Sunday 29 April 2018

अहंकार 

हाँ पाल रहा हूँ अहंकार
दुर्जेय ,  विकट
करनें संस्कारित युग - अभिरुचि
देनें मानव को नये मान
जो जन  को
 जन में रहकर भी
एक जनेतर संज्ञा दे |
जन सर्वोपरि स्वीकार मुझे
पर मैं ठप्पा हूँ नहीं , विविधिता हूँ उसकी
मैं कोटि -कोटि वर्षों में निखरा प्रकृति रूप
अरविन्द- कल्पना का मैं पावन उन्नायक
मैं भिन्न , अनन्य , अलीक  , अकल्पित अद्वितीय
मैं सिर की ग़णना नहीं
न केवल उठा हाँथ
मेरा व्यक्तित्व न पंक्ति -बद्धता को अर्पित
दुर्लघ्य शिखर का हूँ मैं विरला आरोही
पग - पीड़ित गलियों में भटकी जन - रूचि को मैं
दे रहा शिखर का नया मार्ग |
जो प्राणवान
खुरदरी नोक पत्थर की
जिनके पैरों से टकरा करके
भरती कराह
मेरे स्वर का आह्वान उन्हीं को
अर्पित है |

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