परशुधर की ओर
वाल्मीक रामायण में महाकवि नें परशुराम का आगमन उस समय दिखाया है जब श्री राम और सीताजी का ब्याह संपन्न कराकर राम अयोध्या की ओर प्रस्थान कर रहे थे वहाँ भी उनके आगमन की सूचना प्रकृति में होने वाले अनेक विप्लवकारी परिवर्तनों से प्राप्त होती है। महाकवि तुलसी ने उनका आगमन धनुष भंग के बाद मिथिला के स्वयंबर में ही कराया है। विश्व के अनेक देशों की विशेषत : एशिया के दक्षिणी पूर्वी देशों में प्रचलित परम्परागत जन कथायें भी उन्हें कैलाश वासी शिव और विष्णु अवतार श्री राम से जोड़कर सीता स्वयंबर से सम्बन्धित भिन्न -भिन्न घटनाओं और स्थलों पर उपस्थित करती दिखायी पड़ती है। अतीत की इस मिथकीय कुहासे में झाँककर ऐतिहासिक सत्य की तलाश करना मृग मरीचका के पीछे भ्रमित होना ही जैसा है। पर यह तो ऐतिहासिक सत्य है ही कि जामदग्नेय परशुधर उत्तर और दक्षिण भारत में आज भी अजेय ,शारीरिक शक्ति ,शक्ति संचालन और उच्चतम त्याग प्रियता के प्रतीक बने हुये हैं। कई राज्यों में उनके जन्म दिवस पर सरकारी अवकाश भी घोषित किया जाता है यद्यपि उनके जन्म दिवस का कोई सर्व मान्य विश्वशनीय मैतक्य उभर कर नहीं आ सका है। रामायण में तो वे हैं ही ,महाभारत की कई घटनाओं से भी वे सीधे रूप से जुड़े हैं। कर्ण की शिक्षा और शाप दोनों से ही उनका सम्बन्ध जोड़ा जाता है और शान्तनु पुत्र देव वृत भीष्म की प्रतिज्ञा की चुनौती करते हुये भी वे दिखाए जाते हैं ।
यहाँ वे पराजित तो नहीं होते पर सुनिश्चित विजय उन्हें नहीं मिलती यद्यपि आने वाले भविष्य में वे उपेक्षित नारी को प्रकारान्तर से प्रतिशोध लेने के लिये समर्थ बना देते हैं पर वैज्ञानिक शोध के इस काल -परक ऐतिहासिक प्रपन्च में न पड़कर हम 'माटी ' के पाठकों को पवित्र पर्वत श्रंखला पर स्थित उस आश्रम की ओर ले चलते हैं जहाँ काष्ठ घर्षण से अग्नि उत्पन्न कर यज्ञ की क्रिया पूरी कर प्रौढ़ अवस्था प्राप्त महर्षि जमदग्नि कुश से बने बिछावन पर चिंतामग्न बैठे हुये हैं । उनकी अधखुली आँखों में २ ३ -२ ४ वर्ष पहले के चलचित्र अपनी गतिविधियाँ अन्कित कर रहें हैं। आस -पास कई योजनों तक फैला वन प्रान्तर और उसमें सुरक्षित पर्वत श्रंखला की एक उठान जिसे अत्यन्त परिश्रम से समतल कर एक आश्रम का रूप दिया गया था। काष्ठ घर्षण से अग्नि उत्पन्न करके उन्होंने अपने समय में एक चमत्कार कर दिखाया था।साथ ही उनकी पुष्ठ काया और प्रज्वलित नेत्र तथा शस्त्र संचालन में उनकी कुशलता उन्हें अपने समय के साहसी आर्य नवयुवकों में प्रथम पूज्य के पद पर प्रतिष्ठित कर चुकी थी । अविवाहित रह कर मोक्ष की प्राप्ति में साधना रत रहना अब आर्य चिन्तन का प्रमुख तत्व नहीं रह गया था। उसके स्थान पर गृहस्थ जीवन में एक दो स्वस्थ्य सन्तान पैदा कर नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिये निरन्तर संघर्ष रत रहना उतना ही सम्माननीय बन गया था जितना कि मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्न। अत्याचारी असभ्य कबीले आर्य जीवन पद्धति के आदर्शों का विरोध कर रहे थे और यह विरोध इतना हिंसक हो चुका था कि वीर्यवान तरुणों की प्रशिक्षित सजकता के बिना रोका ही नहीं जा सकता था । तरुण जमदग्नि इस देव कार्य के शीर्षस्थ संचालक बन गये । ग्रहस्थ बनने की इच्छा जगते ही उनको पाने की लालसा लिये हुये न जाने कितनी सुन्दरी आर्य तरूणियाँ स्वप्नों की लहरियों पर तैरती रहीं पर सौभाग्य जिसे मिलना था उसे ही मिला। अपने काल की अन्यतम सुन्दरी और आर्य नारी आदर्श की प्रतीक रेणुका उनकी सहगामिनी के रूप में आ गयी। कितने ही आर्य नृपति रेणुका को अपने रनिवास में पाकर अपने भाग्य को सराहते पर रेणुका को ऐश्वर्य नहीं वरन इतिहास की अमरता अपेक्षित थी। न जाने कितने अनार्य राजा भी उसे उठाकर ले जाने की योजना बना रहे थे । रेणुका नें अत्यन्त बुद्धिमत्ता के साथ अपने को इस हरण से बचा लिया और वह जमदग्नि की सह्गामनी बनने का सौभाग्य पा गयी। मिलन के दो वर्ष के भीतर ही परशुधर धरती पर अवतरित हुये। साहसी आर्यों की उद्यमी पीढ़ियों नें अब तक तांबे की खोज कर ली थी। धरती की कोख से मिट्टी से ढकी प्रस्तर शिलाओं में तांबे को अग्नि में गलाकर नुकीले और गोल धारदार हथियारों में बदला जाने लगा। यदा कदा आयस या लोहा भी खोज लिया गया था।अयस के लिये आयनाशक का भी प्रयोग हो रहा था। और अयन ही शायद आगे चलकर लैटिन से होता हुआ अंग्रेजी में Iron बनकर जा पहुचा। अंग्रेज लोग आर का उच्चारण नहीं करते और Iron को आयन कह कर बोलते हैं। यंहा शब्द समानता की यह चर्चा इसलिये की जा रही है ताकि 'माटी 'के बहुविध्य पाठक प्राचीन आर्य सभ्यता के विस्तार पर शोध परक द्रष्टि डालते रहें। और (Indo) योरोपियन भाषाओं के बहिनापे से परिचित रहें। तो जमदग्नि और रेणुका का पुत्र शैशव पार करते ही सिंह -शावकों से खेलने लगा ,उसने जान लिया कि शक्ति के विना नीति आधारित समाज की स्थापना नहीं की जा सकती। थोड़ा बड़े होते ही उसने माता -पिता से आज्ञां मांग कर मगध की ओर प्रस्थान किया\ कुछ मगध वन पर्यटकों से उसने यह सुना था कि मगध में ताम्र से कहीं अधिक दृढ और मारक धातु खोज ली गयी है और वहाँ पर लौह धनुष और तीर भी बनने लगे हैं। ताम्बे से निर्मित चक्राकार परशु को उसने अपने कन्धे पर उठाया और यह १ ४ वर्षीय किशोर मगध के क्षेत्र में प्रवेश कर वृक्ष- आच्छादित पहाड़ियों पर आश्रम बनाने की योजना में जुट गया। वन- जातियों में भी कुछ ऐसे तरुण निकल आये थे जो आदिम विश्वाशों से ऊपर उठकर आर्य जीवन प्रणाली स्वीकार करने का साहस कर रहे थे । इन तरुणों में कई अच्छे शिल्पी ,धातुकार और शस्त्र कारीगर भी पाये जाते थे। जामदग्नेय एक ऊँची पहाड़ी की चोटी के पास किसी लम्बी -चौड़ी समतल भूमि पट्टिका की तलाश में लग गये। मिथिला जनपद से थोड़ी ही दूर एक ऐसा स्थान उन्हें मिल गया। वनवासियों और जन -जातियों के सहयोग से उन्हें इस स्थल पर प्रस्तर खण्डों को कलात्मक ढंग से जुडुवाकर धूर्जटी त्रिशूल पाणि भगवान् शंकर का मन्दिर खड़ा कर दिया । उनकी दीर्घ काया ,उनके प्रज्वलित नेत्र ,उनकी विशाल छाती और उनकी लौह भुजायें वनवासियों की आँखों में उन्हें भगवान् शंकर के रूप में ही प्रस्तुत करती थीं फिर धातु शोधकों की मदद से कच्चे लोहे को आग में गलाकर और उसकी मलीनता दूर कर उसे पक्का किया जाय। आज के तकनीकी विकास के इस आश्चर्यमय विश्व में रह रहे 'माटी 'के पाठक अपनी कल्पना में धातु शोधन की वह प्रक्रिया ले आयें जो हजारों वर्ष पहले अपने प्रारम्भिक रूप में एक प्रयोग के रूप में प्रारम्भ हुई थी। फिर जामदग्नेय नें यहाँ लौह से निर्मित तीन विशाल धनुषों की धातुकारों द्वारा गढ़ाई करवायी। इन धनुषों में बहुत अधिक सफाई करके लोहे की अदूर पर सूत जैसी पतली प्रत्यांचाओं का जोड़ किया गया। परशुधर नें उन धनुषों की प्रत्यंचाओं को खींच कर और उन पर लोहे के तीर चढ़ाकर ताड़ के कई बड़े -बड़े पेड़ों को बींध डाला। उन्हें विश्वाश हो गया कि मानव श्रष्टि में उस समय उनके अतिरिक्त और कोई भी ऐसा शक्तिशाली पुरुष नहीं है जो इन धनुषों को संधानित कर सके। फिर परशुधर नें ताम्र निर्मित अपने परशु की भाँति ही एक लौह निर्मित परशु ढलवाया और साथ ही एक लौह त्रिशूल भी।
आर्य चिन्तन में उस समय त्रिदेव की कल्पना ऊँचाई पर पहुँच एकेश्वरवाद की ओर बढ़ रही थी। ब्रम्हा ,विष्णु और महेश तीनों ही सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता के सृजन, पालन और संघारन शक्तियों के प्रतीक बन गये थे। धीरे -धीरे पालन कर्ता विष्णु साधकों द्वारा प्रथम स्थान पर स्थापित हो रहे थे। अपने आश्रम में साधनारत परशुधर अब १ ९ वर्ष के हो गये थे। भगवान् विष्णु की सर्वोच्चता की दार्शनिक खबर उन्हें ऋषियों और चिन्तकों के द्वारा मिल चुकी थी। शिव मन्दिर से कुछ १ ० ० गज की दूरी पर एक अन्य पहाड़ी समतल स्थल पर उन्होंने विष्णु मन्दिर बनाने की योजना बनायी। परशुधर नें अपनी योजना में कभी निष्फल होना तो जाना ही नहीं था। दो वर्ष में ही ऋषि पालन कर्ता भगवान् विष्णु का कलात्मक प्रस्तर गृह तैयार हो गया। लोहा तो उपलब्ध था ही उनके हाथ में एक चक्र भी दे दिया गया क्योंकि परशु के साथ नोंकदार पैने चक्र से भी युद्ध में सफलतायें पाने के प्रयास प्रारम्भ हो गए थे। अब परशुधर २१ वर्ष के हो गये थे। पिताके आश्रम से आये हुये लगभग ७ वर्ष बीत चुके थे उन्होंने सोचा कि एक धनुष शिव मन्दिर में रखा रहे और एक भगवान् विष्णु के मंदिर में। तीसरा धनुष वे स्वयं धारण करें और लौह परशु तो उनके साथ होगा ही। पिता के आश्रम में जाने से पहले मिथिला के महान नृपति जनक जो विदेह के नाम से जाने जाते थे उनसे मिलने आये। मिथलेश नें सुन रखा था कि परशुराम उनके राज्य के पास ही एक आश्रम में साधना कर रहें हैं। अपने राज्य में उनकी चर्चायें सुनकर वे अत्यन्त प्रभावित हो उठे थे। और दर्शन करने को उनके आश्रम में आये थे। राजा जनक नें उम्र में अपने से छोटे होते हुए भी परशुधर को ब्राम्हण ऋषि के नाते प्रणाम किया। यों वे स्वयं विदेह थे और अपने दार्शनिक ज्ञान के लिए सारे आर्यावृत में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। मिथलेश भगवान् शिव के पूजक थे। परशुधर का भब्य शरीर और उनकी बलशाली काया देखकर राजा को विश्वाश हो गया कि निश्चय ही वे एक दैवी पुरुष हैं। परशुधर नें उन्हें बताया कि वे पिता के आश्रम में कुछ समय के लिये जाना चाहेंगे क्योंकि उनके सुनने में आया है कि कुछ अनाचारी अनार्य राजाओं नें आश्रम में वह कर आने वाली स्वच्छ सरिताओं की जलधारा को रोक लिया है । मिथिलेश नें कहा कि वे अपने आशीर्वाद का कोई चिन्ह अपने प्रतीक के रूप में उनके राजमहल में छोड़ दें। मिथिलेश को ऐसा लगा कि परशुधर के माध्यम से स्वयं त्रिशूलधारी उनसे वार्तालाप कर रहे हैं। परशुधर ने कहा कि उनके पास और कुछ तो नहीं है हाँ इस मन्दिर में रखा हुआ शिव धनुष यदि वे चाहें तो उनके महल में सुरक्षा के लिये रखा जा सकता है। राजा नें इस बात पर हर्ष ब्यक्त किया। उनके साथ आये बीसों सेवक उस धनुष को उठाने लगे पर धनुष था जो टस से मस नहीं हुआ। परशुधर हँसे बोले अपने सेवकों को हटा लीजिये मैं स्वयं ही इस धनुष आपके राजमहल तक पहुँचा देता हूँ। सम्राट नें कहा कि थोड़ी दूर पर रथ खडा है पर परशुधर नें पैरों पर चलनें का ही आग्रह किया और धनुष लेकर चल पड़े। राजा और उनके सभी सेवक सैनिक उनके पीछे पैदल ही चल पड़े पर परशुधर की गति प्रबल वायु की भांति अत्यन्त तेज थी और जब विदेह और उनके सेवक सैनिक बहुत देर बाद महल के प्रेक्षागृह में पहुचे तो उन्होंने पाया कि महारानी सुनैना परशुधर को भोजन करा रही हैं और सेविकायें उन पर पंखा झाल रहीं हैं। प्रसाद पाकर महाराजा और महारानी को आशीर्वाद देते हुये परशुधर उठे और बोले विदेह राज आप स्वयं महाज्ञानी हैं। यह धनुष भगवान् शिव का प्रतीक है। इसे किसी सामान्य पुरुष से दूषित मत करवाना। मैं पिता के आश्रम से लौटकर जब मगध आऊँगा तब फिर इस धनुष की पूजा ,अर्चना करूँगा।
अभी परशुधर विदेह राज के महल से बाहर निकल ही रहे थे कि थके मादे दो वनवासी बदहवास से आकर उनके चरणों में गिर पड़े बोले हे शिवा अवतार हम कई दिनों की संकट भरी यात्रा के बाद आप तक पहुँच पाये हैं। आपके पिता पूज्य महर्षि जमदग्नि नें आपको याद किया है। आपकी माता देवी रेणुका का पास के अनार्य राजा नें अपमान करने का दुस्साहस किया है । भगवान ,क्षमां करें हम पूरी बात न बता पायेंगे । आश्रम में पहुच कर आप सब जान जायेगे ।
विद्युत गति के साथ फर्सा उठाकर परशुधर चल पड़े। हवाओं के बवन्डर ,धूल के बबूले उठने लगे। रास्ते के पेंड़ -पौधे कांप -काँप कर हिल गए ,सिहों के जोड़े सहमकर अपने माँदों में सिमट गये ,पेंड़ की ऊँची डालियों पर चीं -चीं करते बन्दर बोली बोलना भूल गये ,एक गँभीर गगन की छाती चीर देने वाला स्वर गूँजा माँ रेणुका का अपमान ,माँ धरित्री का अपमान ? धरती पर से अनाचारी शासकों का समूल विनाश न कर दिया तो मैं परशुधर नहीं। आज २ १ वर्ष का होकर यह शपथ लेता हूँ कि २ १ बार धरती पर से अनाचारियो को समूल उखाड़ दूंगा और जीती गयी धरती तपस्यारत त्यागी ऋषियों की देख -रेख में छोड़ दूँगा , पेड़ों से वृक्षों से ,गगन से ,वायु के झोंकों से एक स्वर गूँजा विजयी हो परशुधर नया इतिहास लिखा जाने का युग प्रारम्भ हो गया है ।
(सर्वथा कल्पना पर आधारित )
पुराणों , शास्त्रों और महाकथाओं के विशारद कल्पना अतिरंजता के लिये लेखक को क्षमां करें ।
आर्य चिन्तन में उस समय त्रिदेव की कल्पना ऊँचाई पर पहुँच एकेश्वरवाद की ओर बढ़ रही थी। ब्रम्हा ,विष्णु और महेश तीनों ही सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता के सृजन, पालन और संघारन शक्तियों के प्रतीक बन गये थे। धीरे -धीरे पालन कर्ता विष्णु साधकों द्वारा प्रथम स्थान पर स्थापित हो रहे थे। अपने आश्रम में साधनारत परशुधर अब १ ९ वर्ष के हो गये थे। भगवान् विष्णु की सर्वोच्चता की दार्शनिक खबर उन्हें ऋषियों और चिन्तकों के द्वारा मिल चुकी थी। शिव मन्दिर से कुछ १ ० ० गज की दूरी पर एक अन्य पहाड़ी समतल स्थल पर उन्होंने विष्णु मन्दिर बनाने की योजना बनायी। परशुधर नें अपनी योजना में कभी निष्फल होना तो जाना ही नहीं था। दो वर्ष में ही ऋषि पालन कर्ता भगवान् विष्णु का कलात्मक प्रस्तर गृह तैयार हो गया। लोहा तो उपलब्ध था ही उनके हाथ में एक चक्र भी दे दिया गया क्योंकि परशु के साथ नोंकदार पैने चक्र से भी युद्ध में सफलतायें पाने के प्रयास प्रारम्भ हो गए थे। अब परशुधर २१ वर्ष के हो गये थे। पिताके आश्रम से आये हुये लगभग ७ वर्ष बीत चुके थे उन्होंने सोचा कि एक धनुष शिव मन्दिर में रखा रहे और एक भगवान् विष्णु के मंदिर में। तीसरा धनुष वे स्वयं धारण करें और लौह परशु तो उनके साथ होगा ही। पिता के आश्रम में जाने से पहले मिथिला के महान नृपति जनक जो विदेह के नाम से जाने जाते थे उनसे मिलने आये। मिथलेश नें सुन रखा था कि परशुराम उनके राज्य के पास ही एक आश्रम में साधना कर रहें हैं। अपने राज्य में उनकी चर्चायें सुनकर वे अत्यन्त प्रभावित हो उठे थे। और दर्शन करने को उनके आश्रम में आये थे। राजा जनक नें उम्र में अपने से छोटे होते हुए भी परशुधर को ब्राम्हण ऋषि के नाते प्रणाम किया। यों वे स्वयं विदेह थे और अपने दार्शनिक ज्ञान के लिए सारे आर्यावृत में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। मिथलेश भगवान् शिव के पूजक थे। परशुधर का भब्य शरीर और उनकी बलशाली काया देखकर राजा को विश्वाश हो गया कि निश्चय ही वे एक दैवी पुरुष हैं। परशुधर नें उन्हें बताया कि वे पिता के आश्रम में कुछ समय के लिये जाना चाहेंगे क्योंकि उनके सुनने में आया है कि कुछ अनाचारी अनार्य राजाओं नें आश्रम में वह कर आने वाली स्वच्छ सरिताओं की जलधारा को रोक लिया है । मिथिलेश नें कहा कि वे अपने आशीर्वाद का कोई चिन्ह अपने प्रतीक के रूप में उनके राजमहल में छोड़ दें। मिथिलेश को ऐसा लगा कि परशुधर के माध्यम से स्वयं त्रिशूलधारी उनसे वार्तालाप कर रहे हैं। परशुधर ने कहा कि उनके पास और कुछ तो नहीं है हाँ इस मन्दिर में रखा हुआ शिव धनुष यदि वे चाहें तो उनके महल में सुरक्षा के लिये रखा जा सकता है। राजा नें इस बात पर हर्ष ब्यक्त किया। उनके साथ आये बीसों सेवक उस धनुष को उठाने लगे पर धनुष था जो टस से मस नहीं हुआ। परशुधर हँसे बोले अपने सेवकों को हटा लीजिये मैं स्वयं ही इस धनुष आपके राजमहल तक पहुँचा देता हूँ। सम्राट नें कहा कि थोड़ी दूर पर रथ खडा है पर परशुधर नें पैरों पर चलनें का ही आग्रह किया और धनुष लेकर चल पड़े। राजा और उनके सभी सेवक सैनिक उनके पीछे पैदल ही चल पड़े पर परशुधर की गति प्रबल वायु की भांति अत्यन्त तेज थी और जब विदेह और उनके सेवक सैनिक बहुत देर बाद महल के प्रेक्षागृह में पहुचे तो उन्होंने पाया कि महारानी सुनैना परशुधर को भोजन करा रही हैं और सेविकायें उन पर पंखा झाल रहीं हैं। प्रसाद पाकर महाराजा और महारानी को आशीर्वाद देते हुये परशुधर उठे और बोले विदेह राज आप स्वयं महाज्ञानी हैं। यह धनुष भगवान् शिव का प्रतीक है। इसे किसी सामान्य पुरुष से दूषित मत करवाना। मैं पिता के आश्रम से लौटकर जब मगध आऊँगा तब फिर इस धनुष की पूजा ,अर्चना करूँगा।
अभी परशुधर विदेह राज के महल से बाहर निकल ही रहे थे कि थके मादे दो वनवासी बदहवास से आकर उनके चरणों में गिर पड़े बोले हे शिवा अवतार हम कई दिनों की संकट भरी यात्रा के बाद आप तक पहुँच पाये हैं। आपके पिता पूज्य महर्षि जमदग्नि नें आपको याद किया है। आपकी माता देवी रेणुका का पास के अनार्य राजा नें अपमान करने का दुस्साहस किया है । भगवान ,क्षमां करें हम पूरी बात न बता पायेंगे । आश्रम में पहुच कर आप सब जान जायेगे ।
विद्युत गति के साथ फर्सा उठाकर परशुधर चल पड़े। हवाओं के बवन्डर ,धूल के बबूले उठने लगे। रास्ते के पेंड़ -पौधे कांप -काँप कर हिल गए ,सिहों के जोड़े सहमकर अपने माँदों में सिमट गये ,पेंड़ की ऊँची डालियों पर चीं -चीं करते बन्दर बोली बोलना भूल गये ,एक गँभीर गगन की छाती चीर देने वाला स्वर गूँजा माँ रेणुका का अपमान ,माँ धरित्री का अपमान ? धरती पर से अनाचारी शासकों का समूल विनाश न कर दिया तो मैं परशुधर नहीं। आज २ १ वर्ष का होकर यह शपथ लेता हूँ कि २ १ बार धरती पर से अनाचारियो को समूल उखाड़ दूंगा और जीती गयी धरती तपस्यारत त्यागी ऋषियों की देख -रेख में छोड़ दूँगा , पेड़ों से वृक्षों से ,गगन से ,वायु के झोंकों से एक स्वर गूँजा विजयी हो परशुधर नया इतिहास लिखा जाने का युग प्रारम्भ हो गया है ।
(सर्वथा कल्पना पर आधारित )
पुराणों , शास्त्रों और महाकथाओं के विशारद कल्पना अतिरंजता के लिये लेखक को क्षमां करें ।
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