Tuesday, 26 November 2019

                                                                     जन्माष्टमी पूजन

                चारो ओर से घनी वृक्षावलियों से घिरा अभ्यारण्य के मध्य में मानव -श्रम द्वारा स्वच्छ सपाट किया हुआ एक विस्तृत मैदान। मैदान के दाहिने पार्श्व में छोटे -छोटे कृषि क्षेत्र जिनमें शालियों की क्यारियाँ लगी हुईं हैं। मैदान के बायें पार्श्व में स्वस्थ हरे -भरे फलदार वृक्षों की चार पंक्तियाँ। आम ,जामुन ,विल्वपत्र और अमरुद के वृक्ष। बीच -बीच में केले की पान्ति जिनमें लम्बी गौहरें लटक रहीं हैं। कुछ खुले में और कुछ पेड़ों के नीचे मिट्टी की सजी -बजी पीठिकाएं बनी हैं । मैदान के उत्तरी भाग  में एक साफ़ -सुथरी मिट्टी ,लकड़ी और त्रण आच्छादित तीन कक्षों की कुटी। कुटी के साथ खुले में तीन ,चार श्वेत -श्याम धेनुयें और उनसे कुछ दूर बंधें धेनु वत्स। कुटी के पीछे मिट्टी की दीवालों के ऊपर बांस की पट्टिकाओं पर लम्बी घास और विशालकाय पेंड़ की पत्तियों से ढका हुआ छप्पर जहां रात्रि में विद्यार्थी विश्राम करतें हैं। छप्पर को सँभ्भालने वाली दीवालों में बने आलों में अरण्डी तेल भरे दीपक।
             आचार्य सन्दीपन की बहुचर्चित पाठशाला जहाँ हर वर्ग का प्रवेश योग्यता के आधार पर सुनिश्चित। गोधूलि वेला । आचार्य सन्दीपन का कुटी में प्रवेश। आचार्य तरुणाई के दौर में हैं काले लहराते बाल ,प्रशस्त भाल ,कंचन जैसा पीताभ गौर वर्ण ,काष्ठ पादुकाओं पर आचार्य के पद ,अधोवस्त्र और शिरोवस्त्र से विभूषित कुटी में प्रवेश करते ही सहचारिणी पत्नी को सम्बोधित करते हुये कहते है ,"सुभागे अन्धेरा होने वाला है ,अन्य सभी छात्र शयनशाला में आ गए हैं पर वसुदेव पुत्र श्री कृष्ण और तपस्वी प्रभुपद पुत्र सुदामा अभी तक दिखाई नहीं पड़े । तुमने उन्हें किस काम के लिये भेजा था ,तीसरे पहर से ही बरसात हो रही है कहीं भटक -भूल तो नहीं गये सुदामा का शरीर तो वैसे भी दुर्बल है। अति वृष्टि उसे नहीं झेलनी चाहिए ।
सुभागा :- आर्य पुत्र पाकशाला की लकडियाँ लगभग समाप्त प्राय थीं। श्री कृष्ण पुष्ट देह का परिश्रमी और आज्ञाकारी आपका प्रिय शिष्य है मैंने उसे बन में गिरी हुयी सूखी लकडियाँ इकठ्ठा करके लाने को कहा था। उसके आग्रह पर उसके साथ के लिए मैंने तपस्वी प्रभु पाद के पुत्र को भी उसके साथ भेज दिया था। आते ही होंगे।
सन्दीपन :- आर्यॆ !दूर जंगल में भटकते -भटकते उन्हें क्षुधा की अनुभूति भी तो हो रही  होगी। तुमने उन्हें थोड़े भुने हुये शस्य कण दे दियें है न ?
सुभागा :- आचार्य आप तो जानते ही हैं कि गुरुमाता होने के नाते मुझे आपके हर शिष्य का ध्यान रखना होता है। कृष्ण तो आगे चला गया था सुदामा को इससे पहले कि दौड़ कर कृष्ण के साथ पहुचे मैंने अपने पास बुला लिया था और काफी सारे भुने हुये चने उसे देकर कह दिया था कि भूख लगने पर दोनों मिलकर खा लें।
सन्दीपन :- स्वास्ति ,आप निश्चय ही आदर्श गुरु माता हैं।
         ( दो पास -पास खड़े विशाल वृक्षों के तनों  में बनें कोटरों में श्री कृष्ण और सुदामा बैठे हैं। घटाटोप अन्धकार और अविरल वर्षा बूंदों के बीच के तने  की कोटरों में सिकुड़े -सहमे बैठे हैं। एक दूसरे  को देख नही पाते  पर बात -चीत के लिये स्वर ऊँचा कर एक दूसरे को साहस बंधा रहें हैं । श्री कृष्ण जी सुदामा से कहते हैं कि उन्हें गहरी भूख लग आयी है। पेड़ों की पत्तियों की  घनी छाह में सूखी लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर पड़ा है। उसे आस -पास की घास -फूस बटोर कर बड़ी चतुराई से ढक दिया गया है त्तकि वह अधिक गीला न हो सके। भूमि पर एक प्रस्तर रख कर उसके ऊपर उसे रखा गया है। इस सारे श्रम में सुदामा की देंन  न के बराबर है ,शरीर से दुर्बल होने के कारण श्री कृष्ण उसे स्वयं कड़े काम से दूर रखते हैं। हाँ उसके साथ बात चीत में उन्हें एक पवित्रता का आभास होता है । वे जानते है कि सुदामा के पिता तपस्वी प्रभुपाद के पास आर्थिक साधनों की कमी है । सुदामा गुरु कृपा से ही इस आश्रम में शिक्षा पा रहा है। वर्षा और तेज हो जाती है । तेज हवा के झोंके ठंडक की  लहर फैलाने लगते हैं। कपकपी लगने लगती है श्री कृष्ण जी फिर आवाज ऊँचीं कर सुदामा से कहते हैं कि भूल हो गयी साथ में कुछ भुना या उबला शस्य लाना चाहिए था। सुदामा उन्हें नहीं बताते कि उनके पास गुरु पत्नी के दिये हुये भुने हुये चने हैं। उन्हें भी गहरी भूख लगी है। न जाने कब वर्षा बंद होगी। उनके अपने पेड़ के तने  का कोटर काफी छोटा है। उसमें पुष्ट श्री कृष्ण नहीं बैठ पायेंगे। एक बार उनके मन में आता है कि उठकर श्री कृष्ण के कोटर में चले जायँ चने चबाने की इच्छा तीव्र हो रही है फिर सोचते हैं कि चलो हम आधा चना चबाये लेते हैं बाकी आधे चने वर्षा बंद होने पर श्री कृष्ण जी को दे देंगे। झोली से चने निकालकर मुँह में डालते हैं। दान्तो से चबाने पर कट -कट की आवाज होती है श्री कृष्ण जी कट -कट की आवाज सुनते हैं। उन्हें कुछ शक होता है।
श्री कृष्ण :- अरे मित्र यह कट -कट करके क्या चबा रहे हो ? क्या गुरुमाता ने कुछ खाने को दिया था। सुदामा संकोच में पड़ जाते हैं। उन्हें याद आता है कि गुरु माता नें स्पष्ट आदेश दिया था कि दोनों मिलकर साथ -साथ खाना। बड़ी चूक हो गयी। क्षुधा की आतुरता ने उन्हें बेचैन कर दिया फिर सोचा मेरे मन में कोई खोट तो थी नहीं मैं तो आधे चने मित्र कृष्ण को देने की सोचता ही था पर यदि वह जान गया कि मैं चने खा रहा हूँ और वह भी बिना उसके बताये तो शायद उसका मन खिन्न हो जाय और क्या पता बात ही बात में गुरु माता को भी बता दे अब तो यही ठीक है कि मैं उसको बताऊँ ही नहीं कि गुरु माता नें उसे चने दिए हैं\ अब तो कुछ चने बचाने भी नहीं हैं सभी को चबा लेना ही अच्छा होगा। फिर सुदामा के मन में एक प्रश्न उठा श्री कृष्ण शरीर और मस्तिष्क दोनों ही द्रष्टियों से सब छात्रों में सर्वोत्तम है कहीं उसने यह आभास पा लिया हो कि मेरे पास खाने की कोई सामग्री है। कुछ रूककर सुदामा ने फिर भुने चने मुँह में डाले ,कोशिश की कि कट -कट का शब्द न हो पर बीच -बीच में कुछ दाने कड़े होते थे और उन्हें तोड़ने के लिए दान्तों की चोट लगानी होती थी थोड़ी बहुत कट -कट की आवाज तो आनी ही थी ।
श्री कृष्ण :- मित्र सुदामा तू तो कभी झूठ नहीं बोलता। मैंने तो कई बार झूठ भी बोल दिया है। कहीं ऐसा तो नहींकि तू कुछ खा रहा हो और मुझसे छिपाने की कोशिश कर रहा हो। सुदामा ने आगे और अधिक पूछ ताछ न हो इसलिए जो जवाब दिया उस जवाब ने श्री कृष्ण को चुप कर दिया।
सुदामा :- श्री कृष्ण तुम सम्पन्न घराने से हो ऐसे घरों में झूठ का इस्तेमाल किया जाता है। मैं गरीब ब्राम्हण पुत्र हूँ झूठ बोलना मेरे कुल का स्वभाव नहीं है। लीलाधर श्री कृष्ण ने कभी भी गुरु गृह में इस बात को प्रकट नहीं किया कि सुदामा नें चने खाकर पुरानी झोली पेंड़ के पास ही फेंक दी थी जिसे वह अगले दिन जब सूखी लकड़ी का गठ्ठर उठाने गया था उठा लाया था और गुरु माता को दे दिया था। गुरु माता ने उससे पूछा था कि चने अच्छे भुने थे न तो वासुदेव पुत्र नें सिर हिला कर स्वीकृति दी थी और कहा था -हाँ मातु आपके हाथ का छुआ अन्न तो देवताओं को भी धन्य कर देता है। आपके दिये ये चने भारत के इतिहास के स्वर्ण प्रष्ठों पर चर्चित होंगे ।
............कुछ वर्षों  बाद दीक्षान्त समारोह हो जाने पर श्री कृष्ण सुदामा से विदायी मागते हुये मथुरा की ओर प्रस्थान करने से पहले कहते हुये सुने जाते हैं मित्र सुदामा तुम एक चरित्रवान ब्राम्हण के पुत्र हो और मेरे गुरु भाई हो। संकोच मत करना हम क्षत्रिय लोग तो सदैव से ब्राम्हणों का आदर करते हैं और उन्हें आदर्श मानते हैं। तुम्हीं ने तो उस बरसात की शाम को यह कहा था कि तुम ब्राम्हण हो और कभी झूठ नहीं बोलते। मेरे सबसे प्रिय गुरु भाई तुम्हारी स्मृति मेरे ह्रदय में सदैव छायी रहेगी कौन जाने भविष्य की गर्त में क्या छिपा है। आवश्यकता पड़े तो अपने इस मित्र से मिल लेना या बुला लेना।
............लगभग १५  वर्ष का अन्तराल। कंस वध और मथुरा पर कंस के पिता महाराजा उग्रसेन का राज्याभिषेक। उग्रसेन का स्वर्गारोहण और श्री कृष्ण द्वारा मथुरा का राज्य संचालन। जरासन्ध का प्रबल आक्रमण। कृष्ण की कूटनीतिक चतुरता। चक्रधारी कृष्ण से रण छोड़  बन जाना । द्वारिका को नयी राजधानी के रूप में स्थापित करना। वैभव शाली द्वारिका सारे आर्यावत में अपनी सम्रद्धि और ऐश्वर्य के लिये विख्यात।
                         सुदामा के पिता की म्रत्यु के बाद पवित्र ,तपस्वी जीवन जीने का व्रत। जीवन की मूलभूत सुविधाओं का अभाव । अपनी पत्नी से आचार्य सन्दीपन के गुरूकुल में अपने गुरु भाई श्री कृष्ण से गहरी मित्रता की चर्चा। नगर के वैष्णव गायक गायिकाओं द्वारा वासुदेव श्री कृष्ण की अद्दभुत नगरी द्वारिकापुरी के ऐश्वर्य का गायन। सुदामा की पत्नी सुमेधा का श्री कृष्ण के पास पति को जाने के लिये आग्रहशील होना। सुदामा के स्वाभिमान को एक गहरी चोट। अपने ब्राम्हणत्व पर अभिमान। अपने ज्ञान और चरित्र पर अभिमान। अपने द्वारा चलाये गये छोटे से गुरुकुल से जो भी उपार्जित हो सके उसी  के सहारे  जीवन नैय्या चलाने की अभिलाषा।  पत्नी द्वारा  घर की उस गरीबी का जिक्र जो दरिद्रता के स्तर तक जा पहुँची है। घर में शीतकाल में ओढ़ने के लिये सोढ़ नही।  खाना बनाने के और खाना सहेजने के शुद्ध स्वच्छ बर्तनों का अभाव ,पूरे पेट खाने के लिये मोटे अन्न का भी अभाव। फिर प्रिय मित्र श्री कृष्ण के पास जाने का अतिरिक्त आग्रह। यहाँ नरोत्तमदास की ह्रदय द्रावक आठ पंक्तियाँ बिना उद्धत किये मन नहीं मानता।
"कोदों सवां   जुडतो भरि पेट
तो न चाहती दधि दूधि मठौती
शीत व्यतीत भयो शिशियात ही
हौं हठेती पै तुम्हें न हठौती
जो जनतेउ न हितु हरि सौं
तो मैं काहै को द्वारिका पेल पठौती
या घर से कबहुँ न गयो प्रिय
टूटो तवा और फूटी कठौती ।"
                 आज २ ० १ ३  के रविवार ० ७ अप्रैल के दिन नरोत्तम दास की ये पंक्तियाँ हिन्दुस्तान के करोड़ो दींन -हीन जनों के घरों की वास्तविक स्थित चित्रित करती हैं। द्वारिका धीश चक्रधारी श्री कृष्ण के काल से लेकर आज तक इतना लम्बा काल प्रवाह अपनी सारी तथा कथित प्रगतियों की गाथा समेट कर भी भारत की गरीबी को बहा कर नहीं ले जा पाया है। क्या यह हमारी राज व्यवस्था का दोष है या भगवान का प्रकोप ?
                 तो विवश सुदामा को द्वारिकापुरी की ओर जाना पड़ता है। जहाँ आज द्वारिकाधीश का मन्दिर है वहां से कुछ दूर वेत द्वारिका में सुदामा और श्री कृष्ण का मिलन हुआ था । वेत  द्वारिका तक  पहुँचने के लिये अब हमेँ थोड़ा सा समुद्री जल मार्ग स्टीमर से तय करना पड़ता है पर उस काल में वेत द्वारिका तक पहुँचने का निश्चय ही कोई स्थलीय मार्ग होगा। चमत्कृत कर देने वाले भब्य और विशाल राज्य भवन के द्वार पर सुदामा भॊचक्के से खड़े हो जाते हैं। उनकी सुलक्षणा ब्राम्हण पत्नी सुमेधा जानती थी कि किसी मित्र के घर जाते समय साथ में कुछ खाने -पीने की वस्तु भेंट के लिये ले जाना एक शकुन होता है अब चूंकि घर में और कुछ था ही नहीं इसलिये उन्होंने कुछ टूटे हुये चावल एक साफ़ पुराने कपड़े की पोटली बना कर बाँध दिये थे। सम्भवत : सुमेधा भगवान श्री कृष्ण की दिब्य शक्तियों से परिचित रही होगी और उन्हें देवावतार के रूप में लेती होगीं। पोटली को बगल में दबाये पुराने घिसे कटि वस्त्र पहने सिर  पर  बिना पगड़ी और पैरों में बिना जूता सुदामा द्वारिकाधीश के महल के द्वार पर खड़े है । शरीर के ऊर्ध्व भाग पर संभवत: कोई पुराना छिद्र भरा आवरण डाल रखा हो। रात्रि जागरण करने वाले भक्त गवैये प्रभावशाली स्वर लहरी में सुदामा श्री कृष्ण मिलन गाथा वायु लहरियों पर तरंगायित करते हैं।
" अरे द्वार पालो ,कन्हैया से कह दो
कि द्वारे सुदामा गरीब आ गया है । "
               और कवि नरोत्तम दास ने तो जो सवैया सुदामा के दैन्य का वर्णन  करने के लिए लिखा है वह हिन्दी साहित्य की एक चिर प्रकाशवान मणि है। आप सबने पढ़ तो रखा ही होगा। पर आइये एक बार फिर उन अविस्मर्णीय पंक्तियों पर द्रष्टिपात  कर लें।
" शीश पगा न झगा तन में
प्रभु जाने को आहि बसै केहि ग्रामा
धोती फटी सी लटी दुपटी
अरु पायं उपानहु की नहिं सामा
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
रहै चकि सो वसुधा अभिरामा
पूछत दीनदयाल को धाम
वतावत आपन नाम सुदामा।"
                     और इसके बाद जो घटित हुआ मिलन का पवित्र ह्रदय द्रावक जो द्रश्य उपस्थित हुआ वह तो वैष्णव भक्तों के लिये स्वर्ग और अपवर्ग दोनों की झांकी एक साथ प्रस्तुत करता है। प्रेमाश्रुओं की गँगा बह निकली। संकुचित सुदामा तन्दुल  कणों की पोटली बगल में छिपाने लगे। द्वारिकाधीश के घर में टूटे तन्दुल कणों की पुराने कपडे की पोटली में बन्धी भेंट उन्हें अपनी संकोच से झुकी आँखें उठाने ही नहीं देती थीं। पर चक्रधारी तो कौतुकी हैं हीं झपट कर पोटली खींच ली बोले पूज्य भाभी की दी हुई भेँट क्यों छिपा रहे हो।मुट्ठी भर कर तन्दुल कणों को मुँह में डाल  लिया। आह! ऐसा स्वाद तो ब्रम्हाण्ड के किसी और खाद्य और पेय वस्तु में नहीं पाया। नितान्त निर्मल आशीर्वाद भरा प्यार इन तन्दुल कणों से नि: सृत हो रहा है। सुदामा देखते ही रहे। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका किशोर सखा श्री कृष्ण इतना बड़ा महामानव है। गुरु पत्नी द्वारा दिये गये चनों की उन्हें याद आयी। छि :छि : ब्राम्हण पुत्र होकर मै झूठ बोला था। अपने को ही अभिशापित करने का उनका मन हो आया। द्वारिका धीश मुस्कराये। प्रेमाश्रुओं को हाँथ से पोछते हुये बोले सखा ,मैं तुम्हारे ह्रदय के भाव जानता हूँ अपने को अपनी ही आँखों में छोटा मत करो तुम्हें मुझसे छिपाकर चना चबा लेने की कहानी ही तो मेरे जीवन की सभी कहानियों से अधिक प्रचारित -प्रसारित होगी।मेरी ओर देखो मित्र , मुझे ब्राम्हण सेवक के रूप में स्वीकारो । और फिर चावलों के कणों की दूसरी मुट्ठी मुंह में डाली। इसके पहले कि तीसरी मुट्ठी मुँह में डालते महारानी रुक्मणी नें कलाई को प्यार भरे स्पर्श से पकड़कर रोक लगा दी बोली -प्राणेश्वर  अपनी पटरानी के लिये भी कुछ छोड़ोगे कि नहीं ? दो लोक तो दे दिये। क्या तीनो लोक भाभी को ही दे देने होंगे। द्वारिकाधीश के होठों पर मधुर हास्य खेल गया बोले प्राणेश्वरी प्राणों पर तुम्हारा पूरा अधिकार है पर पवित्रता ,सच्चाई और हो जाने वाली गलती पर किये गये सच्चे मन के प्रायश्चित्त समाज की सम्रद्धि और सुरक्षा के लिये ही तो राज्य का सम्पूर्ण वैभव होता है। तपस्वी सुदामा इन्ही शाश्वत मूल्यों के प्रतीक हैं। उनकी मित्रता का मूल्य पीड़ित दुखी मानवता के ब्रह्त्तर सम्बन्धों से जोड़कर देखो, रुक्मणी मैं जीवन भर अन्याय ,अविचार और अभाव को संसार से मिटाने में लगा रहा हूँ जो उपलब्धि हुई है वह नगण्य है अभी जो करना शेष है उसके लिये मुझे न जाने कितनी बार कितने युगों में फिर फिर आना पड़ेगा। कृष्ण सुदामा की मित्रता और सखा भाव युग -युग तक हर राज्य सत्ता को अभावग्रस्त लोगों की मदत  के लिए प्रेरित करता रहेगा।
                                             कहना न होगा कि रुक्मणी और योगेश्वर कृष्ण के बीच यह बातें उस समय हुईं जब सुदामा अन्त :पुर के सुरक्षित विश्राम गृह में रेशमी शैय्या पर लेटे  थे। राजराजेश्वरी रुक्मणी और द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के बीच वार्तालाप के लम्बे दौर  की कहानी से परिचित होने के लिये प्रतीक्षा करिये ।
                   

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