स्वर्गारोहण
विन्ध्य की श्रंखलाओं को पार कर महर्षि अगस्त का अनुगमन करते हुये शताधिक आर्य युवक सुदूर दक्षिण की वनस्थलियों में निवास करने लगे थे। उत्तर और दक्षिण का अद्दभुत समागम प्रारम्भ हो गया था। यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिये सुवासित पेड़ों की सूखी डालों को काटकर एकत्रित करने का पवित्र कार्य अनेक सुशोभन युवकों को अपनी ओर आकृष्ट करने लगा था। धीरे -धीरे इन नवयुवकों में से कइयों नें अपने आश्रम बना लिये थे। आस -पास के जंगलों से मुक्त की गयी भूमि इन्हें सम्पन्नता की ओर बढ़ाने में लगी थी। आर्य युवतियां अभी तक पर्याप्त संख्या में दक्षिण के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में नहीं पहुँच पायी थीं। नर -नारी के स्वाभाविक आकर्षण नें कई स्थानीय युवतियों को आर्यावृत से आये नवयुवकों को अपनी ओर खींचने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। कार्य -कारण की तलाश और विज्ञान सम्मत बौद्धिक चिन्तन अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही थे। लगभग सभी यह मान कर चल रहे थे कि योगिक शक्तियों से सम्पन्न नर -नारीअपनी आत्मा को अपने शरीर से अलग कर किसी अन्य शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। और कुछ विशिष्ट शक्तियों के बल पर अपनी आत्मा शून्य देह को लम्बे समय तक क्षरण से बचा सकते हैं। ताकि वे जब चाहें वापस अपने मूल आकार में सजग सक्रिय हो जाँय। शीले ग्राम की नर्तकी चम्पा कुसुम अपने रूप और नृत्य के लिये तो चर्चित थी ही पर साथ ही उसके लालच का भी कोई अन्त न था। चन्दन की लकड़ी काट कर यज्ञ की अग्नि के लिये सुवासित सामग्री जुटाने वाला पुष्ट शरीर का धनी भान दत्त की ओर चम्पा कुसुम का ध्यान केन्द्रित होने लगा। भानदत्त नें थोड़ी -बहुत संम्पत्ति भी अर्जित कर थी और साथ ही भविष्य में उसमें कुछ कर दिखाने की क्षमता भी थी। चम्पा नें भानदत्त की ओर डोरे डाले पर भान नें उसे एक परिचित के अतिरिक्त और कुछ नहीं माना। किसी तरुणी का अपमान और विशिष्टत : किसी प्रार्थिता तरुणी के प्यार का तिरस्कार प्रतिशोध की भावना जगा दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? अब क्या था चम्पा नें राजा के समक्ष भान दत्त को एक अभियोगी के रूप में पेश कर दिया। अभियोग यह था कि भानदत्त नें उससे विवाह सम्बन्ध स्थापित किया था और उसकी स्वीकृत के लिये उसे सहस्त्र पण देने का वादा किया था। पर विवाह सम्बन्ध के बाद अब वह उस वादे से मुकर रहा है। चम्पा रानी नें राजा से न्याय की गुहार लगायी और साथ ही यह भी कहा कि आर्यावृत से आये ये मनचले नवयुवक दक्षिण की कलाप्रेमी युवतियों का उपहास उड़ा रहें हैं। भानदत्त नें अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुये राजा को बताया कि चम्पारानी उसकी परिचित के अतिरिक्त कुछ नहीं है और न ही उसने उन्हें एक सहस्त्र पण देने की बात की है।पर चम्पारानी नर्तकी के रूप में काफी ख्याति कमा चुकी थी और उसने जोर देकर कहा वो जो कह रही है वह ठीक है और भानदत्त को कड़ा से कड़ा दण्ड मिलना चाहिये। राजा पेशोपेश में पड़ गया अब क्या किया जाय ? राजा नें अपने वजीर गूढ द्रष्टि को बुलाया और पूंछा कि सच्चायी का पता कैसे लगाया जाय । गूढ़ द्रष्टि द्वारा भेजे गये राज्य के भिन्न -भिन्न भागों में बहुत से भेदिये घूमा करते थे उनमें से एक नें गूढ़ द्रष्टि को बताया था कि कुशपुरी के निरंजन शाह के पास एक बहुत बुद्धिमान तोता है जो आदमी का बोल बोल लेता है। और हर उलझे हुये प्रश्न की सच्चायी का पता लगा लेता है। इस तोते का नाम हरिभक्त है। निरंजन शाह एक बहुत बड़े साहूकार थे और राजा नें उनकी अपार सम्पदा की उड़ -उड़ कर आने वाली कहानियाँ सुन रखी थीं राजा के हुक्म से हरिभक्त तोते को बड़े देख -रेख के बीच दरबार में लाया गया। अब चम्पारानी और हरिभक्त के बीच बातचीत प्रारम्भ हुयी। न्यायमूर्ति शुकराज नें पूंछा ,"आपका क्या नाम है ?" चम्पारानी बोली ,"हे तोते तू मुझे जाने या न जाने ,सारा राज्य जानता है कि मैं नर्तकी चम्पारानी हूँ। " बेचारा भानुदत्त अपना भोला चेहरा लिये सामने खड़ा था शुकराज नें उससे कुछ नहीं पूंछा , चम्पारानी से उसने फिर पूंछा ,"बोलो भानुदत्त से तुम्हे क्या शिकायत है ?" चम्पारानी नें अपना झूठा अभियोग फिर दोहराया और बोली कि भानुदत्त न केवल झूठा है वरन चरित्र से गिरा हुआ भी है। शुकराज नें पूंछा आपका ब्याह किसके सामने हुआ था । चम्पारानी नें कहा कि उसका ब्याह नागराज के मन्दिर में हुआ था। शुक्राज नें आगे प्रश्न किया ,"वहाँ कौन -कौन उपस्थित था। "चम्पारानी बोली ,"वहाँ नागराज की मूर्ति के अतिरिक्त और कोई भी नहीं था ।"शुकराज आदमी की हंसी हँसे फिर बोले ,"चम्पारानी आपको ब्याह की तारीख याद है। अब बड़ी मुसीबत आ गयी। चम्पारानी नाच के लिये इधर -उधर आया जाया करती थी। दिनों और तारीखों के गड्ड - मड्ड में वे गलती कर बैठीं उन्होंने जिस तारीख का नाम लिया उस दिन वे निरन्जन शाह के एक दोस्त हीराचन्द्र के यहाँ नाच दिखा रही थी। पूरे दिन और रात वहीं पर रहीं थीं। हीराचन्द्र के गाँव से बीसों दर्शक बुलाये गये। जिन्होंने जोर देकर कहा कि चम्पारानी उस दिन भानदत्त से मिली ही नहीं थी वे तो बीसों मील दूर हीराचन्द्र के महल में अपनी कला प्रदर्शन के लिये गयी थी। शुकराज हरिभक्त नें अपना फैसला सुना दिया। चम्पारानी का आरोप झूठा है उसे भरी सभा में भानदत्त से माफी माँगनी पड़ी। पर जब शुकराज को सोने के पिजड़े में दरबार से बाहर निरंजनशाह के घर में ले जाने के लिये रथ पर आसीन किया जा रहा था तो चम्पाबाई नें उसकी ओर आगबबूला आँखों से देखते हुये कहा ," ऐ बड़बोले तोते एक दिन तेरी गर्दन तपती सलाखों से सेंक कर अगर मैंने नहीं खायी तो मेरा नाम चम्पारानी नहीं।" शुकराज आदमियों वाली एक गहरी हँसीं हँसे और रथवान उन्हें लेकर निरंजनशाह के महल की ओर चल पड़ा।
समय बीतता चला गया। चम्पारानी के नाँच की धूम गूँजने लगी। उसने बड़ा महल बनवाया ,काफी धन -दौलत इकठ्ठा कर ली पर उसकी चरित्रहीनता और लालच की कहानियां भी चारो ओर सुनायी पड़ने लगीं। कई बार वह नागराज की मूर्ति के सामने बडबडाती हुयी सुनी जाती थी। हे नागराज मुझे बूढा मत करना। मुझे इसी सुन्दर देह में सिंहासन पर बिठाकर स्वर्ग भेज देना और मेरी सब इच्छायें पूरी हो गयीं हैं पर उस तोते की गर्दन अभी तक हाँथ नहीं लग पायी है। इसे भी पूरा कर दो नागराज। और न जाने क्या हुआ एक दिन निरन्जन शाह के घर से चम्पाबाई का बुलावा आ पहुचा। बात कुछ यों हुयी कि निरंजन शाह के यहाँ पोते का जन्म हुआ और उनकी पत्नी नें नाच गाने के लिये एक बहुत बड़ा आयोजन किया। निरन्जन शाह के लाख मना करने पर भी उनकी पत्नी नें चम्पाबाई को बुला भेजा पर चम्पाबाई जाने को राजी नहीं हुयी। अब निरन्जन शाह की पत्नी के सम्मान की बात चल पड़ी। उन्होंने कहा कि चम्पाबाई जो भी माँगेगी वह देंगीं अगर १०,००० पण भी माँगेगी तो वो देंगीं। चम्पाबाई राजी हो गयी। आखिर लालच ही तो उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। वह रात चम्पाबाई के नाम रही। वैसा नाच राज्य में और कहीँ नहीं हुआ था। उत्सव समाप्ति पर निरन्जन शाह की पत्नी नें चम्पाबाई से जो वह चाहे वह माँगने को कहा अब मौक़ा चम्पाबाई के हाथ आ गया उसने कहा उसे और कुछ नहीं चाहिये सिर्फ हरिभक्त तोते का पिजड़ा चाहिये। निरन्जन शाह की पत्नी नें १ ० हजार पण बढ़ाकर १ लाख पण तक पहुँचा दिये पर चम्पाबाई थी कि टस से मस न हुयी तब निरन्जन शाह की पत्नी नें उससे एक वादा लिया बोली , "हरिभक्त शुकदेव है , मैं उन्हें बेटे से अधिक प्यार करती हूँ वादा करो कि उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं दोगी और वैसे ही रखोगी जैसे वे मेरे यंहां रहते हैं। " अब चम्पारानी झूठी तो थी ही उसने तुंग भद्रा नदी का पानी हाथ में लेकर वादा कर लिया कि वह हरिभक्त को पूरी मर्यादा और सुरक्षा के साथ रखेगी। पर हरिभक्त था जो जानता था कि संकट की एक भयानक घड़ी उसके सामने आ खड़ी हुयी है।
घर पहुचते ही चम्पारानी नें अपने रसोईये को बुला भेजा। रसोइया और उसकी पत्नी दोनों उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये चम्पारानी बोली , " न्याय की डींग हाकने वाले इस तोते के सारे पँख उखाड़ कर अलग कर दो फिर धोकर उसकी गर्दन काट कर लोहे की सलाखों पर लाल लाल अँगारों पर पकाकर मेरे सामने पेश करो। और सभी खाना बाद में होगा। पहले इसकी गर्दन , इसकी कैंची जैसी चोंचऔर इसके सिर में होने वाली बुद्धि भरी तरंगों में कितना स्वाद है इसका अहसास मैं करूँ। अब क्या था हरिभक्त को काष्ठ पट्टिका पर दोनों हाथ से दबाकर रसोइये की पत्नी खड़ी हो गयी। रसोइये नें उसके पंख उखाड़ने शुरू कर दिये। निर्जीव हरिभक्त नंगा लूथाडा बनकर काष्ठ पट्टिका पर पड़ा रहा। रसोइया पानी लेने चला गया और उसकी पत्नी आग बनाने की तैय्यारी में लग गयी। हरिभक्त अभी तक निर्जीव सा पड़ा था। उसके पंख उखड़ गये थे पर वह मर जाने का बहाना किये पड़ा था। हाँ वह उड़ नहीं सकता था। उसने आँखें खोलकर इधर -उधर देखा। रसोई की दीवार में रसोई के धोवन का पानी निकलने के लिए एक मझोला सा छेद था। बड़ी कोशिश करके हरिभक्त काष्ठ पट्टिका से नीचे गिर पड़ा और तेजी से खिसक कर उस मझोले छेद से होता हुआ बाहर निकल गया। कुछ ही हाथ की दूरी पर हरी घास के बीच में झाड़ियाँ थीं जिनमें छिप कर वह चुपचाप बैठा रहा। इधर जब रसोइये की पत्नी नें जब काष्ठ पट्टिका को खाली देखा तो वह डर के मारे मर गयी सोचने लगी कि चम्पारानी उसे अब जिन्दा नहीं छोड़ेगी। उसने तुरन्त पले हुये कबूतरों में से एक का सिर काट डाला और उसे छील -छाल कर आग में अच्छी तरह भूनकर स्वादिष्ट मसाला लगाकर सोने की तश्तरी में लेकर चम्पारानी के पास ले आयी। खुशी की अधिकता में चम्पारानी घर से बाहर तश्तरी हाथ में लिये घूमने लगी। चखती जाती और कहती ," कैसी जीभ चलती थी तेरी। आहा खाने में कितना स्वाद आ रहा है। कितनी अक्ल थी तेरी मुंडी में। आहा कितनी मिठास से मुँह भर गया। आहत हरिभक्त झाड़ी में बैठा सब कुछ सुन रहा था और कभी -कभी भय से कम्पित भी हो जाता था। पर धीरे -धीरे उसके उखड़े हुये पंख कुछ कम कष्ट देने लगे थे और उसे लगा कि शाम होते -होते वह नागराज के मन्दिर के पास पेंड़ के एक डाली के पास जैसे -तैसे उड़ कर पहुँच जायेगा। रात भर डाली पर बैठा रहेगा और सुबह पीछे की खुली खिड़की से नागराज के मन्दिर में घुस कर उनकी मूर्ति के पीछे झुटपुटे में छिपा रहेगा। शायद एकाध दिन में उसमे उड़ने की थोड़ी ताकत आ जाय।
रात बीत गयी सबेरे सूर्योदय से पहले ही चम्पाबाई नागराज के मन्दिर में आयी। कुण्डली मारे विशाल नागराज के अधोभाग पर माथा नवाकर बोली हे सर्पों के देवता तुमने मेरी सारी इच्छायें पूरी कर दीं अब तुम मुझे सदेह तारों के लोक में भेज दो। कहते हैं आपका वंश जमीन के नीचे रहता है पर मैं तो तारों के बीच रहना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि भानदत्त मुझे देह सहित स्वर्ग जाता देख ले और सिर धुन -धुन कर रोये कि मेरी जैसी सुन्दरी का शरीर उसने स्वीकार नहीं किया। हरिभक्त नागराज की मूर्ति के पीछे बैठे सब कुछ सुन रहा था। बोली बोलने में तो वह माहिर था ही। उसने नागराज की सी गम्भीर आवाज में कहा , " चम्पाबाई तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी। तीन दिन के बाद प्रात : इसी समय मुझे नमस्कार कर मन्दिर के बाहर प्रतीक्षा करना। सर्प की आकृति वाला एक स्वर्ण रथ उतरता हुआ दिखायी पड़ेगा वह तुम्हे तारालोक में पहुँचाने के लिये आयेग। पर चम्पारानी तुमने झूठ ,वैश्यावृत्ति ,ठगी और छल -चद्द्म से जो सम्पत्ति इकठ्ठा कर ली है उसका अब क्या अर्थ है। उसे अब दान में दे दो। जो महल बनवाया है उसका अब क्या अर्थ है उसे गिराकर भूमि समतल कर दो वहाँ गरीबों की झोपड़ियां बन जायेंगी। इतना करके तुम तुंग भद्रा नदी में स्नान करो और पवित्र मन लेकर मन्दिर के द्वार पर उपस्थित हो। सभी को खबर कर देना कि तुम्हारा स्वर्गारोहण देखने को आवें। भानुदत्त को खबर अवश्य पहुँचाना। जय करकोटक ,जय वासुकी ,जय शेष नाग।
तीन दिन के समय के बीच हरिभक्त के उखड़े पंखों में कुछ जान आ गयी। वह उड़कर मन्दिर से लगी ऊँची डाल पर बैठ गया । प्रभात होने से पहले ही मन्दिर के आस -पास दर्शकों की भीड़ लगनी प्रारम्भ हो गयी थी। चम्पाबाई का महल सपाट हो गया था। उसकी धन दौलत और आभूषण सभी दान में दिये जा चुके थे। तुंग भद्रा में स्नान कर एक सफ़ेद धोती से ढकी चम्पाबाई की काया अत्यन्त मोहक और पवित्र लग रही थी। भानुदत्त भीड़ से चलकर उसके पास आ खड़ा हुआ। सूर्योदय से पहले ही पेंड की डाल पर बैठे हरिभक्त की गम्भीर आवाज सुनायी पड़ी , " चम्पाबाई आँखें खोलो ,तुम एक पवित्र नारी बन चुकी हो सच्ची सुन्दरता त्याग और पवित्रता में है। विलास ,लोलुपता और शरीर सुख नारी के आभूषण नहीं होते। देखो भानुदत्त तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और मेरी आवाज को पहचानो मैं हरिभक्त हूँ। चम्पाबाई नें आँखें खोली ,भानुदत्त नें बढ़कर उसे गले से लगा लिया। कितना सुखद मिलन था। यही तो सच्चा स्वर्गारोहण था ,पर उस भीड़ में सुवर्ण देश का मन्त्री सुभद्र भी खड़ा था जो जानता था कि उसके महाराज विक्रम की आत्मा तोते में निवास कर रही है। महाराज विक्रम का शरीर सुरक्षित ,महल के अन्त : पुर में रखा था जहाँ कई वर्षों से महारानी लेख चन्द्रिका उनकी प्रतीक्षा कर रहीं थीं। हरिभक्त शुकराज और सुभद्र नें एक दूसरे को देखा ,पहचाना और महारानी लेख चन्द्रिका की याद महाराजा विक्रम की आत्मा में उभर आयी तो क्या शुक की देह छोड़कर अब फिर से अन्त :पुर में जाना होगा ?
( विक्रम पच्चीसी पर आधारित एक कल्पना उड़ान )
विन्ध्य की श्रंखलाओं को पार कर महर्षि अगस्त का अनुगमन करते हुये शताधिक आर्य युवक सुदूर दक्षिण की वनस्थलियों में निवास करने लगे थे। उत्तर और दक्षिण का अद्दभुत समागम प्रारम्भ हो गया था। यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिये सुवासित पेड़ों की सूखी डालों को काटकर एकत्रित करने का पवित्र कार्य अनेक सुशोभन युवकों को अपनी ओर आकृष्ट करने लगा था। धीरे -धीरे इन नवयुवकों में से कइयों नें अपने आश्रम बना लिये थे। आस -पास के जंगलों से मुक्त की गयी भूमि इन्हें सम्पन्नता की ओर बढ़ाने में लगी थी। आर्य युवतियां अभी तक पर्याप्त संख्या में दक्षिण के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में नहीं पहुँच पायी थीं। नर -नारी के स्वाभाविक आकर्षण नें कई स्थानीय युवतियों को आर्यावृत से आये नवयुवकों को अपनी ओर खींचने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था। कार्य -कारण की तलाश और विज्ञान सम्मत बौद्धिक चिन्तन अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही थे। लगभग सभी यह मान कर चल रहे थे कि योगिक शक्तियों से सम्पन्न नर -नारीअपनी आत्मा को अपने शरीर से अलग कर किसी अन्य शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। और कुछ विशिष्ट शक्तियों के बल पर अपनी आत्मा शून्य देह को लम्बे समय तक क्षरण से बचा सकते हैं। ताकि वे जब चाहें वापस अपने मूल आकार में सजग सक्रिय हो जाँय। शीले ग्राम की नर्तकी चम्पा कुसुम अपने रूप और नृत्य के लिये तो चर्चित थी ही पर साथ ही उसके लालच का भी कोई अन्त न था। चन्दन की लकड़ी काट कर यज्ञ की अग्नि के लिये सुवासित सामग्री जुटाने वाला पुष्ट शरीर का धनी भान दत्त की ओर चम्पा कुसुम का ध्यान केन्द्रित होने लगा। भानदत्त नें थोड़ी -बहुत संम्पत्ति भी अर्जित कर थी और साथ ही भविष्य में उसमें कुछ कर दिखाने की क्षमता भी थी। चम्पा नें भानदत्त की ओर डोरे डाले पर भान नें उसे एक परिचित के अतिरिक्त और कुछ नहीं माना। किसी तरुणी का अपमान और विशिष्टत : किसी प्रार्थिता तरुणी के प्यार का तिरस्कार प्रतिशोध की भावना जगा दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? अब क्या था चम्पा नें राजा के समक्ष भान दत्त को एक अभियोगी के रूप में पेश कर दिया। अभियोग यह था कि भानदत्त नें उससे विवाह सम्बन्ध स्थापित किया था और उसकी स्वीकृत के लिये उसे सहस्त्र पण देने का वादा किया था। पर विवाह सम्बन्ध के बाद अब वह उस वादे से मुकर रहा है। चम्पा रानी नें राजा से न्याय की गुहार लगायी और साथ ही यह भी कहा कि आर्यावृत से आये ये मनचले नवयुवक दक्षिण की कलाप्रेमी युवतियों का उपहास उड़ा रहें हैं। भानदत्त नें अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुये राजा को बताया कि चम्पारानी उसकी परिचित के अतिरिक्त कुछ नहीं है और न ही उसने उन्हें एक सहस्त्र पण देने की बात की है।पर चम्पारानी नर्तकी के रूप में काफी ख्याति कमा चुकी थी और उसने जोर देकर कहा वो जो कह रही है वह ठीक है और भानदत्त को कड़ा से कड़ा दण्ड मिलना चाहिये। राजा पेशोपेश में पड़ गया अब क्या किया जाय ? राजा नें अपने वजीर गूढ द्रष्टि को बुलाया और पूंछा कि सच्चायी का पता कैसे लगाया जाय । गूढ़ द्रष्टि द्वारा भेजे गये राज्य के भिन्न -भिन्न भागों में बहुत से भेदिये घूमा करते थे उनमें से एक नें गूढ़ द्रष्टि को बताया था कि कुशपुरी के निरंजन शाह के पास एक बहुत बुद्धिमान तोता है जो आदमी का बोल बोल लेता है। और हर उलझे हुये प्रश्न की सच्चायी का पता लगा लेता है। इस तोते का नाम हरिभक्त है। निरंजन शाह एक बहुत बड़े साहूकार थे और राजा नें उनकी अपार सम्पदा की उड़ -उड़ कर आने वाली कहानियाँ सुन रखी थीं राजा के हुक्म से हरिभक्त तोते को बड़े देख -रेख के बीच दरबार में लाया गया। अब चम्पारानी और हरिभक्त के बीच बातचीत प्रारम्भ हुयी। न्यायमूर्ति शुकराज नें पूंछा ,"आपका क्या नाम है ?" चम्पारानी बोली ,"हे तोते तू मुझे जाने या न जाने ,सारा राज्य जानता है कि मैं नर्तकी चम्पारानी हूँ। " बेचारा भानुदत्त अपना भोला चेहरा लिये सामने खड़ा था शुकराज नें उससे कुछ नहीं पूंछा , चम्पारानी से उसने फिर पूंछा ,"बोलो भानुदत्त से तुम्हे क्या शिकायत है ?" चम्पारानी नें अपना झूठा अभियोग फिर दोहराया और बोली कि भानुदत्त न केवल झूठा है वरन चरित्र से गिरा हुआ भी है। शुकराज नें पूंछा आपका ब्याह किसके सामने हुआ था । चम्पारानी नें कहा कि उसका ब्याह नागराज के मन्दिर में हुआ था। शुक्राज नें आगे प्रश्न किया ,"वहाँ कौन -कौन उपस्थित था। "चम्पारानी बोली ,"वहाँ नागराज की मूर्ति के अतिरिक्त और कोई भी नहीं था ।"शुकराज आदमी की हंसी हँसे फिर बोले ,"चम्पारानी आपको ब्याह की तारीख याद है। अब बड़ी मुसीबत आ गयी। चम्पारानी नाच के लिये इधर -उधर आया जाया करती थी। दिनों और तारीखों के गड्ड - मड्ड में वे गलती कर बैठीं उन्होंने जिस तारीख का नाम लिया उस दिन वे निरन्जन शाह के एक दोस्त हीराचन्द्र के यहाँ नाच दिखा रही थी। पूरे दिन और रात वहीं पर रहीं थीं। हीराचन्द्र के गाँव से बीसों दर्शक बुलाये गये। जिन्होंने जोर देकर कहा कि चम्पारानी उस दिन भानदत्त से मिली ही नहीं थी वे तो बीसों मील दूर हीराचन्द्र के महल में अपनी कला प्रदर्शन के लिये गयी थी। शुकराज हरिभक्त नें अपना फैसला सुना दिया। चम्पारानी का आरोप झूठा है उसे भरी सभा में भानदत्त से माफी माँगनी पड़ी। पर जब शुकराज को सोने के पिजड़े में दरबार से बाहर निरंजनशाह के घर में ले जाने के लिये रथ पर आसीन किया जा रहा था तो चम्पाबाई नें उसकी ओर आगबबूला आँखों से देखते हुये कहा ," ऐ बड़बोले तोते एक दिन तेरी गर्दन तपती सलाखों से सेंक कर अगर मैंने नहीं खायी तो मेरा नाम चम्पारानी नहीं।" शुकराज आदमियों वाली एक गहरी हँसीं हँसे और रथवान उन्हें लेकर निरंजनशाह के महल की ओर चल पड़ा।
समय बीतता चला गया। चम्पारानी के नाँच की धूम गूँजने लगी। उसने बड़ा महल बनवाया ,काफी धन -दौलत इकठ्ठा कर ली पर उसकी चरित्रहीनता और लालच की कहानियां भी चारो ओर सुनायी पड़ने लगीं। कई बार वह नागराज की मूर्ति के सामने बडबडाती हुयी सुनी जाती थी। हे नागराज मुझे बूढा मत करना। मुझे इसी सुन्दर देह में सिंहासन पर बिठाकर स्वर्ग भेज देना और मेरी सब इच्छायें पूरी हो गयीं हैं पर उस तोते की गर्दन अभी तक हाँथ नहीं लग पायी है। इसे भी पूरा कर दो नागराज। और न जाने क्या हुआ एक दिन निरन्जन शाह के घर से चम्पाबाई का बुलावा आ पहुचा। बात कुछ यों हुयी कि निरंजन शाह के यहाँ पोते का जन्म हुआ और उनकी पत्नी नें नाच गाने के लिये एक बहुत बड़ा आयोजन किया। निरन्जन शाह के लाख मना करने पर भी उनकी पत्नी नें चम्पाबाई को बुला भेजा पर चम्पाबाई जाने को राजी नहीं हुयी। अब निरन्जन शाह की पत्नी के सम्मान की बात चल पड़ी। उन्होंने कहा कि चम्पाबाई जो भी माँगेगी वह देंगीं अगर १०,००० पण भी माँगेगी तो वो देंगीं। चम्पाबाई राजी हो गयी। आखिर लालच ही तो उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी। वह रात चम्पाबाई के नाम रही। वैसा नाच राज्य में और कहीँ नहीं हुआ था। उत्सव समाप्ति पर निरन्जन शाह की पत्नी नें चम्पाबाई से जो वह चाहे वह माँगने को कहा अब मौक़ा चम्पाबाई के हाथ आ गया उसने कहा उसे और कुछ नहीं चाहिये सिर्फ हरिभक्त तोते का पिजड़ा चाहिये। निरन्जन शाह की पत्नी नें १ ० हजार पण बढ़ाकर १ लाख पण तक पहुँचा दिये पर चम्पाबाई थी कि टस से मस न हुयी तब निरन्जन शाह की पत्नी नें उससे एक वादा लिया बोली , "हरिभक्त शुकदेव है , मैं उन्हें बेटे से अधिक प्यार करती हूँ वादा करो कि उन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं दोगी और वैसे ही रखोगी जैसे वे मेरे यंहां रहते हैं। " अब चम्पारानी झूठी तो थी ही उसने तुंग भद्रा नदी का पानी हाथ में लेकर वादा कर लिया कि वह हरिभक्त को पूरी मर्यादा और सुरक्षा के साथ रखेगी। पर हरिभक्त था जो जानता था कि संकट की एक भयानक घड़ी उसके सामने आ खड़ी हुयी है।
घर पहुचते ही चम्पारानी नें अपने रसोईये को बुला भेजा। रसोइया और उसकी पत्नी दोनों उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये चम्पारानी बोली , " न्याय की डींग हाकने वाले इस तोते के सारे पँख उखाड़ कर अलग कर दो फिर धोकर उसकी गर्दन काट कर लोहे की सलाखों पर लाल लाल अँगारों पर पकाकर मेरे सामने पेश करो। और सभी खाना बाद में होगा। पहले इसकी गर्दन , इसकी कैंची जैसी चोंचऔर इसके सिर में होने वाली बुद्धि भरी तरंगों में कितना स्वाद है इसका अहसास मैं करूँ। अब क्या था हरिभक्त को काष्ठ पट्टिका पर दोनों हाथ से दबाकर रसोइये की पत्नी खड़ी हो गयी। रसोइये नें उसके पंख उखाड़ने शुरू कर दिये। निर्जीव हरिभक्त नंगा लूथाडा बनकर काष्ठ पट्टिका पर पड़ा रहा। रसोइया पानी लेने चला गया और उसकी पत्नी आग बनाने की तैय्यारी में लग गयी। हरिभक्त अभी तक निर्जीव सा पड़ा था। उसके पंख उखड़ गये थे पर वह मर जाने का बहाना किये पड़ा था। हाँ वह उड़ नहीं सकता था। उसने आँखें खोलकर इधर -उधर देखा। रसोई की दीवार में रसोई के धोवन का पानी निकलने के लिए एक मझोला सा छेद था। बड़ी कोशिश करके हरिभक्त काष्ठ पट्टिका से नीचे गिर पड़ा और तेजी से खिसक कर उस मझोले छेद से होता हुआ बाहर निकल गया। कुछ ही हाथ की दूरी पर हरी घास के बीच में झाड़ियाँ थीं जिनमें छिप कर वह चुपचाप बैठा रहा। इधर जब रसोइये की पत्नी नें जब काष्ठ पट्टिका को खाली देखा तो वह डर के मारे मर गयी सोचने लगी कि चम्पारानी उसे अब जिन्दा नहीं छोड़ेगी। उसने तुरन्त पले हुये कबूतरों में से एक का सिर काट डाला और उसे छील -छाल कर आग में अच्छी तरह भूनकर स्वादिष्ट मसाला लगाकर सोने की तश्तरी में लेकर चम्पारानी के पास ले आयी। खुशी की अधिकता में चम्पारानी घर से बाहर तश्तरी हाथ में लिये घूमने लगी। चखती जाती और कहती ," कैसी जीभ चलती थी तेरी। आहा खाने में कितना स्वाद आ रहा है। कितनी अक्ल थी तेरी मुंडी में। आहा कितनी मिठास से मुँह भर गया। आहत हरिभक्त झाड़ी में बैठा सब कुछ सुन रहा था और कभी -कभी भय से कम्पित भी हो जाता था। पर धीरे -धीरे उसके उखड़े हुये पंख कुछ कम कष्ट देने लगे थे और उसे लगा कि शाम होते -होते वह नागराज के मन्दिर के पास पेंड़ के एक डाली के पास जैसे -तैसे उड़ कर पहुँच जायेगा। रात भर डाली पर बैठा रहेगा और सुबह पीछे की खुली खिड़की से नागराज के मन्दिर में घुस कर उनकी मूर्ति के पीछे झुटपुटे में छिपा रहेगा। शायद एकाध दिन में उसमे उड़ने की थोड़ी ताकत आ जाय।
रात बीत गयी सबेरे सूर्योदय से पहले ही चम्पाबाई नागराज के मन्दिर में आयी। कुण्डली मारे विशाल नागराज के अधोभाग पर माथा नवाकर बोली हे सर्पों के देवता तुमने मेरी सारी इच्छायें पूरी कर दीं अब तुम मुझे सदेह तारों के लोक में भेज दो। कहते हैं आपका वंश जमीन के नीचे रहता है पर मैं तो तारों के बीच रहना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि भानदत्त मुझे देह सहित स्वर्ग जाता देख ले और सिर धुन -धुन कर रोये कि मेरी जैसी सुन्दरी का शरीर उसने स्वीकार नहीं किया। हरिभक्त नागराज की मूर्ति के पीछे बैठे सब कुछ सुन रहा था। बोली बोलने में तो वह माहिर था ही। उसने नागराज की सी गम्भीर आवाज में कहा , " चम्पाबाई तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी। तीन दिन के बाद प्रात : इसी समय मुझे नमस्कार कर मन्दिर के बाहर प्रतीक्षा करना। सर्प की आकृति वाला एक स्वर्ण रथ उतरता हुआ दिखायी पड़ेगा वह तुम्हे तारालोक में पहुँचाने के लिये आयेग। पर चम्पारानी तुमने झूठ ,वैश्यावृत्ति ,ठगी और छल -चद्द्म से जो सम्पत्ति इकठ्ठा कर ली है उसका अब क्या अर्थ है। उसे अब दान में दे दो। जो महल बनवाया है उसका अब क्या अर्थ है उसे गिराकर भूमि समतल कर दो वहाँ गरीबों की झोपड़ियां बन जायेंगी। इतना करके तुम तुंग भद्रा नदी में स्नान करो और पवित्र मन लेकर मन्दिर के द्वार पर उपस्थित हो। सभी को खबर कर देना कि तुम्हारा स्वर्गारोहण देखने को आवें। भानुदत्त को खबर अवश्य पहुँचाना। जय करकोटक ,जय वासुकी ,जय शेष नाग।
तीन दिन के समय के बीच हरिभक्त के उखड़े पंखों में कुछ जान आ गयी। वह उड़कर मन्दिर से लगी ऊँची डाल पर बैठ गया । प्रभात होने से पहले ही मन्दिर के आस -पास दर्शकों की भीड़ लगनी प्रारम्भ हो गयी थी। चम्पाबाई का महल सपाट हो गया था। उसकी धन दौलत और आभूषण सभी दान में दिये जा चुके थे। तुंग भद्रा में स्नान कर एक सफ़ेद धोती से ढकी चम्पाबाई की काया अत्यन्त मोहक और पवित्र लग रही थी। भानुदत्त भीड़ से चलकर उसके पास आ खड़ा हुआ। सूर्योदय से पहले ही पेंड की डाल पर बैठे हरिभक्त की गम्भीर आवाज सुनायी पड़ी , " चम्पाबाई आँखें खोलो ,तुम एक पवित्र नारी बन चुकी हो सच्ची सुन्दरता त्याग और पवित्रता में है। विलास ,लोलुपता और शरीर सुख नारी के आभूषण नहीं होते। देखो भानुदत्त तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है और मेरी आवाज को पहचानो मैं हरिभक्त हूँ। चम्पाबाई नें आँखें खोली ,भानुदत्त नें बढ़कर उसे गले से लगा लिया। कितना सुखद मिलन था। यही तो सच्चा स्वर्गारोहण था ,पर उस भीड़ में सुवर्ण देश का मन्त्री सुभद्र भी खड़ा था जो जानता था कि उसके महाराज विक्रम की आत्मा तोते में निवास कर रही है। महाराज विक्रम का शरीर सुरक्षित ,महल के अन्त : पुर में रखा था जहाँ कई वर्षों से महारानी लेख चन्द्रिका उनकी प्रतीक्षा कर रहीं थीं। हरिभक्त शुकराज और सुभद्र नें एक दूसरे को देखा ,पहचाना और महारानी लेख चन्द्रिका की याद महाराजा विक्रम की आत्मा में उभर आयी तो क्या शुक की देह छोड़कर अब फिर से अन्त :पुर में जाना होगा ?
( विक्रम पच्चीसी पर आधारित एक कल्पना उड़ान )
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