही ठीक है मैं उसको बताऊँ ही नहीं कि गुरुमाता ने उसे चने दिये  हैं। अब तो कुछ चने बचाने भी नहीं हैं । सभी को चबा लेना ही अच्छा होगा । फिर सुदामा के मन में एक प्रश्न उठा श्रीकृष्ण शरीर और मस्तिष्क दोनों ही द्रष्टियों से सब छात्रों में सर्वोत्तम हैं कहीं उसने यह आभाष पा लिया हो कि मेरे पास खाने की कोई  सामग्री है । कुछ रूककर सुदामा ने फिर भुनें चने मुँह में डाले । कोशिश की कि कट -कट का शब्द न हो पर बीच -बीच में कुछ दाने कड़े होते थे और उन्हें तोड़ने के लिये दाँतों की चोट लगानी होती थी । थोड़ी -बहुत कट -फट की आवाज तो आनी ही थी ।
श्री कृष्ण :-मित्र सुदामा तू तो कभी झूठ नहीं बोलता । मैंने तो कई बार झूठ भी बोल दिया है । कहीं ऐसा तो नहीं कि तू कुछ खा रहा हो  और मुझसे छिपाने की कोशिश कर रहा हो । सुदामा ने आगे अधिक पूछ ताछ न हो इसलिये जो जवाब दिया उस जवाब ने श्रीकृष्ण को चुप कर दिया ।
सुदामा :-श्रीकृष्ण तुम सम्पन्न घराने से हो, ऐसे घरों में झूठ का स्तेमाल किया जाता है । मैं गरीब ब्राम्हण पुत्र हूँ झूठ बोलना मेरे कुल का स्वभाव नहीं हैं।  लीलाधर श्रीकृष्ण ने कभी भी गुरुगृह में इस बात को प्रकट नहीं किया कि सुदामा ने चने खाकर पुरानी झोली पेंड़ के पास ही फेंक दी थी । जिसे वह अगले दिन जब सूखी लकड़ी का गट्ठर उठाने गया था उठा लाया था और गुरुमाता को दे दिया था । गुरुमाता ने उससे पूँछा था कि चने अच्छे भुने थे न तो वासुदेव पुत्र ने सिर हिला कर स्वीकृति दी थी । और कहा था ,"हाँ मातु ,आपके हाथ का छुआ अन्न तो देवताओं को भी धन्य कर देता है । आपके दिये ये चने भारत के इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर चर्चित होंगें । \
                      ......................................कुछ वर्षों बाद दीक्षान्त समारोह हो जाने पर श्रीकृष्ण सुदामा से विदायी मांगते हुये मथुरा की ओर प्रस्थान करने से पहले कहते हुये सुने जाते हैं मित्र सुदामा तुम एक चरित्रवान ब्राम्हण के पुत्र हो और मेरे गुरु भाई हो । संकोच मत  करना हम क्षत्रिय लोग तो सदैव से ब्राम्हणों का आदर करते हैं और उन्हें आदर्श मानते हैं । तुम्हीं ने तो उस बरसात की शाम को यह  कहा था  .   कि तुम ब्राम्हण हो कभी झूठ नहीं बोलते । मेरे सबसे प्रिय  गुरुभाई तुम्हारी स्मृति मेरे ह्रदय में सदैव छायी रहेगी कौन जाने भविष्य की गर्त में क्या छिपा है । आवश्यकता पड़े तो अपने इस मित्र से मिल लेना या बुला लेना ।
                     लगभग 15 वर्ष का अन्तराल । कंस वध और मथुरा पर कंस के पिता महाराजा उग्रसेन का राज्याभिषेक । उग्रसेन का स्वर्गारोहण,  श्रीकृष्ण द्वारा मथुरा का      राज्य संचालन । जरासंध का प्रबल आक्रमण । कृष्ण की कूटनीतिक चतुरता । चक्रधारी कृष्ण से रणछोर बन जाना । द्वारिका को नयी राजधानी के रूप में स्थापित करना । वैभव शाली द्वारिका सारे आर्यावर्त में अपनी समृद्धि और ऐश्वर्य के लिये विख्यात ।                
               सुदामा के पिता की मृत्यु के बाद पवित्र ,तपस्वी जीवन जीने का व्रत । जीवन की मूलभूत सुविधाओं का अभाव । अपनी पत्नी से आचार्य सन्दीपन के गुरुकुल में अपने गुरुभाई श्रीकृष्ण से  गहरी   मित्रता की चर्चा। नगर के वैष्णव गायक ,गायिकाओं द्वारा वासुदेव कृष्ण की अद्द्भुत नगरी द्वारिकापुरी के ऐश्वर्य का गायन । सुदामा की पत्नी सुमेधा का श्रीकृष्ण के पास पति को जाने के लिये आग्रहशील होना । सुदामा के स्वाभिमान पर एक गहरी चोट । अपने ब्राम्हणत्व पर अभिमान । अपने ज्ञान और चरित्र पर अभिमान । अपने द्वारा चलाये गये छोटे से गुरुकुल से जो भी उपार्जित हो सके उसी के सहारे जीवन नैय्या चलाने की अभिलाषा । पत्नी द्वारा घर की  उस गरीबी का जिक्र जो दरिद्रता के स्तर तक जा पहुँची है । घर में शीतकाल में ओढ़ने के लिये सोढ नहीं । खाना बनाने के और खाना सहेजने के शुद्ध स्वच्छ बर्तनों का अभाव । पूरे पेट खाने के लिये मोटे अन्न का भी अभाव । फिर प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के पास जाने का अतिरिक्त आग्रह । यहाँ नरोत्तमदास की ह्रदय द्रावक आठ पंक्तियाँ बिना उद्धत किये मन नहीं मानता ।
                                    " कोदो  सवाँ जुडतों भरि पेट
                                      तो न चाहती दधि दूध मिठौती
                                      शीत व्यतीत भयो शिशियवत ही
                                       हौं हठती पै तुम्हें न हठौती
                                      जो जनितिव न हितु हरि सौ
                                      तो मैं काहै को द्वारिका पेल पठौती
                                      या घर से कबहूँ न गयो प्रिय
                                      टूटो तवा और फूटी कठौती ।"
                आज 5 जुलाई 2019 शुक्रवार के  दिन नरोत्तम दास की यह पंक्तियाँ हिदुस्तान के करोणों दीन -हीन जनों के घरों की वास्तविक स्थित चित्रित करती हैं । द्वारिका धीश चक्रधारी श्रीकृष्ण के काल से लेकर आज तक का इतना लम्बा काल प्रवाह अपनी सारी तथाकथित प्रगतियों की गाथा समेट कर भी भारत की गरीबी को बहा कर नहीं ले जा पाया  है । क्या यह हमारी राज व्यवस्था का दोष है या भगवान का प्रकोप ?
                                          तो विवश सुदामा को द्वारिकापुरी की ओर जाना पड़ता है । जहाँ आज द्वारिकाधीश का मन्दिर है वहां से कुछ दूर वेत द्वारिका में सुदामा और श्रीकृष्ण का मिलन हुआ था । वेत द्वारिका तक पहुँचने के लिये अब हमें थोड़ा सा समुद्री जल मार्ग स्टीमर से तय करना पड़ता है पर उस काल में वेत द्वारिका तक पहुँचने  का निश्चय ही कोई स्थलीय मार्ग होगा । चमत्कृत कर देने वाले भब्य और विशाल राजभवन के द्वार पर सुदामा भौचक्के से खड़े हो जाते हैं । । उनकी सुलक्षणा ब्राम्हण पत्नी सुमेधा जानती थी कि किसी मित्र के घर जाते समय साथ में कुछ खाने -पीने की वस्तु भेंट के लिये ले जाना एक शकुन होता है अब  चूँकि घर में और कुछ था ही नहीं इसलिये उन्होंने कुछ टूटे हुये चावल एक साफ़ पुराने कपडे की पोटली बना कर बाँध दिये  थे । सम्भवतः सुमेधा भगवान श्रीकृष्ण की दिब्य शक्तियों से परिचित रही होगी  और उन्हें देवावतार के रूप में लेती होगी । पोटली को बगल में दबाये पुराने घिसे कटि वस्त्र पहने सिर पर बिना पगड़ी और पैरों में बिना जूता सुदामा द्वारिकाधीश के महल के द्वार पर खड़े हैं, शरीर के ऊर्ध्व भाग पर  सम्भवतः कोई पुराना  छिद्र भरा आवरण डाल रखा हो । रात्रि जागरण करने वाले भक्त गवैये प्रभावशाली स्वर लहरी में सुदामा श्रीकृष्ण मिलन गाथा वायु लहरियों पर तरंगायित करते हैं ।
                  " अरे द्वारपालों , कन्हैया से कह दो
                     कि द्वारे सुदामा गरीब आ गया है ।"
                 और कवि नरोत्तमदास ने तो जो सवैया सुदामा के दैन्य का वर्णन करने के लिये लिखा है वह हिन्दी साहित्य की एक चिर प्रकाशवान मणि है । आप सब ने पढ़ तो रखा ही होगा । पर आइये एक बार फिर उन अविस्मरणीय पंक्तियों पर दृष्टिपात कर लें ।
                       "शीश पगा न झगा तन में
                        प्रभु जाने को आहि बसै केहि ग्रामा
                        धोती फटी सी लटी दुपटी
                        अरु पाँय उपानहु की नहिं सामा
                        द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
                        रहै चकि सो वसुधा अभिरामा
                        पूछत दीन दयाल को धाम
                        वतावत आपन नाम सुदामा ।"
               और इसके बाद जो घटित हुआ वह मिलन का पवित्र ह्रदय द्रावक जो दृश्य उपस्थित हुआ वह तो वैष्ण्व भक्तों के लिये स्वर्ग और अपवर्ग दोनों की झाँकी एक साथ प्रस्तुत करता है । प्रेमाश्रुओं की गंगा बाह निकली । संकुचित सुदामा तन्दुल कणों की पोटली बगल में छिपाने लगे । द्वारिकाधीश के घर में टूटे तन्दुल कणों की पुराने कपडे की पोटली में बंधीं भेंट उन्हें अपनी संकोच से झुकी आँखें उठाने ही नहीं देती थी । पर चक्रधारी तो कौतकी है हीं झपट कर पोटली खींच ली बोले पूज्या भाभी की दी हुयी भेंट क्यों छिपा रहे हो ? मुट्ठी भर कर तन्दुल कणों को मुँह में डाल लिया । आह , ऐसा स्वाद तो ब्रम्हाण्ड के किसी और खाद्य और पेय वस्तु में नहीं पाया ।
          
                                 ............................ नितान्त निर्मल आशीर्वाद भरा प्यार इन तन्दुल कणों से निःसृत हो रहा है ।  सुदामा देखते ही रहे । उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका किशोर सखा श्रीकृष्ण इतना बड़ा महामानव है । गुरुपत्नी द्वारा दिये गये चनों की  उन्हें याद आयी । छिः छिः ब्राम्हण पुत्र होकर भी मैं झूठ बोला था । अपने को ही अभिशापित करने का उनका मन हो आया । द्वारिकाधीश मुस्कराये । प्रेमाश्रुओं को हाथ से पोछते हुये बोले हे सखा ,मैं तुम्हारे ह्रदय के भाव जानता हूँ अपने को अपनी ही आँखों में छोटा मत करो । तुम्हें मुझसे छिपाकर चना चबा लेने की कहानी ही तो मेरे जीवन की सभी कहानियों से अधिक प्रचारित -प्रसारित होगी । मेरी ओर देखो मित्र ,मुझे ब्राम्हण सेवक के रूप में स्वीकारो और फिर चावलों के कणों की दूसरी मुट्ठी मुँह में डाली । इसके पहले कि तीसरी मुट्ठी मुँह में डालते महारानी रुक्मणी ने कलाई को प्यार भरे स्पर्श से पकड़कर रोक लगा दी । बोली ,"प्राणेश्वर अपनी पटरानी के लिये भी कुछ छोड़ोगे कि नहीं ? दो लोक तो दे दिये, क्या तीनों लोक भाभी को ही देने होंगें । द्वारिकाधीश के होठों पर मधुर हास्य खेल गया । बोले प्राणेश्वरी ,"प्राणों पर तुम्हारा पूरा अधिकार है । पर पवित्रता ,सच्चायी और हो जाने वाली गलती पर किये गये सच्चे मन के प्रायश्चित्त समाज की समृद्धि और सुरक्षा के लिये ही तो राज्य का सम्पूर्ण वैभव होता है । तपस्वी सुदामा इन्हीं शास्वत मूल्यों के प्रतीक हैं । उनकी मित्रता का मूल्य पीड़ित दुःखित मानवता के बृहत्तर सम्बन्धों से जोड़कर देखो रुक्मणी । मैं जीवन भर अन्याय , अविचार और अभाव को संसार से मिटाने में लगा रहा हूँ , जो उपलब्धि हुयी है वह नगण्य है ,अभी जो करना शेष है उसके लिये मुझे न कितनी बार, कितने युगों में फिर -फिर आना पडेगा । कृष्ण सुदामा की मित्रता और सखा भाव युग -युग तक हर राज्य सत्ता को अभावग्रस्त लोगों की मदद के लिये प्रेरित करता रहेगा । "
                                   कहना न होगा कि रुक्मणी और योगेश्वर कृष्ण के बीच यह बाते उस समय  हुयीं जब सुदामा अन्तः पुर के सुरक्षित विश्राम गृह में रेशमी शैय्या पर लेटे थे । राजराजेश्वरी रुक्मणी और द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के बीच वार्तालाप के लम्बे दौर की कहानी से परिचित होने के लिये हम आगे कभी चर्चा करेंगें । प्रतीक्षा करिये । 

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