Monday, 6 May 2019

            परशुधर की ओर


                    यह उस युग की बात है जब जिसे हम आज इतिहास के नाम से जानते हैं उसका प्रारंम्भ भी नहीं हुआ था। स्मृति में बहुत पहले की  सहेजी महाकाब्यों में समावेशित धुँधले पुराकाल की कथाएँ अब स्पष्ट रूप से उभरनें में आना -कानी करनें लगीं हैं ।  कहाँ पढ़ा था कि किसी डाल  में अस्सी हजार बाल खिल्य ऋषि लटके हुए थे और जब गरुण जी उस पर बैठ गये तब वह डाल टूट गयी और गरुण जी नें उसे अपनें पन्जों में पकड़े रखा और यत्न पूर्वक ऋषियों को व्यथा पहुँचाये बिना किसी सुरम्य पर्वतीय वादी में उतार दिया । कुछ बड़ा होने पर जब पाश्चात्य विद्वानों का अग्रेजी अनुवाद पढ़ा तो उन्होंने बालखिल्य को Hair Splitter कहकर सम्बोधित किया । इस अनुवाद नें हमें एक नयी सूझ दी । हो सकता है  यह बालखिल्य ऋषि बाल की खाल निकालने वाले तार्किक रहे हों । इन ऋषियों नें किसी एक वन्य प्रान्तर में अपनें प्रचार को दार्शनिक शब्दों में ढालकर वहाँ के वनवासियों तक पहुँचा दिया हो । उनके अनुयायियों की संख्या हजारों में पहुँच गयी ही । वैनतेय गरुण जब इस वन प्रान्तर में वैष्णव धर्म के सन्देश वाहक बनकर पहुँचे तो उन्होंने वैदिक आस्था पर कुतर्क करने वाले इन वाल खिल्यों को किसी दूर पर्वतीय उपत्यका में जाने को विवश कर दिया हो । हाँ ऐसा उन्होंने अहिंसक ढंग से अपनें दर्शन की कुतर्क पर अजेयता सिद्ध करके किया होगा । हो सकता है मेरा यह अनुमान केवल बौद्धिक विलास हो । पर बौद्धिक विलास में जो गगनचुम्बी पैंगे लगती हैं उनका सतांश भी तो ऐन्द्रिक विलास में नहीं होता । तो मैं बात कर रहा था किसी बहुत दूर कालावधि के गहन कुहासे से छन कर आते हुये मानव के मष्तिस्क विकास की । द्विपदीय मानव चतुष्पदीय और बहुपदीय श्रष्टि के शत सहस्त्र प्राणियों से अपनें अस्तित्व को सुरक्षित करने के लिए संघर्षरत था । प्रत्येक क्षण जीवन मरण के बीच झूलता था । प्रत्येक रात्रि  आने वाली मृत्यु की पुकार सुनकर आँखों आँखों में कट जाती थी।  पर मृत्यु को हथेली पर लिये साहसी नवयुवकों की टोलियाँ सहस्त्रों वर्षों तक नग्न अवस्था में और तत्पश्चात अर्ध नग्न अवस्था में दूर दूर तक फैले लता, वृक्ष आच्छादित भयावह कटानों से युक्त विविध वनचरों ,जलचरों से भरे भूमिखण्डों में विचरण किया करती थी। आगे के दो पैर ऋजुता पायी काया के कारण हाथ बनकर स्वतन्त्र परिचालन के लिए मुक्त हो गये थे । और दो मुक्त हाथों की स्वतन्त्र परिचालन क्रिया आने वाली सहस्त्राब्दियों में मानव को प्रकृति का सार्वभौम साम्राज्य बनानें जा रही थी ।
                      ऐसी ही एक टोली में तेजस्वी युवकों ,युवतियों के बीच सूर्य दीप्ति से भरा ओजस्वी मुख और लम्बी पुष्ठ काया  लिये एक नव युवक जंगल प्रान्तर में विचरण कर रहा था । सम्बोधन के लिये हम इस युवक को विद्युत पाद कहकर पुकारेँगेँ ।' माटी 'के अतीत अन्वेषी पाठक जानते ही हैं कि हमारा दिया गया यह नाम केवल सुविधा के लिये है क्योंकि जिस काल की यह बात है उस समय तक भाषा का कोई सुनिश्चित रूप स्थिर ही नहीं हो सका था । टोली में घूमते  हुये विद्युत पाद नें देखा कि जब घन झुण्डों के धवल श्याम  हस्ती आकाश में मँडराते थे और सूँड उठाकर चिघ्घाडते  थे तो उनके गजदन्तों की चमक इतनी कौंध भर देती थी कि सभी जीवित प्राणी भयातुर हो काँप उठते थे । विद्युत पाद नें आदिम मानव मस्तिष्क की चिन्तन तंत्रिकाओं पर दबाव डाल कर सोचना प्रारम्भ किया । मेघीय गजों का यह गर्जन और कौंध शायद जंगल में घूमनें वाले हस्तियों की चिघ्घाड़ और बाहर निकले लम्बे दन्तो की सफेदी से भिन्न है । इस चमक में कुछ रहस्य है । ऐसा लगता है कि शायद कोई आदि शक्ति सब कुछ जला देने वाली जादुयीय चिनगारियों का खेल दिखाती चलती है । अगर यह चिन्गारियाँ हमारी टोली को मिल जायँ तो सभी वन्य पशु हमसे भय खाने लगेंगें और हम वन प्रान्तर के विजेता बनकर इससे उपार्जित होने वाली सभी सामग्री  के अधिकारी हो  जायेंगें । भूमि भी हमारी ,वृक्ष भी हमारे,लतायें भी हमारी ,जलाशय भी हमारे ,और प्रस्तरीय प्रस्तार भी हमारे । दुर्गम हिंसक पशु और भूमिगत सरीसृप हमारे पास भी नहीं आ सकेंगें । कितना सुखद होगा वह जीवन ! हमारी टोली आस -पास की सभी टोलियों से श्रेष्ठ हो जायेगी । पर ऐसा कैसे हो? उसने सोचा कि इसके लिये आँख बंद कर गहरा चिन्तन किया जाय ।
                                 कुछ दिन विद्युत पाद का चिन्तन चलता रहा । उसके मस्तिष्क में आदि शक्ति के कौन कौन से नाम उभरे कोई नहीं जानता । कौन सी रूपाकृतियाँ आयीं कोई नहीं जानता हाँ पर इतना अवश्य है कि उसकी टोली की कई नवयुवतियाँ और नवयुवक चिन्तन के समय उसके मुख पर उभर आने वाले प्रकाश से प्रभावित होने लगे । उन्हें लगा कि यह प्रकाश मेघमालाओं से झरने वाली चिनगारियों से छनकर उसके पास आया है । और फिर एक शाम प्रबल अन्धड़ का प्रवाह चल निकला सारा वन्य प्रान्तर वायु से हिल हिल कर न जाने कितने अजीबो गरीब स्वर निकालने लगा । पशु -पक्षी भी किसी आने वाली दैवीय आपत्ति का अहसास पाकर इधर -उधर छिपने लगे । फिर शीतलता आयी और फिर उड़ती-उतराती ,,इठलाती -बलखाती मेघ मालायें नील गगन को आच्छादित करनें लगीं । अन्धकार बढ़ता गया । विद्युत पाद एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर चिन्तन में डूबा था । अर्ध रात्रि के आस -पास एक भयानक गड़गड़ाहट की आवाज हुयी लगा जैसे सैकड़ों वृक्ष उखड गये हों या फिर दूर की पहाड़ी उखड कर हवा में उड़ रही हो । और फिर विद्युत पाद से केवल 15 -20 डग की दूरी पर आँखों को बन्द कर देने वाली सूर्य की दीप्ति से भी अधिक चमकीली चिनगारियों की एक लपक धरती में धँसती दिखायी पडी । कुछ ही क्षण में वह लपक उलटकर मेघमालाओं में तिरोहित हो गयी । विद्युत पाद नें देखा कि आस -पास चारो ओर अग्नि की प्रभात कालीन सूर्य जैसी लाल -लाल लपटें उठ रही हैं । सभी कुछ जलकर काला हो रहा था । चारो ओर पशु -पक्षियों के झुलसे हुये शरीर पड़े थे । कितने हर्ष की बात थी कि उसकी टोली इस समय एक  दूर सुरक्षित गुफा में आराम कर रही थी । वह स्वयं काफी दूर चलकर इस विशाल वृक्ष के नीचे चिन्तन करनें के लिये आ गया था । विद्युत पाद नें ऊपर निगाह उठायी तो उसे लगा कि आधा वट वृक्ष झुलस चुका हैऔर उसके नीचे की डालों में मेघमालाओं से घिरी आग पसरती जा रही  है । कितना आश्चर्य था कि विद्युत पाद इस आघात से बच गया था । क्या आदि शक्ति नें उसे आसमान से फेंककर चिनगारियों की यह धरोहर उसे सौँप दी है ? अचानक विद्युत पाद को लगा कि वट वृक्ष गिरने वाला है । उसनें सिर पर जल रही एक लम्बी डाल को उठा लिया और तेजी से गुफा की ओर दौड़ चला । रास्ते में यदि कोई जीवित खुंखार जानवर था तो  भी उसे कोई डर  न था क्योंकि वह जानता था कि आदि शक्ति नें उसे एक ताकत दे दी है । अब वह सचमुच ही विद्युत पाद हो गया था । अग्नि की शलाका उसके हाँथ में थी पर समस्या थी कि इस अग्नि को सदा कैसे जलाये रखा जाय ? माना कि चारो ओर घने जंगल थे ,माना कि जलनें की प्रचुर सामग्री थी पर अपनी बस्ती में एक स्थान पर निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना होगा । तभी हिंसक पशुओं ,सरी सृपों और हड्डियाँ कपा देने वाली शीत से रक्षा हो सकेगी । पर उपल वृष्टि और अति वृष्टि में इसे बचाकर कैसे रखा जाय ? चलो देखेंगें  अभी तो सुभागा और अपाला को यह निर्देश देने होंगे कि उनका काम निरन्तर इस अग्नि को जलाये रखना है । कम से कम एक लौ तो सदैव जलती ही रहे फिर उसी एक ज्वाला से अनेक ज्वालायें उत्पन्न कर ली जायेगी । ज्वाला देवी अपनें प्राथमिक रूप में आदि मानव की विचार धारा में प्रवेश कर गयीं और निरन्तर लौ जगाये  रखने की परम्परा नें भी अपना एक स्थायी पूजा विधान बना लिया । विद्युत पाद अब  अपनी टोली का नायक था और यह टोली धीरे धीरे आस पास की अन्य टोलियों को भी लौ बाटती रही पर अब सुभागा विद्युत पाद के अधिक नजदीक आती गयी और दोनों के सम्मोहक प्राकृतिक मिलन नें जिस शिशु को जन्म दिया उसका नाम पड़ा अग्निपाद । शैशव से ही अग्निपाद गहरे  चिन्तन का धनी लगने लगा था । सुहागा और विद्युत पाद शैशव से कैशोर्य की ओर बढ़ते हुये अग्निपाद को देखकर कहा करते थे कि निश्चय ही एक दिन उनका पुत्र मानव इतिहास का अमर पुरुष बनेगा । काल कितनी तेजी से गुजरता है इसका अहसास हमें तब हो पाता है जब हमारी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और हम बृद्ध हो जाते हैं । विद्युत पाद और सुभागा अब ढलान पर थे और अग्निपाद तरुणायी  की चट्टान पर । वट वृक्षों की छाया में बैठकर चिन्तन करनें के बजाय वह दूर -दूर भिन्न -भिन्न रंग की विस्तृत पहाड़ियों पर चढ़कर किसी चट्टान के नीचे बैठता और चिन्तन करता । अग्नि को निरन्तर जलाये रखना अब एक समस्या बन गयी थी । टोली जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती तो किसी न किसी को निरन्तर जलती डाली को हाँथ में लेकर चलना होता । आस -पास की टोलियों से एकाध बार यह सुननें में भी आने लगा कि आग को जलाये रखना इतना आवश्यक हो गया था कि यदि किसी की असावधानी से आग बुझ जाय तो उसे टोली से खदेड़ कर जंगली जानवरों का ग्रास बना दिया जाता था । अग्निहीन टोली को फिर किसी अग्नियुक्त टोली से आग की भीख माँगनीं पड़ती थी और यह उस टोली के लिये  अत्यन्त अपमान का क्षण होता था । एक दिन अग्निपाद काफी दूर चला गया एक पहाड़ी के पत्थर छोटी -छोटी चमकदार बिन्दियों से भरे हुये बड़े सुन्दर लग रहे थे । वह ऊपर तक चढ़ता गया, वह ऊंचाई पर बैठनें ही वाला था कि उसके  पैर की टकराहट से लुढ़कता -पुढकता एक पत्थर नीचे पत्थरों पर जा गिरा । आग की एक कौंध चमक कर बुझ गयी । अग्निपाद को लगा कि शायद उसे कुछ भ्रम हुआ है । पर नहीं -नहीं यह शुभ नहीं था तो क्या किसी ख़ास किस्म के पत्थर अपनें में आग छिपाये हैं ? अग्निपाद नें एक बड़ा सा पत्थर हाथ में उठाकर पूरी ताकत से दूसरे पत्थर पर दे मारा । चिनगारियों की कौंध फ़ैल गयी । अग्निपाद नें आग्नेय पत्थरों की रगड़ से अग्नि उत्पन्न करने की तकनीक का अभ्यास करना शुरू किया । विद्युतपाद और सुभागा अपने इस पुत्र की महान उपलब्धि सेअत्यन्त प्रसन्न हुये पर अब धर्म नें अपना सुनिश्चित स्वरूप स्थित करना शुरू कर दिया था । यज्ञों की परम्परा केवल अग्नि को जलाये रखनें के लिये ही नहीं थी । यज्ञ के माध्यम से देवताओं और पितरों को तृप्त करने की दार्शनिक धारणा जन्म लेने लगी थी । पीढ़ियां पर पीढ़ियां गुजरती गयीं । समय का कारवाँ गुबार उड़ाता चला गया । चन्दन की लकड़ियाँ अग्नि में जलने से सुगन्ध का सम्मोहक वातावरण बननें लगा पर क्या चन्दन की शीतलता में भी अग्नि का निवास हो सकता है इस दिशा में अग्निपाद की परम्परा में जन्मी प्रतिभाशाली सन्तानें सोचनें लगीं और इसी परम्परा में एक महान अन्वेषक दृढ़वती और कालजयी पुरुष नें जन्म लिया जिन्हें जमदग्नि के नाम से जाना जाता है । पत्थरों से आगे बढ़कर लकड़ियों ,अस्थियों से होते हुये ताम्र युग की शुरुआत हो चुकी थी । ताम्र से बने आयुध पाकर कुछ टोलियों के सरदार ......     वाल्मीक रामायण में महाकवि नें परशुराम का आगमन उस समय दिखाया है जब श्री राम और सीताजी का ब्याह संपन्न कराकर राम अयोध्या की ओर प्रस्थान कर रहे थे वहाँ भी उनके आगमन की सूचना प्रकृति में होने वाले अनेक विप्लवकारी परिवर्तनों से प्राप्त होती है। महाकवि तुलसी ने उनका आगमन धनुष भंग के बाद मिथिला के स्वयंबर में ही कराया है। विश्व के अनेक देशों की विशेषत : एशिया के दक्षिणी पूर्वी देशों में प्रचलित परम्परागत जन कथायें भी उन्हें कैलाश वासी शिव और विष्णु अवतार श्री राम से जोड़कर सीता स्वयंबर से सम्बन्धित भिन्न -भिन्न घटनाओं और स्थलों पर उपस्थित करती दिखायी पड़ती है। अतीत की इस मिथकीय कुहासे में झाँककर ऐतिहासिक सत्य की तलाश करना मृग मरीचका के पीछे भ्रमित होना ही जैसा है। पर यह तो ऐतिहासिक सत्य है ही कि जामदग्नेय परशुधर उत्तर और दक्षिण भारत में आज भी अजेय ,शारीरिक शक्ति ,शक्ति संचालन और उच्चतम त्याग प्रियता के प्रतीक बने हुये हैं। कई राज्यों में उनके जन्म दिवस पर सरकारी अवकाश भी घोषित किया जाता है यद्यपि उनके जन्म दिवस का कोई सर्व मान्य विश्वशनीय मैतक्य उभर कर नहीं आ सका है। रामायण में तो वे हैं ही ,महाभारत की कई घटनाओं से भी वे सीधे रूप से जुड़े हैं। कर्ण की शिक्षा और शाप दोनों से ही उनका सम्बन्ध जोड़ा जाता है और शान्तनु पुत्र देव वृत भीष्म की प्रतिज्ञा की चुनौती करते हुये भी वे दिखाए जाते हैं ।
                                      यहाँ वे पराजित तो नहीं होते पर सुनिश्चित विजय उन्हें  नहीं मिलती यद्यपि आने वाले भविष्य में  वे उपेक्षित नारी को प्रकारान्तर से प्रतिशोध लेने के लिये समर्थ बना देते हैं पर वैज्ञानिक शोध के इस काल -परक ऐतिहासिक प्रपन्च में न पड़कर हम 'माटी ' के पाठकों को पवित्र पर्वत श्रंखला पर स्थित उस आश्रम की ओर ले चलते हैं जहाँ काष्ठ घर्षण से अग्नि उत्पन्न कर यज्ञ  की  क्रिया पूरी कर प्रौढ़ अवस्था प्राप्त महर्षि जमदग्नि कुश से बने बिछावन पर चिंतामग्न बैठे हुये हैं । उनकी अधखुली आँखों में २ ३ -२ ४  वर्ष पहले के चलचित्र अपनी गतिविधियाँ अन्कित कर रहें हैं। आस -पास कई योजनों तक फैला वन प्रान्तर और उसमें सुरक्षित पर्वत श्रंखला की एक उठान जिसे अत्यन्त परिश्रम से समतल  कर एक आश्रम का रूप दिया गया था। काष्ठ घर्षण से अग्नि उत्पन्न करके उन्होंने अपने समय में एक चमत्कार कर दिखाया था।साथ ही उनकी पुष्ठ काया और प्रज्वलित नेत्र तथा शस्त्र संचालन में उनकी कुशलता उन्हें अपने समय के साहसी आर्य नवयुवकों में प्रथम पूज्य के पद पर प्रतिष्ठित कर चुकी थी । अविवाहित रह कर मोक्ष की प्राप्ति में साधना रत रहना अब आर्य चिन्तन का प्रमुख तत्व नहीं रह गया था। उसके स्थान पर गृहस्थ जीवन में एक दो स्वस्थ्य सन्तान पैदा कर  नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये निरन्तर संघर्ष रत रहना उतना ही सम्माननीय बन गया था जितना कि मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्न। अत्याचारी असभ्य कबीले आर्य जीवन पद्धति के आदर्शों का विरोध कर रहे थे और यह विरोध इतना हिंसक हो चुका था कि वीर्यवान तरुणों की प्रशिक्षित सजकता के बिना रोका ही नहीं जा सकता था ।  तरुण जमदग्नि इस देव कार्य के शीर्षस्थ संचालक बन गये । ग्रहस्थ बनने की इच्छा जगते ही उनको पाने की लालसा लिये हुये न जाने कितनी सुन्दरी आर्य तरूणियाँ स्वप्नों की लहरियों पर तैरती रहीं पर सौभाग्य जिसे मिलना था उसे ही मिला। अपने काल की अन्यतम सुन्दरी और आर्य नारी आदर्श की प्रतीक रेणुका उनकी सहगामिनी के रूप में आ गयी। कितने ही आर्य नृपति रेणुका को अपने रनिवास में पाकर अपने भाग्य को सराहते पर रेणुका को ऐश्वर्य नहीं वरन इतिहास की अमरता अपेक्षित थी। न जाने कितने अनार्य राजा भी उसे उठाकर ले जाने की योजना बना रहे थे । रेणुका नें अत्यन्त बुद्धिमत्ता के साथ अपने को इस हरण से बचा लिया और वह जमदग्नि की सह्गामनी बनने का सौभाग्य पा गयी।  मिलन के दो वर्ष के भीतर ही परशुधर धरती पर अवतरित हुये। साहसी आर्यों की  उद्यमी पीढ़ियों नें अब तक तांबे की खोज कर ली थी। धरती की कोख से मिट्टी से ढकी प्रस्तर शिलाओं में तांबे को अग्नि में गलाकर नुकीले और गोल धारदार हथियारों में बदला जाने लगा। यदा कदा आयस या लोहा भी खोज लिया गया था।अयस के लिये आयनाशक का भी प्रयोग हो रहा था। और अयन ही शायद आगे चलकर लैटिन से होता हुआ अंग्रेजी में Iron बनकर जा पहुचा। अंग्रेज लोग आर का उच्चारण नहीं करते और Iron को आयन कह कर बोलते हैं। यंहा शब्द समानता की यह चर्चा इसलिये की जा रही है ताकि 'माटी 'के बहुविध्य पाठक प्राचीन आर्य सभ्यता के विस्तार पर शोध परक द्रष्टि डालते रहें। और (Indo) योरोपियन भाषाओं के बहिनापे से परिचित रहें। तो जमदग्नि और रेणुका का पुत्र शैशव पार करते ही सिंह -शावकों से खेलने लगा ,उसने जान लिया कि शक्ति के विना नीति आधारित समाज की स्थापना नहीं की जा सकती। थोड़ा बड़े होते ही उसने माता -पिता से आज्ञां मांग कर मगध की ओर प्रस्थान किया\ कुछ मगध वन पर्यटकों से उसने यह सुना था कि मगध में ताम्र से कहीं अधिक दृढ और मारक धातु खोज ली गयी है और वहाँ पर लौह धनुष और तीर भी बनने लगे हैं। ताम्बे से निर्मित चक्राकार परशु को उसने अपने कन्धे पर उठाया और यह १ ४ वर्षीय किशोर मगध के क्षेत्र में प्रवेश कर वृक्ष- आच्छादित पहाड़ियों पर आश्रम बनाने की योजना में जुट गया। वन- जातियों में भी कुछ ऐसे तरुण निकल आये थे जो आदिम विश्वाशों से ऊपर उठकर आर्य जीवन प्रणाली स्वीकार करने का साहस कर रहे थे ।  इन तरुणों में कई अच्छे शिल्पी ,धातुकार और शस्त्र कारीगर भी पाये जाते थे।  जामदग्नेय एक ऊँची पहाड़ी की चोटी के पास किसी लम्बी -चौड़ी समतल भूमि पट्टिका की तलाश में लग गये। मिथिला जनपद से थोड़ी ही दूर एक ऐसा स्थान उन्हें मिल गया। वनवासियों और जन -जातियों के सहयोग से उन्हें इस स्थल पर प्रस्तर खण्डों को कलात्मक ढंग से जुडुवाकर धूर्जटी त्रिशूल पाणि भगवान् शंकर का मन्दिर खड़ा  कर दिया । उनकी दीर्घ काया ,उनके प्रज्वलित नेत्र ,उनकी विशाल छाती और उनकी लौह भुजायें वनवासियों की आँखों में उन्हें भगवान् शंकर के रूप में ही प्रस्तुत करती थीं फिर धातु शोधकों की मदद से कच्चे लोहे को आग में गलाकर और उसकी मलीनता दूर कर उसे पक्का किया जाय।  आज के तकनीकी विकास के इस आश्चर्यमय विश्व में रह रहे 'माटी 'के पाठक अपनी कल्पना में धातु शोधन की वह प्रक्रिया ले आयें जो हजारों वर्ष पहले अपने प्रारम्भिक रूप में एक प्रयोग के रूप में प्रारम्भ हुई थी। फिर जामदग्नेय नें यहाँ लौह से निर्मित तीन विशाल धनुषों की धातुकारों द्वारा गढ़ाई करवायी। इन धनुषों में बहुत अधिक सफाई करके लोहे की  अदूर  पर सूत जैसी पतली प्रत्यांचाओं का जोड़ किया गया। परशुधर नें उन धनुषों की प्रत्यंचाओं को खींच कर और उन पर लोहे के तीर चढ़ाकर ताड़ के कई बड़े -बड़े पेड़ों को बींध डाला। उन्हें विश्वाश हो गया कि मानव श्रष्टि में उस समय उनके अतिरिक्त और कोई भी ऐसा शक्तिशाली पुरुष नहीं है जो इन धनुषों को संधानित कर सके। फिर परशुधर नें ताम्र निर्मित अपने परशु की भाँति ही एक लौह निर्मित परशु ढलवाया और साथ ही एक लौह त्रिशूल भी।
                                                आर्य चिन्तन में उस समय त्रिदेव की कल्पना ऊँचाई पर पहुँच एकेश्वरवाद की ओर बढ़ रही थी। ब्रम्हा ,विष्णु और महेश तीनों ही सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता के सृजन, पालन और संघारन शक्तियों के प्रतीक बन गये थे। धीरे -धीरे पालन कर्ता विष्णु साधकों द्वारा प्रथम स्थान पर स्थापित हो रहे थे। अपने आश्रम में साधनारत परशुधर अब १ ९  वर्ष के हो गये थे। भगवान् विष्णु की सर्वोच्चता की दार्शनिक खबर उन्हें ऋषियों और चिन्तकों के द्वारा मिल चुकी थी। शिव मन्दिर से कुछ १ ० ०  गज की दूरी पर एक अन्य  पहाड़ी  समतल स्थल पर उन्होंने विष्णु मन्दिर बनाने की योजना बनायी। परशुधर नें अपनी योजना में कभी निष्फल होना तो जाना ही  नहीं  था। दो वर्ष में ही ऋषि पालन कर्ता भगवान् विष्णु का कलात्मक प्रस्तर गृह तैयार हो गया। लोहा तो उपलब्ध था ही उनके हाथ में एक चक्र भी दे दिया गया क्योंकि परशु के साथ नोंकदार पैने चक्र से भी युद्ध में सफलतायें पाने के प्रयास प्रारम्भ हो गए थे। अब परशुधर २१  वर्ष के हो गये थे। पिताके आश्रम से आये हुये लगभग ७ वर्ष बीत चुके थे उन्होंने सोचा कि एक धनुष शिव मन्दिर में रखा रहे और एक भगवान् विष्णु के मंदिर में।  तीसरा धनुष वे स्वयं धारण करें  और लौह परशु तो उनके साथ होगा ही। पिता  के आश्रम में जाने से पहले मिथिला के महान नृपति जनक जो विदेह के नाम से जाने जाते थे उनसे मिलने आये। मिथलेश नें सुन रखा था कि परशुराम उनके राज्य के पास ही एक आश्रम में साधना कर रहें हैं। अपने राज्य में उनकी चर्चायें सुनकर वे अत्यन्त प्रभावित हो उठे थे।  और दर्शन करने को उनके आश्रम में आये थे। राजा जनक नें उम्र में अपने से छोटे होते हुए भी परशुधर को ब्राम्हण ऋषि के नाते प्रणाम किया। यों वे स्वयं विदेह थे और अपने दार्शनिक ज्ञान के लिए सारे आर्यावृत में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। मिथलेश भगवान् शिव के पूजक थे। परशुधर का भब्य शरीर और उनकी बलशाली काया देखकर राजा को विश्वाश हो गया कि निश्चय ही वे एक दैवी पुरुष हैं। परशुधर नें उन्हें बताया कि वे पिता  के आश्रम में कुछ समय के लिये जाना चाहेंगे क्योंकि उनके सुनने में आया है कि कुछ अनाचारी अनार्य राजाओं नें आश्रम में वह कर आने वाली स्वच्छ सरिताओं की जलधारा को रोक लिया है । मिथिलेश नें कहा कि वे अपने आशीर्वाद का कोई चिन्ह अपने प्रतीक के रूप में उनके राजमहल में छोड़ दें। मिथिलेश को ऐसा लगा कि परशुधर के माध्यम से स्वयं त्रिशूलधारी उनसे वार्तालाप कर रहे हैं। परशुधर ने कहा कि उनके पास और कुछ तो नहीं है हाँ इस मन्दिर में रखा हुआ शिव धनुष यदि वे चाहें तो उनके महल में सुरक्षा के लिये रखा जा सकता है। राजा नें इस बात पर हर्ष  ब्यक्त किया। उनके साथ आये बीसों सेवक उस धनुष को उठाने लगे पर धनुष था जो टस से मस नहीं हुआ। परशुधर हँसे बोले अपने सेवकों को हटा लीजिये मैं स्वयं ही इस धनुष आपके राजमहल तक पहुँचा देता हूँ। सम्राट नें कहा कि थोड़ी दूर पर रथ खडा है पर परशुधर नें पैरों पर चलनें का ही आग्रह किया और धनुष लेकर चल पड़े। राजा और उनके  सभी सेवक सैनिक उनके पीछे पैदल  ही चल पड़े  पर  परशुधर की गति प्रबल वायु की भांति अत्यन्त तेज थी और जब विदेह और उनके सेवक सैनिक बहुत देर बाद महल के प्रेक्षागृह में पहुचे तो उन्होंने पाया कि महारानी सुनैना परशुधर को भोजन करा रही हैं और सेविकायें उन पर पंखा झाल रहीं हैं। प्रसाद पाकर महाराजा और महारानी को आशीर्वाद देते हुये परशुधर उठे और बोले विदेह राज आप स्वयं महाज्ञानी हैं।  यह धनुष भगवान् शिव का प्रतीक है। इसे किसी सामान्य पुरुष से दूषित मत करवाना। मैं पिता के आश्रम से लौटकर जब मगध आऊँगा तब फिर इस धनुष की पूजा ,अर्चना करूँगा।
                                            अभी परशुधर विदेह राज के महल से बाहर निकल ही  रहे थे कि थके मादे दो वनवासी बदहवास से आकर उनके चरणों में गिर पड़े बोले हे शिवा अवतार हम कई दिनों की संकट भरी यात्रा के बाद  आप तक पहुँच पाये हैं। आपके पिता पूज्य महर्षि जमदग्नि नें आपको याद किया है। आपकी माता देवी रेणुका का पास के अनार्य  राजा नें अपमान करने का दुस्साहस किया है । भगवान ,क्षमां करें हम पूरी बात न बता पायेंगे । आश्रम में पहुच कर आप सब जान जायेगे ।
                                              विद्युत गति के साथ फर्सा उठाकर परशुधर चल पड़े।  हवाओं के बवन्डर ,धूल  के बबूले उठने लगे। रास्ते के पेंड़ -पौधे कांप -काँप कर हिल गए ,सिहों के जोड़े सहमकर अपने माँदों में सिमट गये ,पेंड़ की ऊँची डालियों पर चीं -चीं करते बन्दर बोली बोलना भूल गये ,एक गँभीर गगन की छाती चीर देने वाला स्वर गूँजा माँ रेणुका का अपमान ,माँ धरित्री का अपमान ? धरती पर से अनाचारी शासकों का समूल विनाश न कर दिया तो मैं परशुधर नहीं। आज २ १  वर्ष का होकर यह शपथ लेता हूँ कि २ १ बार धरती पर से अनाचारियो को समूल उखाड़ दूंगा और जीती गयी धरती तपस्यारत त्यागी ऋषियों की देख -रेख में छोड़ दूँगा , पेड़ों से वृक्षों से ,गगन से ,वायु के झोंकों से एक स्वर गूँजा विजयी हो परशुधर नया इतिहास लिखा जाने का युग प्रारम्भ हो गया है ।

                              (सर्वथा कल्पना पर आधारित )
पुराणों , शास्त्रों  और महाकथाओं के विशारद कल्पना अतिरंजता के लिये लेखक को क्षमां करें ।                                     ..
                                   

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