Tuesday, 23 April 2019

                                                     आदि पूर्वजों की ओर 


            एवरेस्ट की चोटी को फ़तेह करने वाले प्रथम दो पर्वतारोही एडमण्ड हिलेरी ( ऑस्ट्रेलिया ) और तेनजिंग नर्वे (इण्डिया ) के नामों से भला कौन परिचित न होगा | और अब तो भारत से ही एवरेस्ट की चोटी पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने वालों की संख्या 20 से अधिक हो गयी होगी | अंग्रेजी की मशहूर कहावत है -" what a man has done, a man can do ." सीधे -साधे  शब्दों में  इसका अर्थ यह निकलता है प्रयास करने से हर मनुष्य सफलता प्राप्त कर  सकता है | पर प्रत्येक सफलता सापेक्षिक होती है | अर्थात हमारी पायी हुयी सफलता किसी से अधिक वजनदार हो सकती है पर किसी से कम वजनदार | यह ठीक है कि बहुत से नर- नारी    माउन्ट एवरेस्ट की चोटी फ़तेह कर चुके हैं पर उन लोगों की संख्या कई अंकों में जायेगी जो प्रयास करने पर भी चोटी तक पहुंचनें में असफल रहे हैं | एक दूसरा साधारण उदाहरण दें आज के हजारों किशोर और तरुणायी के द्वार पर खड़े युवा क्रिकेट के शौक़ीन हैं और क्रिकेट का खेल खेलते हैं | पर इनमें से तेन्दुलकर ,धोनी , सहवाग और गौतम गम्भीर बननें की क्षमता किसी एकाध विरले में ही हो सकती है पूरे प्रयास के बावजूद भी हम उच्चतम कोटि की सफलता पाने में असमर्थ रहते हैं यद्यपि सफलता की कुछ श्रेणियां लाँघकर हम ऊपर अवश्य पहुँच जाते हैं | कुछ विशेष प्रकार की प्रतिभायें प्रकृति की अनूठी देन होती हैं  उदाहरण के लिये लता मंगेशकर का स्वर भारत की बड़ी से बड़ी गायिकाओं के लिये अभी तक दुर्लभ सा लगता है | शहनशाह अकबर के काल में भी एक तानसेन थे | हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि विज्ञान की प्रगति ने जन सामान्य को उस आनन्द को पा लेने की पहुँच दे दी है जो पहले राजा महाराजा और शहनशाह तथा उनके दरबारियों को  ही मयस्सर होता था | आज लता मंगेशकर ,आशा भोसले ,किशोर कुमार ,मुहम्मद रफ़ी के गाये गीत ,छोटा सा मजदूर भी चाय का प्याला पीता हुआ चाय की दुकान  पर सुन सकता है | मध्य काल में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती | पर हम जो कहना चाह रहे हैं और जिस तथ्य की ओर इशारा कर रहे हैं वह यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी- अपनी  क्षमतायें होती हैं | उचित परिवेश ,उचित वातावरण और उचित प्रोत्साहन मिलने पर प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर निहित क्षमता का समुचित विकास तो कर सकता है पर यह सोचना कि सभी की सामर्थ्य उच्चतम स्तर की हो जायेगी एक भ्रम मात्र है | | यदि ऐसा होता तो मानव सभ्यता के प्रारम्भ से आज तक विश्व में पाने वाला अपार वैविध्य समाप्त प्राय हो चुका होता और आकार ,प्रकार उपलब्धियों और प्रतिभाओं का एक प्लेट्यू (Plateu) tतैय्यार हो जाता ऐसा न होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि श्रष्टि की विभिन्नता को हमें सहज रूप में स्वीकार करना होगा |
                   दुनिया के चिन्तकों ,विचारकों ,पैगम्बरों और धर्म गुरुओं नें इस विभिन्नता के कारणों की खोज कर दार्शनिक कल्पनाओं को रूपायित किया है | | हर धर्म ने यह प्रयास किया है कि कल्पना को बुद्धिपरक रूप देकर उसे जन सामान्य के लिये विश्वसनीय बनाया जाय | यह दूसरी बात है कि विज्ञान के बढ़ते कदमों ने इन कल्पनाओं के ऊपर चढ़े तार्किक आवरणों को उतारकर उन्हें काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया है फिर भी विश्वासों मजहबों और सम्प्रदायों की पुराणी मान्यतायें अभी तक पूरी तरह न असर नहीं हुयीं | ब्रम्हाण्ड के रहस्य को विज्ञान के बढ़ते  कदम जितना अधिक खोलते हैं उतना ही अधिक वह अपनी आन्तरिक जटिलता प्रकट करता है | यह भी एक कारण है कि अभी तक Hell, Heads, और Heaven की धारणायें पूरा असर नहीं खो सकीं हैं | क़यामत के दिन की बात आज भी कही ,सुनी  और गायी  जाती है| भारत वर्ष में भाग्य ,पुनर्जन्म और पिछले जन्मों के संचित कर्मों से प्रभावित मानव के वर्तमान जीवन की धारणा आज भी करोणों प्राणियों को एक मनोवैज्ञानिक सहारा देती रहती है | हम निर्विवाद रूप से यह नहीं कहते कि इन मिथकों के पीछे बौद्धिक विश्लेषण नहीं है | पर इतना अवश्य कहते हैं कि इन मिथकों का सहारा लेकर अपने वर्तमान जीवन यानि जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें किये गये  कर्मों की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता | अब प्रश्न यह उठता है यदि मजहबी या साम्प्रदायिक धारणायें अवैज्ञानिक ,अर्ध वैज्ञानिक या अस्पष्ट  और बेतुकी हैं  तो फिर प्रकृति में पायी जाने वाली अपार विभिन्नता कौन सा बौद्धिक विश्लेषण खरा उतर सकेगा | पदार्थवादी विचारक काल की निरन्तरता और पदार्थ में निहित परिवर्तनशीलता को ही विभिन्नता के मूल श्रोतों के रूप में लेते हैं | जब कुछ भी स्थिर नहींहै तो परिवर्तन की निरन्तरता ही स्थिर है | अंग्रेजी में एक वाक्य है " No man can take bath twice in the same river." इसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि प्रवहमान सरिता का जल निरन्तर बहता रहता है और एक बार नहाकर जब आप दूसरी बार नहाते हैं तो परिवर्तित जल में नहाते हैं भले ही सरिता की निरन्तरता कायम हो यानि परिवर्तन ही सत्य है | विश्व के अब तक के सबसे बड़े वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने यूनिवर्स की उत्पत्ति के साथ ही टाइम या काल की उत्पत्ति को ही मान्यता दी है | इस प्रकार काल की सरिता शायद अनन्त से अनन्त की ओर बह रही है | जीवन की उत्पत्ति भले ही कई करोड़ वर्ष पहले हुयी हो पर काल की निरन्तरता में वह एक विन्दु मात्र  ही है |  दैव वादी विचारक जिन्हें आदर्शवादी विचारक भी कहा जाता है यह मानते हैं कि युनिवर्स की उत्पत्ति के पीछे दैव  का हाँथ है | न कुछ से कुछ की सृष्टि नहीं हो सकती | दैव की इच्छा से ही ब्रम्हाण्ड का सृजन और विस्तार हुआ | चेतन से ही अचेतन संचालित हो सकता है | पर पदार्थवादी विचारक इस तर्क को नकारते हुए कहते हैं कि पदार्थ सनातन है और चेतना पदार्थ में ही निहित है || चेतना उनकी द्रष्टि में पदार्थ का ही उत्कृष्टम परिवर्तित रूप है | सहस्राब्दियों से यह नोक -झोक चल रही है | नीत्से ने तो यहां तक कह डाला "Man has become adoult  there is no need for a father figure (God) .: पर ब्रम्हाण्ड के सुचालित नियम पद्धति को देखकर आइन्स्टाइन भी यह कहने पर विवश हो गये  थे ,"There may be no personal God,but there seems to be some order behind the functioning of the universe."

                       पर हम बात कर रहे थे प्रकृति में पायी जाने वाली अपार विभिन्नता की और मानव जाति में पाने   वाली क्षमताओं की अपार विभिन्नता के विकासवादी यह मानकर चलते थे की करोङों वर्षों में भूगोल ,जलवायु ,भोजन सामग्री ,प्राकृतिक आपदाओं की निरन्तरता जैसे भूचाल , उल्कापात ,उपलवृष्टि और अति वृष्टि आदि तथा चेतन प्राणियों के भीतर निहित संहारक वृत्ति ने विविधता की अपार श्रंखलायें खड़ी कर दीं | चूँकि करोणों वर्षों का यह काल मानव बुद्धि के पकड़ में नहीं आ सकता इसलिये वह इन विभिन्नताओं को दैव से जोड़कर किसी आकाशीय सत्ता की कल्पना करने लगा |अब नव विकासवादी पुरानी   विकासवादी धारणा को एक और नया आयाम दे रहे हैं | म्यूटेशन (Mutation)और नैनो Transference की नयी धारणायें पुराने विकासवादी सिद्धान्त के साथ जोड़ी जानें लगी हैं | अब तो वस्तु स्थित यह है कि प्रत्येक वर्ष प्रकृति की जैविक प्रणाली अपने नये -नये रहस्य खोलकर एक लुभावनें समाधान का छलावा देती रहती है | चेतन की उत्पत्ति करोड़ों वर्ष पहले सम्भवतः वायरस जैसे  अत्यन्त सूक्ष्म लुंज -पुंज एकल कोशीय जलीय संचरण के रूप में हुयी | उन करोड़ों वर्षों का जैविक इतिहास अत्यन्त रोचक और कहीं -कहीं प्रभावशाली ढंग से जीवशास्त्र में महान शोधकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है पर उसमें इतने जोड़ -तोड़ ,अटकलें , अनुमान और मनचली उड़ानें हैं कि कहीं -कहीं पर बुद्धि वर्णित सिद्धान्तों को चुनौती  देने लगती हैं | हाँ जब डाइनासोर अपना दैत्याकार आकार लेकर धरती की छाती को रौंद रहे थे तो उस समय मैमल यानि स्तनपायी जीव अपने छोटे आकार को लेकर भयभीत इधर -उधर छिपकर अपनी जीवन रक्षा कर रहा था | लाखों वर्ष पहले विकास सम्बन्धी खोजों को पढ़ -पढ़ कर गहरे रोमान्चक और विस्मृत कर देने वाले मायावी जाल से हमारी चेतना आक्रान्त हो जाती है पर लाखों वर्ष पहले के प्राणियों के अवशेष या पत्थर की चट्टानों में पायी गयी उनकी प्रतिकृतियाँ कुछ ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि हमें यह माननें का मन हो जाता है कि शायद मनुष्य का विकास अपने से निम्नतर प्राणियों से हुआ हो | वन मानुष मानुषों में कैसे बदले और वनमानुषों की कौन सी प्रजाति कैसे कब और कहाँ हमारे आदि पुरुखों  के पुरखों के रूप में विकसित हुयी इस सबका भी नृतत्वशास्त्रियों ने बहुत तर्कपूर्ण और रोचक अध्ययन प्रस्तुत किया है |Fossils अस्थि अवशेषों , आदिम प्रस्तरीय औजारों और रेवापाडियों की भिन्न -भिन्न आकृतियों ने कुछ ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत कर दिये  हैं जिन्हें नकारना मुश्किल होता है | मानव विकास की यह कहानी इतनी लम्बी है और इतने अनुमानित कारणों से सन्चालित है कि उसके लिये इस लेख में अधिक स्पष्टीकरण करना असम्भव सा लगता है आइये कुछ मनोरंजक विवरणों पर निगाह डालकर इस लेख को समाप्त करें |
                       Embryology ( गर्भाशय में मानव भ्रूण के विकास का अध्ययन )के अधिकारी विश्लेषकों ने यह पाया है कि  मानव भ्रूण मानव शिशु बनते - बनते  अपने नौ महीनें के विकास काल में लगभग जीवन की उन सभी प्रारम्भिक अवस्थाओं से गुजरता है जिनमें से होकर जैविक विकास की धारा मनुष्य तक पहुँची है | एकल कोशीय सृष्टि से बढ़कर जलचर ,थलचर ,उभयचर ,बनचर सभी जीव श्रेणियों  से बढ़कर मानव शिशु जन्म के समय उस प्रारम्भिक अवस्था को प्राप्त करता है जो मानव के आदि पुरुषों की रही होगी | शिशु का चार पैरों पर चलना ,खड़ा होना, गिरना इन सब में लाखों वर्ष पहले किये गये उन प्रयासों की झलक है जब वनमानुष द्विपदीय होकर आगे के दो पैरों को स्वतन्त्र रूप से चलने के अतिरिक्त अन्य अन्य कामों में इस्तेमाल करने लगा होगा | मनुष्य के विकास की कहानी अपनी छाप मनुष्य के शरीर पर भी छोड़ चुकी है | हजारों वर्षों तक द्विपदीय नंगा मनुष्य वर्षा के भीषण बौछारों और उपलघातों से बचने के लिये यदि पास में गुफायें मिल गयीं तो उनके भीतर या सघन पेड़ों के नीचे दोनों हाथों की कोहनियो को मोड़कर हथेलियों से मुँह ढककर सिर नीचा किये बैठता रहा होगा | हजारों वर्षों की इस इक्सर साइज ने हथेली के जड़ों से लेकर उसके कोहनी तक के बालों को नीचे की ओर मोड़ दिया क्योंकि आसमान से गिरती पानी की बौछारें ऊपर उठी कोहनियों से बहकर ढके मुँह के पास से बूँद -बूँद गिरा करती होंगीं | झुके सिर के कारण पीठ पर गिरने वाली बौछारें भी मेरुदण्ड से बढ़ती हुयी नीचे जाती होंगीं सम्भवतः इसीलिये पीठ के बीचों -बीच मेरुदण्ड पर बालों की पंक्ति विरल  होकर नीचे की ओर जाती हुयी दिखायी  पड़ती है | Dreamology( स्वप्नों का वैज्ञानिक अध्ययन ) कहती है कि हम अपने स्वप्न में विशेषतः शैशव में कई बार देखते हैं कि हम ऊंचाई से गिर रहे हैं पर आहत नहीं होते ऐसा इसलिये है कि हमारे अवचेतन की पर्तों  में हमारे उन पुरुखों की यादें छिपी हैं जो सैकड़ों योजन फैले वन की डालों  पर लटक -लटक कर मीलों का सफर तय करते रहते थे | अत्यन्त कौशल से एक हाँथ से एक डाल छोड़कर दूसरे हाँथ से दूसरी डाल को पकड़कर वे अपार वन राशि में क्रियाशील रहते थे | हम अपने स्वप्नों में इसे थोड़ा बहुत परिवर्तित रूप में दोहराते हैं पर गिरकर आहत  नहीं होते | अपने जन्म के समय ही मानव शिशु की मुठ्ठी में इतनी पकड़ होती है कि उससे ऐसा लगता है जैसे वह डाल  में लटकने की अपनी लाखों वर्ष पहले की क्षमता अब तक सहेजे है | विकासवादी अध्येता अब यह मानने लगे हैं कि मानव सभ्यता का सबसे बड़ा कारण मानव शिशु का असहाय अवस्था में पैदा होना था | प्रकृति के अन्य सभी चेतन प्राणियों के शिशु जिसमें स्तनपायी भी शामिल हैं थोड़े बहुत समय का ही शैशव कल पाते हैं |  वे शीघ्र ही अपने पैरों और हांथों का इस्तेमाल कर जीवन चलाने लगते हैं पर मानव शिशु को एक अत्यन्त लम्बा शैशव काल बिताना पड़ता है जब उसे अपनी जननी के सरंक्षण की आवश्यकता होती है | आदिम काल की लम्बी कालावधि में पिता का संरक्षण भी हिंसक वन्य पशुओं और नर समूहों से शिशु को बचाने के लिये अनिवार्य हो गया होगा | इस लम्बे संरक्षण ने ही नारी को घर दिया और पुरुष को पौरष द्वारा प्रारम्भिक खाद्य सामग्री और फिर भिन्न -भिन्न रूपों में जीवित रहने के लिये सम्पत्ति ,सामग्री इकठ्ठा करने की प्रेरणां दी | कुछ उदाहण दिये बिना और कुछ मनोरंजक कथाओं का सहारा लिये बिना विकास की इस कथा को आगे बढ़ाना कठिन लगता है | आइये जर्मनी में प्रचलित प्राचीन आर्यों की एक कहानी पर नजर डालें | ----------


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