मोहक मकड़जाल
सुखपुरा ग्राम में जाने के लिये हम घर से निकल पड़े | सुनने में आया था कि वहां गहरा सुख और गहरी शान्ति है | सुखपुरा में रहने वाला कोई स्थायी निवासी तो मुझे नहीं मिला था पर बहुत से राहगीर सुखपुरा हो आने के सम्बन्ध में झूठे सच्चे दावे किया करते थे | उन्होंने बताया था कि वहां पहुंचने का रास्ता कठिन साधना की मांग करता है | मिर्च ,मिठाई तेल छोड़ना पडेगा | सूखी रोटी और बिना मसाले की उबली सब्जी लेकर भूख को शान्त तो कर लिया जाय पर उसी स्तर तक जहां और कुछ खानें की इच्छा बनी रहे | आचरण में झूठ से परहेज और सच से प्यार करना होगा | व्यवहार में शत्रु से भी मित्रता करनी होगी | वाणी में सरलता और मिठास का समावेश करना होगा | मन के घोड़े की लगाम कसनी होगी | अगर इतना कर पाओ तो सुखपुरा की राह तुम्हारे लिये स्वयं ही खुल जायेगी |
उपरोक्त सभी बातों का ज्ञान मुझे मेरी किशोरावस्था के आसपास ही होने लगा था | अपने आस -पास के वयोवृद्ध नर -नारियों को मैं सत्संग में जाते और आते देखा करता था | कइयों के गले में मालायें पडी थीं | कइयों के हाँथ में सुमरिनी थी | सभी कोई न कोई हरिवाक्य मुँह से उच्चारित किया करते थे | राम -राम ,हरिओम , राधा -कृष्ण , सीता -राम ,राधे -राधे ,और जय शिवशंकर जैसे पवित्र और दिव्य प्रभुनामों की निरन्तर बहनें वाली शब्द धाराओं से भी मैं पूरा परिचित हो चुका था | इतना सब जानकार भी मैं एक लम्बे समय तक सुखपुरा पहुंचने के मार्ग को क्यों नहीं खोज सका यह मेरे लिये एक आश्चर्य का विषय है | कई बार जब चिन्तन की गहराइयों में डूबने लगता हूँ तो मानसिक व्याख्या में कुछ स्पष्ट बिन्दु बिखरते दिखायी पड़ते हैं | सबसे पहला स्पष्ट बिन्दु जो मेरी समझ के दायरे में आता है वह है सुखपुरा की भौगोलिक स्थिति के बारे में | भारत के अनेक राज्यों में सुखपुरी ,सुखपुरा ,सुखधाम।, सुखनगरी जैसे अनेक ग्राम , कस्बे और नगर पाये जा सकते हैं | यह दूसरी बात है कि इनमें सुख पाने वालों की संख्या नगण्य हो और शान्ति तो शायद किसी के आस -पास भी न फटकती हो | मुझे लगा कि शायद सुखपुरा की कोई भौगोलिक स्थिति है ही नहीं अब यदि भौगोलिक स्थिति है ही नहीं तो वहां पहुंचने का कोई भू -मार्ग तो होना ही चाहिये | मुझे आश्चर्य हुआ कि काफी कुछ लोग सुखपुरा हो आने का दावा कैसे करते हैं | बचकानी किस्से कहानियों में न जाने क्यों मैं गहरे अर्थ खोजने में लग जाता हूँ | सत्संग में होने वाले प्रवचन मुझे भीतर से कुरेदते हैं और मैं उनमें दिये गये वज़नदार सुझावो की जमीनी हकीकत तलाश करने लगता हूँ | माया -मोह से मुक्त रहने का चमकदार सन्देश तो भारत के साधारण से साधारण पण्डित या धर्मोपदेशक का सबसे सबल मनोवैज्ञानिक अस्त्र है | गायत्री परिवार की एक पत्रिका में कुछ दिन पहले एक प्रभावी कहानी छपी थी | कोई उपदेशक बड़ी मुश्किल से अपने परिवार का खर्च चला रहे थे किशोर बच्चे के लिये सरकारी स्कूल से घर आने के बाद कुछ बकरियां खरीद दी थीं | उन बकरियों को चराकर 12 -13 साल का यह किशोर घर के लिये कुछ दूध पा लेता था और कुछ दूध बेचकर और खर्चों का जुगाड़ करता था | पंडित जी दान -दक्षिणा से जो मिल जाता उसे परिवार संचालन में लगाकर अपनी जिम्मेवारी का निर्वाहन करते थे पर इतने पर भी अभाव की विभीषका उस परिवार को निरन्तर घेरे रहती थी | आजादी के बाद भारत के केन्द्रीय सरकार में कई अत्यन्त समर्थ प्रधानमन्त्री गद्दी पर बैठे हैं पर सुरसा का सा मुंह फैलाने वाली महंगाई निरन्तर विस्तार पाती जा रही है | इस भयानक मंहगाई में थोड़ी बहुत दान- दक्षिणां और थोड़ा बहुत बकरी दूध से पांच प्राणियों का परिवार कैसे चलता | किशोर की एक छोटी बहन और छोटा भाई दूध -भात की मांग करते थे और फिर आज कल के बच्चों के फैशनेबुल कपडे पण्डित जी कहाँ से जुटाते | संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान किसी नौकरी के दरवाजे तो खोलता नहीं और आज कल चढ़ावा उन्हीं मन्दिरों मठाधीशों ,महन्तों और योगा गुरुओं के पास पहुँच पाता है जो अपने रहन -सहन में राजसी ठाठ को महत्व देते हों | पण्डित जी उस दिन एक मजदूर के घर बुलाये गये थे | मजदूर के लड़के के मुण्डन पर कुछ आयोजन हुआ था | मजदूर पण्डित जी का पड़ोसी था और कई बार अपनी दिहाड़ी को अपने दो बच्चों के फैशन के कपड़े लाने में खर्च कर देता था | पण्डित जी उसे सदा बताते रहते थे कि अधिक मोह करना ठीक नहीं है | यह संसार नश्वर है | कल का कोई भरोसा नहीं | कुछ महीनों के बाद मजदूर की पत्नी तीसरी बार गर्भवती हुयी पहले वह भी पति के साथ जाकर कुछ कमा लाती थी | अब कमाई काम और खर्च ज्यादा मजदूर का छोटा बच्चा जो अभी तीन साल से कम था दूध के अभाव में कमजोर होने लगा | गर्मी आयी , सप्लाई के पानी के लिये मार -काट होने लगी | नजदीक के एक हैण्ड पम्प का पानी ही इस्तेमाल होने लगा | छोटे बच्चे को डायरिया हो गया | झाड़- फूक करवाई फिर प्राइमरी हेल्थ सेन्टर ले गया पर देर हो चुकी थी | बच्चे का समय आ गया था या भारतीय समाज के निम्नतम वर्ग के एक मजदूर का दुर्भाग्य था कि बच्चा संसार छोड़कर चला गया | घर में कोहराम मच गया | गर्भवती माँ रोते -रोते बेहाल हो गयी | उसके प्राणों पर बन आयी आखिर पड़ोस से पण्डित जी को सांत्वना देने के लिये बुलाया गया | पण्डितजी ने धैर्य पूर्वक दुःख सहन करने की बात कही , बताया कि आँसू बहाना निरर्थक है आत्मा का आगमन और पुनरागमन हुआ करता है | किसी आत्मा को इस घर के माध्यम से इस धरती पर आना था | अब वह आत्मा इस शरीर से मुक्त होकर किसी योनि में देह धारण करेगी | अमर आत्मा के लिये रोना नासमझी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | बिचारी माँ ने पण्डित जी की बात को गुरुवाक्य लेकर अपने को शान्त कर लिया | जीवन फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगा | कुछ दिन बाद जब मजदूर काम से लौटा तो उसने देखा कि पण्डित जी बाहर बरामदे में बैठे हुए रो रहे हैं और उनका 11 - 12 वर्ष का किशोर लड़का भी दुःख भरा मुँह लेकर उनके पास बैठा है | मजदूर ने पास पहुंचकर प्रणाम किया और पूछा कि पण्डितजी रो क्यों रहे हैं | पंडितजी ने कहा अरे लुकई मेरी सबसे अच्छी बकरी मर गयी है | उसी के दूध से खर्च चलता था | अब गृहस्थी कैसे चलेगी | लुकई ने पण्डित जी से जवाब में कोई धर्मोपदेश की बात नहीं की केवल इतना पूछा कि वह क्या मदद कर सकता है ?
इस सामान्य बच्चों की कहानी को कुछ विवरण के साथ लिखे जाने का केवल यह उद्देश्य है कि दूसरे के जीवन के धरातल पर हम सब ज्ञान पीठिका पर खड़े रहते हैं | पर अपने जीवन के धरातल पर हम सहज मानवीय जीवन जीने पर विवश हो जाते हैं | अगर आप दुखी हैं तो दुःख को प्रकट करना ज्ञान शून्य होना नहीं है | दुःख को छिपाकर ज्ञानी होने का भ्रम पालना अहंकार की श्रष्टि करता है हाँ इतना अवश्य है कि दुःख की अभिव्यक्ति संयत होनी चाहिये और दुःख का आघात हमें अपने सांसारिक कर्तव्य से विरत करने में नाकाम रहना चाहिये | कविवर रहीम ने जब यह दोहा लिखा होगा तब शायद लाक्षणिक व्यंजना के द्वारा वह यही कहना चाह रहे होंगें कि जीवन की सहज क्रियायें अस्वीकार योग्य नहीं हैं और उन्हें भी सन्तुलित मानव जीवन में एक आदरपूर्ण स्थान मिलना चाहिये | दोहे पर एक अन्तरभेदी नजर डालिये |
" रहिमन अँसुआ नयन ढ़रि जिय दुःख प्रगट करेत
जाहि निकारो गेह से कस न भेद कहि देत |"
कवि जय शंकर प्रसाद ने अपनें बहु चर्चित खण्ड काव्य आँसू में ज्ञान को मानवीय पक्ष में ढाल कर सम्वेदना से भरपूर कर दिया है | एक अन्तर भेदी नजर डालिये :-
"छिल -छिल कर छाले फोड़े
मल -मल कर मृदुल चरण से
गल -गल हिम ढल जाते
आंसू करुणा के कण से |"
अरे तो सुखपुरा पहुंचने से पहले ही संवेदना के मार्ग से गुजरना पड़ा, बात चल रही थी कुछ स्पष्ट बिन्दुओं की जो उभरकर सुखपुरा पहुंचने के रास्ते में मेरे द्रष्टि क्षेत्र में आ जाते हैं | पहले बिन्दु के स्पष्टीकरण में मैनें कहा है कि सुखपुरा की कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है | हाँ उसकी मानसिक स्थिति के विषय में अवश्य कुछ प्रमाण एकत्रित किये जा सकते हैं | यूनान में दार्शनिकों का एक बड़ा प्रभावशाली संघ था जो अपने को Stoic के नाम से पहचान बनाता था | यह दार्शनिक मानव काया को निरन्तर तपाने की बात करते थे और विश्वास करते थे कि शरीर के तपनें से अन्दर की ऊर्जा और अधिक प्रान्जल हो उठती है | सयंम का यह मार्ग कुछ अंशों में ठीक माना जा सकता है पर शरीर में सर्वथा मुक्त किसी आन्तरिक ऊर्जा की कल्पना तर्क की कसौटी पर सिरे नहीं चलती | भारत में भी हठ योगियों का एक बड़ा प्रभावशाली संघ कभी काँटों पर लेट कर ,कभी एक टांग पर खड़ा होकर , कभी शीत काल में नग्न बदन रहकर शरीर पर आत्मा की विजय घोषणा करवानें में लगा रहता है | इस प्रकार की अत्यन्त कठिन समझी जाने वाली शारीरिक यन्त्रणायें वाह वाही भले ही लूट लें पर उनसे व्यक्ति या समाज का किसी ठोस उपलब्धि पर पहुँचना बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है | भ्रामक क्रियाओं को चमत्कारिक क्रियाओं का नाम देकर अल्पबुद्धि नर -नारियों को प्रभावित भले ही कर लिया जाय और इससे कुछ आर्थिक प्राप्ति भले ही कर ली जाय पर समाज के सामूहिक कल्याण के लिये इन मार्गों की उपेक्षा ही करनी होगी | मानसिक धरातल पर सुखपुरा की तलाश करने के लिये पहले शराब , गांजा , अफीम चरस आदि नशीले साधनों का सहारा लिया जाता था और अब तो कैप्सूल ,इन्जेक्शन और Ecstsy की Tablets संम्पन्न वर्ग के जीवन का एक दैनिक हिस्सा बन गयी है | स्पष्ट है की सुखपुरा की मानसिक स्थिति स्वाभाविक नहीं है | Induced है | यह एक मिथक है ,भ्रमजाल है ,कल्पना लोक है जीवन संघर्ष को भुलानें का निरर्थक प्रयास है |
अब प्रश्न उठता है कि सुखपुरा कैसे पहुंचा जाय | राजनीति में C.P.M. कुछ ऐसा ही दावा लेकर आया था कि वह बंगाल के प्रत्येक ग्राम , कस्बे व नगर को सुखपुर , सुखपुरा और सुख नगर में बदल देगा | लगभग 35 वर्ष तक बंगाल की जनता ने इस प्रयोग की सार्थकता का धैर्य से इन्तजार किया | समय की मार ने झूठ की सुनहली चादर मैली कर दी और जो थोड़ा बहुत सुखपुरा अंश पश्चिम बंगाल में था वह बदलकर दुःख भरे विशाल क्षेत्रीय भूखण्डों में बिखर गया | कहते हैं अब नये सिरे से सुखपुरा की तलाश होगी प्रभु करें यह तलाश हमें अपने गंतव्य तक पहुंचा दे | बड़े बड़े विद्वान बड़ी बड़ी बातें करते हैं | बड़े बड़े योजनाकार बड़ी बड़ी योजनायें बनाते हैं ,कुदरत अपने खेल खेलती रहती है | उपल वृष्टि ,तूफ़ान , भूचाल महामारी और युद्ध नरसंहार यह सब चलता ही रहता है और यह सभी कुछ चलते रहने के बावजूद हम सब सुखपुरा की तलाश में लगे हैं | विश्व के सभी धर्मग्रन्थ ,विश्व के सभी मत और पन्त अपनी अलग अलग राहों से सुखपुरा पहुंचना चाहते हैं | इस संम्बन्ध में मुझे विवेकानन्द की कही हुयी एक बात बहुत प्रिय लगती है उन्होंने अमरीका के अपने भाषण में कहा था की जैसे कोई नदी सीधी चलती है , कोई उल्टी होकर फिर सीधी होती है ,कोई सीधी टेढ़ी होती है ,कोई बिल्कुल टेढ़ी होती है पर सब नदियाँ अन्ततः समुद्र में ही जाकर मिलती हैं ठीक इसी प्रकार भिन्न भिन्न राष्ट्रों से मनुष्य जहां पहुंचना चाहता है वही है ब्रम्हस्थळ ,वही है परम तत्व का निवास , वही है सहज जीवन जीकर ईश्वरोपलब्धि ,भारत हजारों वर्ष पहले इस तत्व को जान सका था उसने गृहस्थ जीवन के सुख को कभी नहीं नकारा हाँ सहज जीवन जीने की दार्शनिक शब्दावली समाज को दी और फिर जब आयु विशेष के कारण सहज जीवन जीने की क्षमता न रहे तो विश्व मानव समाज के प्रति अपने को सम्पूर्ण भाव समर्पित करने की राह दिखायी | इसलिये गृहस्थ सन्यासी ही सुखपुरा की राह पर चल सकते हैं | विदेह ही शीरध्वज बनकर मिथिला पर शासन करते हैं | खड़ाऊँ सिहासन पर रखकर भरत राज्य चलाते हैं और कुटिया में शयन कर कौटिल्य आर्यावर्त को संसार का समृद्धतम राष्ट्र बना देते हैं | हर भारतीय को आन्तरिक समृद्धि के लिये संतुलित भौतिक समृद्धि का मार्ग भी खोजना होगा | यह संसार उतना ही सच है जितना जीवन समाप्ति के बाद मिलने वाला और कोई काल्पनिक संसार | जो संसार आज हमारे पास है उसमें ही हर व्यक्ति और परिवार सुखपुरा की सृष्टि करे | हम इण्डियन हैं , हम हिन्दुस्तानी हैं ,हम हिन्दी पर शायद हम भारतीय नहीं हैं पर जो सच्चा भारतीय है उसे सुखपुरा की तलाश में न तो अमरीका जाना है ,और न कनाडा | आस्ट्रेलिया और योरोप भी उसके गन्तव्य नहीं हैं | अपने इसी विशाल और महान देश में उसे बाह्य और आन्तरिक विकास के अनगिनत अवसर उपलब्ध हैं | आइये हम सहज रहकर एक मेहनती और ईमानदार जीवन जीकर अपनी उपार्जित कमायी से कुछ अंश समाज सेवा के लिये अर्पित करें | यदि हममें से कई सदाशयी कर्मठ जन इस दिशा में आगे बढ़ें तो हमारे अड़ोस -पड़ोस में कितने ही सुखपुरा बस जायेंगें |
सुखपुरा ग्राम में जाने के लिये हम घर से निकल पड़े | सुनने में आया था कि वहां गहरा सुख और गहरी शान्ति है | सुखपुरा में रहने वाला कोई स्थायी निवासी तो मुझे नहीं मिला था पर बहुत से राहगीर सुखपुरा हो आने के सम्बन्ध में झूठे सच्चे दावे किया करते थे | उन्होंने बताया था कि वहां पहुंचने का रास्ता कठिन साधना की मांग करता है | मिर्च ,मिठाई तेल छोड़ना पडेगा | सूखी रोटी और बिना मसाले की उबली सब्जी लेकर भूख को शान्त तो कर लिया जाय पर उसी स्तर तक जहां और कुछ खानें की इच्छा बनी रहे | आचरण में झूठ से परहेज और सच से प्यार करना होगा | व्यवहार में शत्रु से भी मित्रता करनी होगी | वाणी में सरलता और मिठास का समावेश करना होगा | मन के घोड़े की लगाम कसनी होगी | अगर इतना कर पाओ तो सुखपुरा की राह तुम्हारे लिये स्वयं ही खुल जायेगी |
उपरोक्त सभी बातों का ज्ञान मुझे मेरी किशोरावस्था के आसपास ही होने लगा था | अपने आस -पास के वयोवृद्ध नर -नारियों को मैं सत्संग में जाते और आते देखा करता था | कइयों के गले में मालायें पडी थीं | कइयों के हाँथ में सुमरिनी थी | सभी कोई न कोई हरिवाक्य मुँह से उच्चारित किया करते थे | राम -राम ,हरिओम , राधा -कृष्ण , सीता -राम ,राधे -राधे ,और जय शिवशंकर जैसे पवित्र और दिव्य प्रभुनामों की निरन्तर बहनें वाली शब्द धाराओं से भी मैं पूरा परिचित हो चुका था | इतना सब जानकार भी मैं एक लम्बे समय तक सुखपुरा पहुंचने के मार्ग को क्यों नहीं खोज सका यह मेरे लिये एक आश्चर्य का विषय है | कई बार जब चिन्तन की गहराइयों में डूबने लगता हूँ तो मानसिक व्याख्या में कुछ स्पष्ट बिन्दु बिखरते दिखायी पड़ते हैं | सबसे पहला स्पष्ट बिन्दु जो मेरी समझ के दायरे में आता है वह है सुखपुरा की भौगोलिक स्थिति के बारे में | भारत के अनेक राज्यों में सुखपुरी ,सुखपुरा ,सुखधाम।, सुखनगरी जैसे अनेक ग्राम , कस्बे और नगर पाये जा सकते हैं | यह दूसरी बात है कि इनमें सुख पाने वालों की संख्या नगण्य हो और शान्ति तो शायद किसी के आस -पास भी न फटकती हो | मुझे लगा कि शायद सुखपुरा की कोई भौगोलिक स्थिति है ही नहीं अब यदि भौगोलिक स्थिति है ही नहीं तो वहां पहुंचने का कोई भू -मार्ग तो होना ही चाहिये | मुझे आश्चर्य हुआ कि काफी कुछ लोग सुखपुरा हो आने का दावा कैसे करते हैं | बचकानी किस्से कहानियों में न जाने क्यों मैं गहरे अर्थ खोजने में लग जाता हूँ | सत्संग में होने वाले प्रवचन मुझे भीतर से कुरेदते हैं और मैं उनमें दिये गये वज़नदार सुझावो की जमीनी हकीकत तलाश करने लगता हूँ | माया -मोह से मुक्त रहने का चमकदार सन्देश तो भारत के साधारण से साधारण पण्डित या धर्मोपदेशक का सबसे सबल मनोवैज्ञानिक अस्त्र है | गायत्री परिवार की एक पत्रिका में कुछ दिन पहले एक प्रभावी कहानी छपी थी | कोई उपदेशक बड़ी मुश्किल से अपने परिवार का खर्च चला रहे थे किशोर बच्चे के लिये सरकारी स्कूल से घर आने के बाद कुछ बकरियां खरीद दी थीं | उन बकरियों को चराकर 12 -13 साल का यह किशोर घर के लिये कुछ दूध पा लेता था और कुछ दूध बेचकर और खर्चों का जुगाड़ करता था | पंडित जी दान -दक्षिणा से जो मिल जाता उसे परिवार संचालन में लगाकर अपनी जिम्मेवारी का निर्वाहन करते थे पर इतने पर भी अभाव की विभीषका उस परिवार को निरन्तर घेरे रहती थी | आजादी के बाद भारत के केन्द्रीय सरकार में कई अत्यन्त समर्थ प्रधानमन्त्री गद्दी पर बैठे हैं पर सुरसा का सा मुंह फैलाने वाली महंगाई निरन्तर विस्तार पाती जा रही है | इस भयानक मंहगाई में थोड़ी बहुत दान- दक्षिणां और थोड़ा बहुत बकरी दूध से पांच प्राणियों का परिवार कैसे चलता | किशोर की एक छोटी बहन और छोटा भाई दूध -भात की मांग करते थे और फिर आज कल के बच्चों के फैशनेबुल कपडे पण्डित जी कहाँ से जुटाते | संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान किसी नौकरी के दरवाजे तो खोलता नहीं और आज कल चढ़ावा उन्हीं मन्दिरों मठाधीशों ,महन्तों और योगा गुरुओं के पास पहुँच पाता है जो अपने रहन -सहन में राजसी ठाठ को महत्व देते हों | पण्डित जी उस दिन एक मजदूर के घर बुलाये गये थे | मजदूर के लड़के के मुण्डन पर कुछ आयोजन हुआ था | मजदूर पण्डित जी का पड़ोसी था और कई बार अपनी दिहाड़ी को अपने दो बच्चों के फैशन के कपड़े लाने में खर्च कर देता था | पण्डित जी उसे सदा बताते रहते थे कि अधिक मोह करना ठीक नहीं है | यह संसार नश्वर है | कल का कोई भरोसा नहीं | कुछ महीनों के बाद मजदूर की पत्नी तीसरी बार गर्भवती हुयी पहले वह भी पति के साथ जाकर कुछ कमा लाती थी | अब कमाई काम और खर्च ज्यादा मजदूर का छोटा बच्चा जो अभी तीन साल से कम था दूध के अभाव में कमजोर होने लगा | गर्मी आयी , सप्लाई के पानी के लिये मार -काट होने लगी | नजदीक के एक हैण्ड पम्प का पानी ही इस्तेमाल होने लगा | छोटे बच्चे को डायरिया हो गया | झाड़- फूक करवाई फिर प्राइमरी हेल्थ सेन्टर ले गया पर देर हो चुकी थी | बच्चे का समय आ गया था या भारतीय समाज के निम्नतम वर्ग के एक मजदूर का दुर्भाग्य था कि बच्चा संसार छोड़कर चला गया | घर में कोहराम मच गया | गर्भवती माँ रोते -रोते बेहाल हो गयी | उसके प्राणों पर बन आयी आखिर पड़ोस से पण्डित जी को सांत्वना देने के लिये बुलाया गया | पण्डितजी ने धैर्य पूर्वक दुःख सहन करने की बात कही , बताया कि आँसू बहाना निरर्थक है आत्मा का आगमन और पुनरागमन हुआ करता है | किसी आत्मा को इस घर के माध्यम से इस धरती पर आना था | अब वह आत्मा इस शरीर से मुक्त होकर किसी योनि में देह धारण करेगी | अमर आत्मा के लिये रोना नासमझी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | बिचारी माँ ने पण्डित जी की बात को गुरुवाक्य लेकर अपने को शान्त कर लिया | जीवन फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगा | कुछ दिन बाद जब मजदूर काम से लौटा तो उसने देखा कि पण्डित जी बाहर बरामदे में बैठे हुए रो रहे हैं और उनका 11 - 12 वर्ष का किशोर लड़का भी दुःख भरा मुँह लेकर उनके पास बैठा है | मजदूर ने पास पहुंचकर प्रणाम किया और पूछा कि पण्डितजी रो क्यों रहे हैं | पंडितजी ने कहा अरे लुकई मेरी सबसे अच्छी बकरी मर गयी है | उसी के दूध से खर्च चलता था | अब गृहस्थी कैसे चलेगी | लुकई ने पण्डित जी से जवाब में कोई धर्मोपदेश की बात नहीं की केवल इतना पूछा कि वह क्या मदद कर सकता है ?
इस सामान्य बच्चों की कहानी को कुछ विवरण के साथ लिखे जाने का केवल यह उद्देश्य है कि दूसरे के जीवन के धरातल पर हम सब ज्ञान पीठिका पर खड़े रहते हैं | पर अपने जीवन के धरातल पर हम सहज मानवीय जीवन जीने पर विवश हो जाते हैं | अगर आप दुखी हैं तो दुःख को प्रकट करना ज्ञान शून्य होना नहीं है | दुःख को छिपाकर ज्ञानी होने का भ्रम पालना अहंकार की श्रष्टि करता है हाँ इतना अवश्य है कि दुःख की अभिव्यक्ति संयत होनी चाहिये और दुःख का आघात हमें अपने सांसारिक कर्तव्य से विरत करने में नाकाम रहना चाहिये | कविवर रहीम ने जब यह दोहा लिखा होगा तब शायद लाक्षणिक व्यंजना के द्वारा वह यही कहना चाह रहे होंगें कि जीवन की सहज क्रियायें अस्वीकार योग्य नहीं हैं और उन्हें भी सन्तुलित मानव जीवन में एक आदरपूर्ण स्थान मिलना चाहिये | दोहे पर एक अन्तरभेदी नजर डालिये |
" रहिमन अँसुआ नयन ढ़रि जिय दुःख प्रगट करेत
जाहि निकारो गेह से कस न भेद कहि देत |"
कवि जय शंकर प्रसाद ने अपनें बहु चर्चित खण्ड काव्य आँसू में ज्ञान को मानवीय पक्ष में ढाल कर सम्वेदना से भरपूर कर दिया है | एक अन्तर भेदी नजर डालिये :-
"छिल -छिल कर छाले फोड़े
मल -मल कर मृदुल चरण से
गल -गल हिम ढल जाते
आंसू करुणा के कण से |"
अरे तो सुखपुरा पहुंचने से पहले ही संवेदना के मार्ग से गुजरना पड़ा, बात चल रही थी कुछ स्पष्ट बिन्दुओं की जो उभरकर सुखपुरा पहुंचने के रास्ते में मेरे द्रष्टि क्षेत्र में आ जाते हैं | पहले बिन्दु के स्पष्टीकरण में मैनें कहा है कि सुखपुरा की कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है | हाँ उसकी मानसिक स्थिति के विषय में अवश्य कुछ प्रमाण एकत्रित किये जा सकते हैं | यूनान में दार्शनिकों का एक बड़ा प्रभावशाली संघ था जो अपने को Stoic के नाम से पहचान बनाता था | यह दार्शनिक मानव काया को निरन्तर तपाने की बात करते थे और विश्वास करते थे कि शरीर के तपनें से अन्दर की ऊर्जा और अधिक प्रान्जल हो उठती है | सयंम का यह मार्ग कुछ अंशों में ठीक माना जा सकता है पर शरीर में सर्वथा मुक्त किसी आन्तरिक ऊर्जा की कल्पना तर्क की कसौटी पर सिरे नहीं चलती | भारत में भी हठ योगियों का एक बड़ा प्रभावशाली संघ कभी काँटों पर लेट कर ,कभी एक टांग पर खड़ा होकर , कभी शीत काल में नग्न बदन रहकर शरीर पर आत्मा की विजय घोषणा करवानें में लगा रहता है | इस प्रकार की अत्यन्त कठिन समझी जाने वाली शारीरिक यन्त्रणायें वाह वाही भले ही लूट लें पर उनसे व्यक्ति या समाज का किसी ठोस उपलब्धि पर पहुँचना बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है | भ्रामक क्रियाओं को चमत्कारिक क्रियाओं का नाम देकर अल्पबुद्धि नर -नारियों को प्रभावित भले ही कर लिया जाय और इससे कुछ आर्थिक प्राप्ति भले ही कर ली जाय पर समाज के सामूहिक कल्याण के लिये इन मार्गों की उपेक्षा ही करनी होगी | मानसिक धरातल पर सुखपुरा की तलाश करने के लिये पहले शराब , गांजा , अफीम चरस आदि नशीले साधनों का सहारा लिया जाता था और अब तो कैप्सूल ,इन्जेक्शन और Ecstsy की Tablets संम्पन्न वर्ग के जीवन का एक दैनिक हिस्सा बन गयी है | स्पष्ट है की सुखपुरा की मानसिक स्थिति स्वाभाविक नहीं है | Induced है | यह एक मिथक है ,भ्रमजाल है ,कल्पना लोक है जीवन संघर्ष को भुलानें का निरर्थक प्रयास है |
अब प्रश्न उठता है कि सुखपुरा कैसे पहुंचा जाय | राजनीति में C.P.M. कुछ ऐसा ही दावा लेकर आया था कि वह बंगाल के प्रत्येक ग्राम , कस्बे व नगर को सुखपुर , सुखपुरा और सुख नगर में बदल देगा | लगभग 35 वर्ष तक बंगाल की जनता ने इस प्रयोग की सार्थकता का धैर्य से इन्तजार किया | समय की मार ने झूठ की सुनहली चादर मैली कर दी और जो थोड़ा बहुत सुखपुरा अंश पश्चिम बंगाल में था वह बदलकर दुःख भरे विशाल क्षेत्रीय भूखण्डों में बिखर गया | कहते हैं अब नये सिरे से सुखपुरा की तलाश होगी प्रभु करें यह तलाश हमें अपने गंतव्य तक पहुंचा दे | बड़े बड़े विद्वान बड़ी बड़ी बातें करते हैं | बड़े बड़े योजनाकार बड़ी बड़ी योजनायें बनाते हैं ,कुदरत अपने खेल खेलती रहती है | उपल वृष्टि ,तूफ़ान , भूचाल महामारी और युद्ध नरसंहार यह सब चलता ही रहता है और यह सभी कुछ चलते रहने के बावजूद हम सब सुखपुरा की तलाश में लगे हैं | विश्व के सभी धर्मग्रन्थ ,विश्व के सभी मत और पन्त अपनी अलग अलग राहों से सुखपुरा पहुंचना चाहते हैं | इस संम्बन्ध में मुझे विवेकानन्द की कही हुयी एक बात बहुत प्रिय लगती है उन्होंने अमरीका के अपने भाषण में कहा था की जैसे कोई नदी सीधी चलती है , कोई उल्टी होकर फिर सीधी होती है ,कोई सीधी टेढ़ी होती है ,कोई बिल्कुल टेढ़ी होती है पर सब नदियाँ अन्ततः समुद्र में ही जाकर मिलती हैं ठीक इसी प्रकार भिन्न भिन्न राष्ट्रों से मनुष्य जहां पहुंचना चाहता है वही है ब्रम्हस्थळ ,वही है परम तत्व का निवास , वही है सहज जीवन जीकर ईश्वरोपलब्धि ,भारत हजारों वर्ष पहले इस तत्व को जान सका था उसने गृहस्थ जीवन के सुख को कभी नहीं नकारा हाँ सहज जीवन जीने की दार्शनिक शब्दावली समाज को दी और फिर जब आयु विशेष के कारण सहज जीवन जीने की क्षमता न रहे तो विश्व मानव समाज के प्रति अपने को सम्पूर्ण भाव समर्पित करने की राह दिखायी | इसलिये गृहस्थ सन्यासी ही सुखपुरा की राह पर चल सकते हैं | विदेह ही शीरध्वज बनकर मिथिला पर शासन करते हैं | खड़ाऊँ सिहासन पर रखकर भरत राज्य चलाते हैं और कुटिया में शयन कर कौटिल्य आर्यावर्त को संसार का समृद्धतम राष्ट्र बना देते हैं | हर भारतीय को आन्तरिक समृद्धि के लिये संतुलित भौतिक समृद्धि का मार्ग भी खोजना होगा | यह संसार उतना ही सच है जितना जीवन समाप्ति के बाद मिलने वाला और कोई काल्पनिक संसार | जो संसार आज हमारे पास है उसमें ही हर व्यक्ति और परिवार सुखपुरा की सृष्टि करे | हम इण्डियन हैं , हम हिन्दुस्तानी हैं ,हम हिन्दी पर शायद हम भारतीय नहीं हैं पर जो सच्चा भारतीय है उसे सुखपुरा की तलाश में न तो अमरीका जाना है ,और न कनाडा | आस्ट्रेलिया और योरोप भी उसके गन्तव्य नहीं हैं | अपने इसी विशाल और महान देश में उसे बाह्य और आन्तरिक विकास के अनगिनत अवसर उपलब्ध हैं | आइये हम सहज रहकर एक मेहनती और ईमानदार जीवन जीकर अपनी उपार्जित कमायी से कुछ अंश समाज सेवा के लिये अर्पित करें | यदि हममें से कई सदाशयी कर्मठ जन इस दिशा में आगे बढ़ें तो हमारे अड़ोस -पड़ोस में कितने ही सुखपुरा बस जायेंगें |
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