.......... निरीक्षिका राज रानी नें कहा कि वे उन्हें अगले सत्र में कहिंझरी के मिडिल स्कूल में भेजना चाहेंगीं ,पर माता जी नें कहा कि वे प्राईमरी की मुख्य शिक्षिका बनकर शिवली जाना पसन्द करेंगीं । शिवली की मुख्य अध्यापिका को अगले वर्ष सेवा निवृत्त होना था और लगभग यह तय हो गया कि कुर्सी में कई वर्ष अध्यापन के बाद वे प्राईमरी कन्या पाठशाला शिवली की मुख्य अध्यापिका बनकर आ जायेंगी । माता जी की उम्र उस समय 32 -33 वर्ष की रही होगी और शिक्षा का एक बड़ा लम्बा सेवाकाल उनके सामने था । यह स्वाभाविक था कि इतने लम्बे सेवाकाल में उन्हें अन्य कहीं भी स्थानान्तरित होकर जाना पड़ सकता है । सातवीं कक्षा के अन्तिम दौर तक मुझे नर -नारी सम्बन्धों का थोड़ा -बहुत ज्ञान होने लगा था । मेरे खानदान में दूर की एक चाची थीं जिन्हें बसन्त की दुल्हिन कहकर बुलाते थे । चाचा बसन्त शादी के कुछ माह बाद ही बाग़ में ,गुलापी पेंड से आम तोडनें की कोशिश करनें में नीचे गिरकर दिवंगत हो गये थे । गुलापी नामक आम का लम्बा सररौवा पेंड झाड़ियों के बीच खड़ा था और बच्चे उससे दूर ही रहते थे क्योंकि ऐसा माना जाता था कि गुलापी पर बसन्त चाचा की डरावनी छाया किसी न किसी रूप में उपस्थित रहती है । बसन्त -दुल्हिन कही जाने वाली चाची का रंग साँवला अवश्य था पर उनका मुखड़ा सलोना था । मेरी माँ को वे जिज्जी कहकर बुलाती थीं और जब माता जी कुर्सी में अध्यापन कर रही थीं तथा कमला और मैं गाँव में रह रहे थे ,तो वे अक्सर हमारे खानें पीनें की व्यवस्था भी कर देती थीं । उनका कच्चा घर भी पास में ही था और हम दोनों कभी -कभी उनके पास ही रात में सो जाया करते थे । उनका स्वभाव अत्यन्त मिलनसार और उनका पहनावा सुरिचिपूर्ण था । पास के शुकुल परिवार से हम लोगों का घनिष्ठ सम्बन्ध था क्योंकि मेरी माँ शुकुल परिवार से ही थीं । शुकुल परिवार में ननिहाल होनें के कारण उन घरों से हम लोगों का घर जैसा मेल -जोल था । धीरे -धीरे मुझे ऐसा लगा कि उन्हीं घरों के एक तरुण युवक ,जिन्हें मैं भैय्या कहकर बुलाता था ,इन विधवा चाची के नजदीक आने की कोशिश करनें लगे । वे स्वस्थ लम्बी काठी के पुरुष थे और उनका विवाह हो चुका था । मैं ठीक नहीं जानता कि कैसे और क्यों इस प्रेम कहानी का आरम्भ हुआ पर मैं ऐसा अनुभव करने लगा कि उनके घर आ जाने पर चाची के चेहरे पर अतिरिक्त लालिमा आ जाती थी और वे दौड़ -दौड़ कर या तो शरबत बनातीं या घर में जो कुछ खाने -पीनें को होता ,लाकर रखतीं । आपसी लगाव का यह पहला ही दौर था । आने वाले वर्षों में इस सम्बन्ध की प्रगाढ़ता ,सामाजिक विषमता और मानवीय विवशता के तमाम विषम कोणीय पहलुओं नें मेरे चिन्तन को गहराई से प्रभावित किया । समय तेजी के साथ बढ़ रहा था । आखिर कालचक्र की गति अप्रतिहत होती ही है । द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था पर भारत की आजादी कहीं दिखाई नहीं पड़ती थी । सातवीं क्लास का अच्छा माना जाने वाला विद्यार्थी होनें के नाते अब मैं बड़े -बूढ़ों की राजनीतिक चर्चा बैठा होता तो उठाया नहीं जाता था । गान्धी जी के ' करो या मारो 'के बाद आन्दोलन कुछ शिथिल पड़ गया था ,पर स्वतन्त्रता की चिंनगारी हर भारतीय को उद्दीपन प्रदान कर रही थी । गाँव में यज्ञदत्त ,बड़े भाई और राम रतन पाण्डेय कांग्रेस के जाने माने सिपाही थे । उन दिनों कोई विरोधी पार्टियाँ थी ही नहीं । ,क्योंकि विरोध तो तब होता है जब राजसुख का बटवारा सामनें हो । उस समय तो कारागार यन्त्रणा और फांसी के फन्दे ही सामनें थे । तेजी से ख़बरें आ रही थीं कि आजाद हिन्द फ़ौज के पकड़े जाने वाले सेना नायकों कैप्टन लक्ष्मी बाई ,कैप्टन सहगल और शाहनवाज इत्यादि पैरवी के लिये जवाहर लाल नेहरू और भूला भाई देसाई वकील के रूप में पेश हो रहे है । हम सब अंग्रेजों को तिरस्कार की द्रष्टि से देखते थे क्योंकि वादा करके भी वे भारत को आजादी देनें से मुकर गए थे ।
क्रिप्स मिशन फेल हो चुका था । अमरीका द्वारा जापान के नागासाकी व हिरोशिमा पर डाले गये एटम बम के भीषण सर्वनाश की कहानियाँ संसार भर में गूँज रही थीं । शिवली गाँव भी इनसे अछूता न था । अमरीका की तकनीकी प्रगति को लेकर अजीबोगरीब झूठी सच्ची कहानियाँ सारे गाँव में प्रचलित थीं । विज्ञान का स्नातक तो गाँव में कोई था ही नहीं । मिडिल पास शिक्षकों के पास हिन्दी अखबारों के द्वारा ही कुछ सूचनायें पहुँच रही थीं । इम्तहान के बाद खाली दिनों में मैं कई बार गाँव के बाहर शिव मन्दिर के पास इमली के पेंड के नीचे बैठ जाता था । वहाँ करीब आठ बजे गाँव के लोग अपनें -अपनें पशु इकठ्ठे कर देते थे जिन्हें सिद्धू अहीर का लड़का उदई लेकर चरानें के लिये बाहर दूर चला जाता था । उदई के एक हाँथ में लम्बी लाठी और कन्धे पर लोटा डोर टँगा रहता था । पशुओं के इकठ्ठा होनें और उदई के आने के बीच का समय लोगों की गप्पबाजी में कटता था ।कभी -कभी भूरा जो भूरे रंग का एक अल्बिनो (Albino)तरुण था ,मुँह से हारमोनियम की आवाज निकाला करता था । वह नाक के पुटों को बारी -बारी से दबाकर हूबहू हारमोनियम की नक़ल कर लेता था । कभी -कभी गाँव के मास्टर बच्चन लाल अपनी एक गाय वहाँ छोडनें आते थे । वे शिवली में तो नहीं पढ़ाते थे ,पर पास के गाँव सरैया में प्राईमरी अध्यापक थे । वे अपनी गप्पबाजी के लिये सारे गाँव में चर्चित थे । उन्हें बच्चन लाल गप्पी के नाम से जाना जाता था । उनका बड़ा लड़का सन्तोष मेरा साथी था जो बड़ा होकर कानपुर के डी ० बी ० एस ० परास्नातक कालेज में भूगोल का विभागाध्यक्ष बना । मुझे बच्चन लाल की एक गप्प अब तक याद है वे कहते थे कि जिस प्रकार हमारे पुराणों में गणेश के सिर पर हांथी का सिर जोडनें की बात कही गयी है ,उसी प्रकार अमरीका नें भी कुछ अद्दभुत करिश्में किये हैं । उनके अनुसार कुछ दिन पहले एक वैगन से टकराकर एक आदमी का निचला हिस्सा निर्जीव हो गया और एक भैंस का अगला हिस्सा कट गया । वहाँ के वैज्ञानिक शल्य चिकित्सकों नें भैंस के पिछले हिस्से में उस आदमी का अगला हिस्सा जोड़ दिया है । अब वह बात तो आदमियों की तरह करता है ,पर दूध भैस की तरह देता है । आज मैं जानता हूँ कि यह कितनी सारहीन गप्प है ,पर उन दिनों उनके सर्वज्ञ होनें की खबरों नें हम बच्चों को उन पर विश्वास की झलक आती थी यह तो मैं जानता हूँ कि अंग्रेजी शब्दों की व्याख्या करते समय मुझे कुछ नयी जैविक संरचनाओं का ज्ञान करना पड़ा है । उदाहरण के लिये Potmoto पढ़ाते समय मुझे मालूम हुआ कि पोटेटो में टोमेटो को ग्राफ्ट अर्थात मिला देने से ऐसे एक पौधे का जन्म हुआ जो ऊपर से टोमेटो और जड़ से पोटेटो देता है ,इसलिये उसे पोटोमैटो कहते हैं । आज अन्तरिक्ष विजय और ईरान के सामरिक अभियान के बाद अमरीका की तकनीकी प्रगति परियों के किस्से कहानियों से आगे बढ़ गयी है ,पर फिर भी मुझे ऐसा विश्वास नहीं होता कि उनके वैज्ञानिक शल्यकार आदमी से भैंस का दूध निकलवा पायेंगें । ,पर बच्चन लाल गप्पी नें लड़कपन में मेरे लिये यह संभ्भव कर दिखाया था । मैं सातवीं कक्षा के इम्तहान में बैठ चुका था और सुनिश्चित था कि प्रथम श्रेणी पा जाऊँगा । माता जी आने वाले सत्र में शिवली के प्राईमरी स्कूल की मुख्य अध्यापिका के नाते आ रही थीं । राजा सम्भवतः अभी पांचवीं में प्रवेश कर पाये थे चिन्ता थी तो मेरी कि आगे मैं कहाँ पढूं । शिवली में आठवीं कक्षा थी पर उसे उर्दू मिडिल कहा जाता था । कानपुर में अंग्रेजी स्कूलों में आठवीं में भर्ती होनें के लिये वर्नाकुलर मिडिल पास करके एक एक साल का स्पेशल कोर्स करना होता था तभी आठवीं में भर्ती होती थी । मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि माता जी मेरे फूफा अर्थात अपनें नन्दोई सेठमरा के गुरु प्रसाद से मेरी पढ़ाई के विषय में बातचीत कर चुकी थीं । गुरु प्रसाद शायद एल्गिन मिल में बिनाई मजदूर का काम करते थे और धनकुट्टी कानपुर में दो छोटी कोठरियों और एक बरामदे के हिस्से में रहते थे । मकान में और भी लोग ऊपर तथा नीचे किरायेदार थे । मकान तिमंजिला था और हर भाग में केवल एक शौचालय था ,जिसके सामनें टाट का पर्दा पड़ा रहता था ,तीनों शौचालयों का मल नीचे के शौचालय में रखी बाल्टी में गिरता था और इधर -उधर बिखरता था । गर्मी में विशेषतः और जाड़े में थोड़ा -बहुत मॉल की दुर्गन्ध आती रहती थी ,पर कानपुर में और कहीं रहनें का स्थान ही कहाँ था । गुरु प्रसाद उन कोठरियों में किसी दूर की एक वृद्धा रिश्तेदार के साथ रहते थे जो उनका खाना बनाती थी । अभी उनकी दूसरी शादी की तलाश शुरू हुयी थी । माता जी नें सोचा कि मैं एक वर्ष उनके साथ रहकर काट लूँ तो खाने पीनें का खर्चा वे दे देंगीं । इस निर्णय के अनुसार मुझे अगले वर्ष डी ० ए ० वी ० स्कूल कानपुर के अंग्रेजी स्पेशल क्लास क्लास में भर्ती करा दिया गया । अध्यापिका होनें के नाते माता जी चाहती थीं कि उनका लड़का अंग्रेजी पढ़कर बाबू बन जाये जो गाँव के प्राईमरी अध्यापक से उन दिनों की मान्यता के अनुसार एक श्रेणी ऊपर माना जाता था । गाँव के खुले लम्बे -चौड़े खेतों और मैदानों से भरे वातावरण में रहनें का अभ्यस्त होने के कारण मुझे धनकट्टी की उस सीलन व धुएं भरी जिन्दगी में अजीब सी घुटन होने लगी । टट्टी जाने के लिये लोगों का तांता लगा रहता था क्योंकि हर किरायेदार की काम पर जानें की जल्दी होती थी । मैं संकोचवश खड़ा रहता और जब उल्टा -सीधा निवृत्त हो पाता तो नहा धोकर रूखा -सूखा खा कर जब स्कूल पहुँचता तो देर हो जाती थी । मैं समझता हूँ कि मेरे खर्चे के लिये माँ पर्याप्त धन देती रही होंगीं ,पर फूफा की उस बूढ़ी रिश्तेदार नें मुझे कुछ ऐसा खिलाया हो जो मेरी स्मृति में हो ,ऐसा मैं नहीं कह सकता । एक तरह से मैं उनपर मजबूरी में थोपा हुआ विद्यार्थी रिश्तेदार था ,जिसे वे संकोचवश अपनें साथ रहने दे रहे थे । इसमें मैं उनका दोष नहीं मानता क्योंकि मजदूरी जीवन में इतना मिलता ही कहाँ है जिसमें अपनें निजी लोगों के अतिरिक्त किसी अन्य के लिये सोचा जा सके ,पर शायद उनमें ह्रदय की उदारता भी न थी । शहर में रहकर वे साफ़ सुथरा कुर्ता पाजामा तो पहननें लग गये थे पर सम्भवतः वे नहीं चाहते थे कि गाँव से आया पितृहीन कोई बालक अंग्रेजी पढ़ -लिख कर उनके परिवार से आगे निकल जाये । (क्रमशः )
क्रिप्स मिशन फेल हो चुका था । अमरीका द्वारा जापान के नागासाकी व हिरोशिमा पर डाले गये एटम बम के भीषण सर्वनाश की कहानियाँ संसार भर में गूँज रही थीं । शिवली गाँव भी इनसे अछूता न था । अमरीका की तकनीकी प्रगति को लेकर अजीबोगरीब झूठी सच्ची कहानियाँ सारे गाँव में प्रचलित थीं । विज्ञान का स्नातक तो गाँव में कोई था ही नहीं । मिडिल पास शिक्षकों के पास हिन्दी अखबारों के द्वारा ही कुछ सूचनायें पहुँच रही थीं । इम्तहान के बाद खाली दिनों में मैं कई बार गाँव के बाहर शिव मन्दिर के पास इमली के पेंड के नीचे बैठ जाता था । वहाँ करीब आठ बजे गाँव के लोग अपनें -अपनें पशु इकठ्ठे कर देते थे जिन्हें सिद्धू अहीर का लड़का उदई लेकर चरानें के लिये बाहर दूर चला जाता था । उदई के एक हाँथ में लम्बी लाठी और कन्धे पर लोटा डोर टँगा रहता था । पशुओं के इकठ्ठा होनें और उदई के आने के बीच का समय लोगों की गप्पबाजी में कटता था ।कभी -कभी भूरा जो भूरे रंग का एक अल्बिनो (Albino)तरुण था ,मुँह से हारमोनियम की आवाज निकाला करता था । वह नाक के पुटों को बारी -बारी से दबाकर हूबहू हारमोनियम की नक़ल कर लेता था । कभी -कभी गाँव के मास्टर बच्चन लाल अपनी एक गाय वहाँ छोडनें आते थे । वे शिवली में तो नहीं पढ़ाते थे ,पर पास के गाँव सरैया में प्राईमरी अध्यापक थे । वे अपनी गप्पबाजी के लिये सारे गाँव में चर्चित थे । उन्हें बच्चन लाल गप्पी के नाम से जाना जाता था । उनका बड़ा लड़का सन्तोष मेरा साथी था जो बड़ा होकर कानपुर के डी ० बी ० एस ० परास्नातक कालेज में भूगोल का विभागाध्यक्ष बना । मुझे बच्चन लाल की एक गप्प अब तक याद है वे कहते थे कि जिस प्रकार हमारे पुराणों में गणेश के सिर पर हांथी का सिर जोडनें की बात कही गयी है ,उसी प्रकार अमरीका नें भी कुछ अद्दभुत करिश्में किये हैं । उनके अनुसार कुछ दिन पहले एक वैगन से टकराकर एक आदमी का निचला हिस्सा निर्जीव हो गया और एक भैंस का अगला हिस्सा कट गया । वहाँ के वैज्ञानिक शल्य चिकित्सकों नें भैंस के पिछले हिस्से में उस आदमी का अगला हिस्सा जोड़ दिया है । अब वह बात तो आदमियों की तरह करता है ,पर दूध भैस की तरह देता है । आज मैं जानता हूँ कि यह कितनी सारहीन गप्प है ,पर उन दिनों उनके सर्वज्ञ होनें की खबरों नें हम बच्चों को उन पर विश्वास की झलक आती थी यह तो मैं जानता हूँ कि अंग्रेजी शब्दों की व्याख्या करते समय मुझे कुछ नयी जैविक संरचनाओं का ज्ञान करना पड़ा है । उदाहरण के लिये Potmoto पढ़ाते समय मुझे मालूम हुआ कि पोटेटो में टोमेटो को ग्राफ्ट अर्थात मिला देने से ऐसे एक पौधे का जन्म हुआ जो ऊपर से टोमेटो और जड़ से पोटेटो देता है ,इसलिये उसे पोटोमैटो कहते हैं । आज अन्तरिक्ष विजय और ईरान के सामरिक अभियान के बाद अमरीका की तकनीकी प्रगति परियों के किस्से कहानियों से आगे बढ़ गयी है ,पर फिर भी मुझे ऐसा विश्वास नहीं होता कि उनके वैज्ञानिक शल्यकार आदमी से भैंस का दूध निकलवा पायेंगें । ,पर बच्चन लाल गप्पी नें लड़कपन में मेरे लिये यह संभ्भव कर दिखाया था । मैं सातवीं कक्षा के इम्तहान में बैठ चुका था और सुनिश्चित था कि प्रथम श्रेणी पा जाऊँगा । माता जी आने वाले सत्र में शिवली के प्राईमरी स्कूल की मुख्य अध्यापिका के नाते आ रही थीं । राजा सम्भवतः अभी पांचवीं में प्रवेश कर पाये थे चिन्ता थी तो मेरी कि आगे मैं कहाँ पढूं । शिवली में आठवीं कक्षा थी पर उसे उर्दू मिडिल कहा जाता था । कानपुर में अंग्रेजी स्कूलों में आठवीं में भर्ती होनें के लिये वर्नाकुलर मिडिल पास करके एक एक साल का स्पेशल कोर्स करना होता था तभी आठवीं में भर्ती होती थी । मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि माता जी मेरे फूफा अर्थात अपनें नन्दोई सेठमरा के गुरु प्रसाद से मेरी पढ़ाई के विषय में बातचीत कर चुकी थीं । गुरु प्रसाद शायद एल्गिन मिल में बिनाई मजदूर का काम करते थे और धनकुट्टी कानपुर में दो छोटी कोठरियों और एक बरामदे के हिस्से में रहते थे । मकान में और भी लोग ऊपर तथा नीचे किरायेदार थे । मकान तिमंजिला था और हर भाग में केवल एक शौचालय था ,जिसके सामनें टाट का पर्दा पड़ा रहता था ,तीनों शौचालयों का मल नीचे के शौचालय में रखी बाल्टी में गिरता था और इधर -उधर बिखरता था । गर्मी में विशेषतः और जाड़े में थोड़ा -बहुत मॉल की दुर्गन्ध आती रहती थी ,पर कानपुर में और कहीं रहनें का स्थान ही कहाँ था । गुरु प्रसाद उन कोठरियों में किसी दूर की एक वृद्धा रिश्तेदार के साथ रहते थे जो उनका खाना बनाती थी । अभी उनकी दूसरी शादी की तलाश शुरू हुयी थी । माता जी नें सोचा कि मैं एक वर्ष उनके साथ रहकर काट लूँ तो खाने पीनें का खर्चा वे दे देंगीं । इस निर्णय के अनुसार मुझे अगले वर्ष डी ० ए ० वी ० स्कूल कानपुर के अंग्रेजी स्पेशल क्लास क्लास में भर्ती करा दिया गया । अध्यापिका होनें के नाते माता जी चाहती थीं कि उनका लड़का अंग्रेजी पढ़कर बाबू बन जाये जो गाँव के प्राईमरी अध्यापक से उन दिनों की मान्यता के अनुसार एक श्रेणी ऊपर माना जाता था । गाँव के खुले लम्बे -चौड़े खेतों और मैदानों से भरे वातावरण में रहनें का अभ्यस्त होने के कारण मुझे धनकट्टी की उस सीलन व धुएं भरी जिन्दगी में अजीब सी घुटन होने लगी । टट्टी जाने के लिये लोगों का तांता लगा रहता था क्योंकि हर किरायेदार की काम पर जानें की जल्दी होती थी । मैं संकोचवश खड़ा रहता और जब उल्टा -सीधा निवृत्त हो पाता तो नहा धोकर रूखा -सूखा खा कर जब स्कूल पहुँचता तो देर हो जाती थी । मैं समझता हूँ कि मेरे खर्चे के लिये माँ पर्याप्त धन देती रही होंगीं ,पर फूफा की उस बूढ़ी रिश्तेदार नें मुझे कुछ ऐसा खिलाया हो जो मेरी स्मृति में हो ,ऐसा मैं नहीं कह सकता । एक तरह से मैं उनपर मजबूरी में थोपा हुआ विद्यार्थी रिश्तेदार था ,जिसे वे संकोचवश अपनें साथ रहने दे रहे थे । इसमें मैं उनका दोष नहीं मानता क्योंकि मजदूरी जीवन में इतना मिलता ही कहाँ है जिसमें अपनें निजी लोगों के अतिरिक्त किसी अन्य के लिये सोचा जा सके ,पर शायद उनमें ह्रदय की उदारता भी न थी । शहर में रहकर वे साफ़ सुथरा कुर्ता पाजामा तो पहननें लग गये थे पर सम्भवतः वे नहीं चाहते थे कि गाँव से आया पितृहीन कोई बालक अंग्रेजी पढ़ -लिख कर उनके परिवार से आगे निकल जाये । (क्रमशः )
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