Saturday 14 July 2018

ओ नभचारी उपगुप्त 

उस दिन छत पर लेटे संध्या की द्वाभा में
मैं सोच रहा था कुछ सुख दुःख की बात लिखूँ
स्वर दे दूँ किसी विरहनी की मन पीड़ा को
उसके जलते दिन और तड़फती रात लिखूँ
काजल कोरों से छलक रही जल कणिका का
मैं दर्द भरा इतिहास लिखूँ
या पलक विछाये प्रियतम के पथ पर आतुर
मैं दो नयनों की आस लिखूँ
या मिलन गीत लिख डालूँ किसी मानिनी के
जो रूठ रूठ कर अपना मान बढ़ाती है
यौवन के कुसुमित सुमन प्यार की प्रतिमा पर
जो मुक्त भाव से दोनों हाथ चढ़ाती है
हिमधारा सी कल कल छल छल
तरुणी का मादक हास लिखूँ
जो रन्ध्र रन्ध्र में व्याप्त सहज
प्राणों की अविचल प्यास लिखूँ
अँकित कर दूँ मैं खिली कली से अधर लाल
प्रिय के चुम्बन को आतुर व्यग्र पुकार लिये
या लिखूँ जवानी की उद्धत अंगड़ाई पर
जो लहर लहर में जीवन की ललकार लिये
संध्या की लम्बी छाहों में यों सोच- सोच
मैं मन में अपना  सोया अलख जगाता था
कल्पना -वारि से सींच पौध नव भावों की
मन के आँगन में चुन चुन पड़ा लगाता था ।
पर तभी एक कोने उठ आयी बदली
छा गयी गगन के शून्य नील विस्तारों पर
झुक उमड़ -घुमड़ नीचे को पँख पसार चली
जैसे माटी से प्यार नहीं हो तारो पर
मैं खाट खींच कर छज्जे के नीचे लाया
इसलिये कि नन्ही बूँदों का काफिला उतर कर आया था
जो रिक्त नहीं होते नीचे ही चलते हैं
जाना माना यह स्वर मुझसे टकराया था
थी कितनी भारवान बदली
इसका मुझको तब भान हुआ
फट चलीं नालियाँ पानी से
शीता तिरेक का भान हुआ
रुक गया काम ,थम गया नगर
वर्षा संगीत लगा बजने
श्यामल बदली के आँचल पर
विद्दुत की रेख लगी सजने
फिर हहर घहर तड तडर तडर
मघवा का वज्राघात हुआ
सिय के वियोग में निबल राम का
फिर से कम्पित गात हुआ
तब त्वरित चीरते बूँदों को (भीगे पर से )
गौरैय्या उड़कर एक कहीं से आयी थी
पैरों की पाटी पर निशंक होकर बैठी
फड़फड़ा पंख तन में भर ली गरमाई थी
रोमांचित से नन्हें तन का निचला हिस्सा
भूरी चादर से ढका ढका सा लगता था
उसके पैरों की फुदक बताती थी अबतक
दिल में कोई भारी सा खटका जगता था
भोली  आँखें भी घूम घूम
अन्दाज ले रही थीं सारा
कोई बन्धन तो नहीं कहीं
हो पड़ा न कोई हत्यारा ।
मैं निश्चल होकर पड़ा रहा
मन में करुणा का भाव लिये
विश्वास खो चुके मानव का
अभिशाप लिये उर -घाव लिये
मन में वात्सल्य उमड़ आया
नन्हें प्राणों पर छाँह करूँ
भोले निरीह लघु जीवन पर
अपनी रक्षा की बाँह धरूँ
अपनी गुड़िया सा उठा गोद में ले बैठूँ
मन में विश्वास जगाने को
 फिर ढकूँ शाल से  बेटी मैं
जाड़े की लहर भगाने को
निः सीम प्राण भेदी करुणा
थी रोम -रोम में व्याप्त हुयी
हलकी सी झलक आदि कवि के
अनुभव की मुझको प्राप्त हुयी ।
क्षण के शतांश  में भेद गया
स्थावर जंगम का अन्तर
खुल गया पृष्ठ पर लिखित लेख सा
मानव मन का अभ्यन्तर
हम सभी प्रकृति के पुत्र
तीन चौथाई धरती पानी है
फिर क्या मानव को सदा
रक्त से अपनी प्यास बुझानी है
अम्बर से झरते झरने सा
जलधर झरता ही जाता था
नन्हें पक्षी का नन्हा दिल
भय से भरता ही जाता था
पैरों का हल्का सा कम्पन (था मुझे पता )
पक्षी को दूर भगायेगा
बूँदों की बौछारों से विंध
किस ओर कहाँ वह जायेगा
इसलिये पड़ा था मैं निश्चल
जीवन का भान न हो पाये
निर्जीव काठ सा पड़ा रहूँ
मानव का -भान न हो पाये
जो अनाहूत लघु अतिथि
आज मेरी पाटी पर आया है
भारत के उस स्वर्णिम अतीत का
मूक सन्देशा लाया है
ओ नभचरी उपगुप्त
तुम्हारे लिये ह्रदय में उठा प्यार
निस्पन्द मौन मैं पड़ा रहा
मन ही मन करता नमस्कार
हँसने दो  भावना -शून्य जड़ आलोचक
जो बहती नदी सुखाकर रेत बनाते हैं
जो जीवांकुर को देख उभरता माटी से
 विष बुझी कुदालें  ले जड़ से खुदवाते हैं
हँसने दो उन पाषाण ह्रदय इन्सानों को
जिनकी छाती ने प्यार नहीं जाना साथी
जो लाशों की दीवारों पर घर पाट रहे
जिनको न प्रेम की राह कभी आना साथी
लो नील गगन का वह कोना
धुल पुँछ कर साफ़ निखर आया
बदली का सरस कलेवर भी
रिस रिस कर तनिक निखर आया
हो गयीं फुहारें भी धीमी
पंखों पर तोल लगा तुलने
आशा की दीप्ति -दिवाली में
भय का तम -तोम लगा घुलने
जा अतिथि, पवन का देश
कहीं तेरा प्रिय तुझे बुलाता है
कुसमय की बेला चली टली
गा गा कर विगत भुलाता है
यह एक घड़ी का साथ
बड़े साथों में माना जायेगा
मेरे जीवन के महत क्षणों में
यह क्षण जाना जायेगा
ओ देवदूत ,बनकर उतरा
तू मेरे लिये सितारा है
निश्चल क्षण भर का साथ
मुझे सारे साथों से प्यारा है
उस घड़ी जिया मैं जो जीवन
उसमें मानव की आशा थी
उस मूक क्षणों में मुखर
 गांधी की ईसा  की  भाषा थी
जब कभी सबल का निर्बल पर
नंगा भाला उठ जायेगा
दो क्षण का दैवी साथ ,मित्र
मेरी स्मृति पर छायेगा । 

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