आस्तिकता
कह रहे श्रुति , शास्त्र सब
अश्रु विगलित दीन स्वर में
छोड़ संबल स्वयं का , संसार का
टेर दो , करूणानिधि जग जायेंगें
पर स्वयं से आस्था तज
या स्वयं- सीमा मिटाकर
व्यक्ति होनें का सहज अभिमान
कैसे छोड़ दूँ मैं |
मैं इकाई , दर्प -दीपित ही मिलूँगा
सुद्रढ़ सिर ऊँचा किये इन्सान सा |
शास्ता मैं
भीम स्वर , उल्लंब बाहु
पुकारता हूँ
आस्तिकता को नये आयाम देनें
रूढ़ि को ललकारता हूँ
वह न चरवाहा
न हम पशु मात्र हैं
वह हमारा दर्पहै , अभिमान है
वह हमारे ही प्रखर व्यक्तित्व की
बेधक त्वरा है , सान है |
कह रहे श्रुति , शास्त्र सब
अश्रु विगलित दीन स्वर में
छोड़ संबल स्वयं का , संसार का
टेर दो , करूणानिधि जग जायेंगें
पर स्वयं से आस्था तज
या स्वयं- सीमा मिटाकर
व्यक्ति होनें का सहज अभिमान
कैसे छोड़ दूँ मैं |
मैं इकाई , दर्प -दीपित ही मिलूँगा
सुद्रढ़ सिर ऊँचा किये इन्सान सा |
शास्ता मैं
भीम स्वर , उल्लंब बाहु
पुकारता हूँ
आस्तिकता को नये आयाम देनें
रूढ़ि को ललकारता हूँ
वह न चरवाहा
न हम पशु मात्र हैं
वह हमारा दर्पहै , अभिमान है
वह हमारे ही प्रखर व्यक्तित्व की
बेधक त्वरा है , सान है |
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