Tuesday 19 December 2017

                      यूनानी दार्शनिक अफलातून ( प्लेटो ) नें मानव स्वभाव की विवेचना  के सन्दर्भ में कहा था कि बन्द थियेटर या संगीत दीर्घा में कुछ घण्टे बैठनें के बाद विद्वान से विद्वान व्यक्ति कुछ समय के लिये सोचनें -विचारनें की सन्तुलन क्षमता खो देता है | हजारों वर्ष पहले कहे गये उनके इस जीवन निष्कर्ष को आज हम पूरी तरह चरितार्थ होते देख रहे हैं | इस समय क्या हॉलीवुड क्या वॉलीवुड क्या टॉलीवुड हर जगह सिनेमायी नायक और नायिकाओं का बोल बाला है |जीवन के हर क्षेत्र में उनकी दखल इतनी व्यापक हो गयी है कि उनके अभिनय प्रसंगों की चर्चा के बिना आधुनिक जीवन अधूरा लगता है | आज बड़े से बड़ा साहित्यकार हासिये पर है यदि वह सिनेमायी तन्त्र से किसी न किसी प्रकार से जुड़ा हुआ नहीं है | गीतकार ,पटकथा लेखक ,संवाद सुधारक और अजीबो -गरीब शब्दों के शिल्पी सभी का अस्तित्व अपनें प्रखरतम रूप में तभी चमक पाता है जब उन्हें सिनेमायी चकाचौंध से मण्डित किया जाता है | चाहे हिन्दी सिनेमा हो ,चाहे तमिल ,तेलगू ,कन्नड़ या बंग सिनेमा सभी में राजनीति के घाघ अपनी अपनी घुसपैठ लगानें में लगे हुये हैं | पंजाबी सिनेमा या भोजपुरी सिनेमा जैसे क्षेत्रीय नामों में भी राजनीति को पनपनें का पूरा अवसर मिलता है | अब वह ज़माना गया जब अमिताभ बच्चन को हर वंश राय बच्चन के पुत्र के रूप में जाना जाता था | अब इसका उल्टा है | हरवंश राय जी इसीलिये चर्चा मेँ आते हैं कि वे अमिताभ बच्चन के पिता हैं | भारत के कितनें ही राज्यों में सिनेमायी नायक और नायिकायें राजनीति में शीर्ष स्थान में पहुँच जाते हैं | इसका कारण उनकी बौद्धिक क्षमता न होकर उनकी नाटकीय कलाबाजी में छिपा होता है | ऐसा नहीं है कि हम सिनेमा को मानव की कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप में छोटा करनें की कोशिश कर रहे हैं | इसमें कोई शक नहीं है कि अभिनय की कला अपनें में एक अत्यन्त बहुमुखी व्यक्तित्व की मांग करती है पर 'माटी ' के संपादक का यह विश्वास है कि सच्चा जननायक सिनेमायी नायक के मुकाबले में ज्यादा ईमानदार और वजनदार व्यक्तित्व का धनी होता है | सच पूछो तो आज वैसे राजनीतिक मार्ग दर्शक दिखायी ही नहीं पड़ते जो व्यक्तिगत सत्ता के  लालच से ऊपर उठकर राष्ट्र के भविष्य द्रष्टा बन सकें और अपनें व्यक्तिगत तथा निहित स्वार्थों की तिलांजलि देकर लक्ष्यों के ऊँचें सोपानों की श्रष्टि कर सकें | जब हम अब्राहम लिंकन ,महात्मा गान्धी ,रूजवेल्ट ,विंस्टन चर्चिल और डिगाल की स्मृति अपनें मन में उकेरते हैं तो हमें दिखायी पड़ता है कि आज के हमारे राजनीतिक नेता कितनें बौनें और छुद्र हितों के लिये झूठी -सच्ची बयानबाजी करते रहते हैं | सिनेमा मनोरंजन के साथ हमें सामाजिक जीवन और राजनीतिक जीवन की अच्छाइयों और कुटिलताओं से परिचित कराता है | इसमें कोई शक नहीं कि यह काम भी अत्यन्त सराहनीय है पर राष्ट्र की प्रगति के लिये जिस नायकत्व की जरूरत होती है वह एक विशिष्ट प्रकार की प्रतिभा से ही उपजता है | सच कहें तो आज हमारे जीवन में सभी कुछ नाटकीय हो गया है | छलना हमारा जीवन मन्त्र बन गयी है और आडंबर हमारा अभिभाज्य मानसिक दोष बन गया है | साहित्य की मूल्यवान रचनायें जो कल तक कालजयी मानी जाती थीं आज उपेक्षा का विषय बन गयी हैं | ऐसा नहीं है कि सब जो लिखा जा रहा है मात्र कूड़ा करकट है पर इतना तो है ही कि अधिकाँश लेखन और रचना धर्मिता बाजारू सस्तेपन का शिकार हो गयी है | अब हम केवल आर्थिक विशेषज्ञों और विदेशी समाजशात्रियों की विवेचनाओं का जिकर करते हैं | हम में अपनी सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की गहरी छान बीन करनें की प्रवृत्ति लाचार हो गयी है | अपनी किसी भी बात को विदेशी विद्वानों की सरपरस्ती से ही आदर मिल पाता है | भारत के बौद्धिकों की यह मानसिक कमजोरी राष्ट्र के विकास के लिये एक अत्यन्त घातक महामारी के रूप में फैलती जा रही है | हमें प्रतिबद्धित होकर अपनें को इस मानसिक गुलामी से मुक्त करना होगा | यह ठीक है कि केवल अत्यन्त प्राचीन संस्कृति का धनी होनें से ही कोई राष्ट्र बड़ा नहीं हो जाता | पर जिसके  पास अपना कोई आधार ही न हो और जो नींव हीन अट्टालिकायें खड़ा कर रहा हो उसे सर्व श्रेष्ठ मान लेना भी मानसिक गुलामी के अतिरिक्त और क्या है | जो पश्चिम नें कहा है या किया है केवल वही सच है बाकी सब व्यर्थ है ऐसा मानना दिमागी दिवालियेपन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? प्रधान मन्त्री अपना बिगुल बजा रहे हैं और हर क्षेत्रीय या  प्रान्तीय नेता या हर छोटी या बड़ी राजनीतिक पार्टी हमें मानसिक रूप से स्वतन्त्र होनें के लिये पुकार लगा रही है | पर इन सब पुकारों के पीछे अधिकतर नाटकीय कलाबाजी ही है | सभी चाहते हैं कि प्रबुद्ध चिन्तन अनिश्चित काल तक होता रहे ताकि वे सामान्य जन को भ्रम की स्थिति में डाल कर अपनी गद्दियाँ कायम रखें | आवश्यकता है फिर किसी निराला की ललकार देनें वाले कालजयी शब्द शिल्पकार की |
" जागो फिर एक बार
सिंहनी की मादी में
आज घुस आया स्यार
पश्चिम की उक्ति नहीं
गीता है ,गीता है
योग्य जन जीता है | जागो फिर एक बार | "
                                                 ' माटी  ' के पुत्रो उठो और राष्ट्र की इस पवित्र भूमि को विश्व की वन्दना के योग्य बनानें के लिये अपनें को समर्पित करो |
                               

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