सांध्य - बेला
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एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा |
दीप्ति काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ||
एक कदम उठ गया मौत की मंजिल पानें |
एक लहर उठ चली काल की प्यास बुझानें ||
एक पृष्ठ बह गया प्रलय की जलधारा में |
एक गीत घिर गया गद्य की घनकारा में ||
त्याग पुष्प झड़ गया शेष ममता का काँटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
जीवन सरिता नित प्रति बहती ही रहती है |
स्वत्व -समर्पण की गाथा कहती रहती है ||
पर आकंठ समर्पण -सुरसरि वही नहाते |
आत्माहुति दे जीवन न्योछावर कर जाते ||
भास्कर का क्या अर्थ न यदि घन दुःख -तम छांटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
ज़रा मरण का चक्र सनातन ही चलता है |
प्राण -दीप पर सदा मृत्यु मुख में पलता है ||
कुछ पैरों में थिरकन लाओ ,अधरों पर मुस्कानें |
कुछ आँखों से आँसू तोड़ो स्वर में भर दो गानें ||
युग वरेण्य नर -पुंगव जिसनें जन मन अन्तर पाटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
प्रतिपल प्रतिक्षण बाहु युग्म में भर भर तमस हटाओ |
मृत्युंजय बन हंसो मृत्यु पर जीवन सुरभि लुटाओ ||
हर प्रभात होली बन जाये हर संध्या दीवाली |
हर धमनी में मुखर हो उठे स्वस्थ रक्त की लाली ||
सोंधी महक लिये माटी की फैले बेल विराटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
दीप्ति -काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ||
प्रश्न उत्तर मांगते हैं
-----------------------
हजारों साल से फसलें उगाता जा रहा हूँ
भूख की डाईन निरन्तर बलि अभी तक पा रही है |
काहिरा से सोन तट सब भर दिये वस्त्रा भरण से
श्रम रता धनिया चिता पर अर्धनग्ना जा रही है |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
जूझते अंगार प्रश्नों से रहे हैं ऋषि मनीषी
एक उत्तर था ' प्रवाहण ' नें सुझाया |
एक उत्तर बुद्ध की बाणीं बना था
एक उत्तर अरब से उठकर हमारे द्वार आया |
किन्तु सब उत्तर निरुत्तर बन खड़े हैं
गली खेतों में पड़ी लाशें उन्हें ललकारती हैं |
यीशु ,प्रभु , गांधी ,गुरुनानक सभी की स्वर लहरियां
गोलियों से विंध तड़प इतिहास पर सिर मारती हैं
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
गगन गंगा द्वार जय -रथ मनुज का आकर खड़ा है
ज्योति वस्त्रों से सजे नभ के पड़ोसी जुड़ रहे हैं |
सौर मंडल पार धरती से नियन्त्रित मनुज यन्त्रित
इंद्र धनुषी केतु ऊर्जा सेतु से नित उड़ रहे हैं |
एक बाली से सहस्त्रों बालियां हैं फूट निकलीं
रेत के उर से निकल लहरा रही पाताल धारा |
तरल सोनें से भरा है वक्ष मां का धन्य पावन
अब हमारे हाँथ जल थल ही नहीं आकाश सारा |
भोज में फेंकें गये पत्तल उठा कर चाटनें
मनु -पुत्र भी क्यों आज भी टकरा रहे हैं |
पूज्य मानव -देह की ऐसी उपेक्षा आह !बापू |
सद्य -जाता शिशु पड़ा है गिद्ध कौवे खा रहे हैं
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
आज संम्भव है धरा का हर मनुज
पा सके घर ,वस्त्र ,वाहन स्वास्थ्य ,सुख |
आज संम्भव है गरीबी ,भुखमरी
व्यर्थता ,बेरोजगारी को दबा दे मृत्यु -मुख |
किन्तु यह संम्भावना कविता बनीं क्यों जी रही है
अंतरिक्षी आणविक विस्फोट का विष पी रही है |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
परत पर परतें चढ़ी हैं यह मुखौटों का छलावा
है हमीं में खोट हम दो- जीभ बनकर जी रहे हैं |
सत्य कुछ है कथ्य कुछ है फिर कबीरा रो रहा है
जान कर भी जान डर से होंठ अपनें सी रहे हैं |
वर्ष में छह बार केंचुल छोड़ता फणिधर कटीला
हर दिवस चोला बदलनें की लगी है होड़ नर में |
ज्योति -सीढ़ी अनुछुई अब तक उपेक्षित ही खड़ी है
समझ कर थाती सहेजे है मनुज कंकाल कर में |
तोड़ दो वे मौन जो दीवार बनकर आ खड़े हैं
तोड़ दो हर घेर जो इन्सानियत को बांधता है |
सींच दो अंकुर मरुस्थल चीर कर जो उग रहे हैं
नाच कर तलवार पर साधक कला को साधता है |
प्रश्न छाती खोलकर सम्मुख खड़े हैं
हो अगर सामर्थ्य उनका भार झेलो |
देह माटी की न जोड़ो मोह उससे
गांधी का , बुद्ध का ,कुछ प्यार ले लो |
सो चुके लम्बी अवधि तक
अब तनिक फिर जागते हैं |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं ||
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एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा |
दीप्ति काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ||
एक कदम उठ गया मौत की मंजिल पानें |
एक लहर उठ चली काल की प्यास बुझानें ||
एक पृष्ठ बह गया प्रलय की जलधारा में |
एक गीत घिर गया गद्य की घनकारा में ||
त्याग पुष्प झड़ गया शेष ममता का काँटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
जीवन सरिता नित प्रति बहती ही रहती है |
स्वत्व -समर्पण की गाथा कहती रहती है ||
पर आकंठ समर्पण -सुरसरि वही नहाते |
आत्माहुति दे जीवन न्योछावर कर जाते ||
भास्कर का क्या अर्थ न यदि घन दुःख -तम छांटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
ज़रा मरण का चक्र सनातन ही चलता है |
प्राण -दीप पर सदा मृत्यु मुख में पलता है ||
कुछ पैरों में थिरकन लाओ ,अधरों पर मुस्कानें |
कुछ आँखों से आँसू तोड़ो स्वर में भर दो गानें ||
युग वरेण्य नर -पुंगव जिसनें जन मन अन्तर पाटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
प्रतिपल प्रतिक्षण बाहु युग्म में भर भर तमस हटाओ |
मृत्युंजय बन हंसो मृत्यु पर जीवन सुरभि लुटाओ ||
हर प्रभात होली बन जाये हर संध्या दीवाली |
हर धमनी में मुखर हो उठे स्वस्थ रक्त की लाली ||
सोंधी महक लिये माटी की फैले बेल विराटा |
एक वर्ष चल गया किसी का दुख न बांटा ||
दीप्ति -काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ||
प्रश्न उत्तर मांगते हैं
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हजारों साल से फसलें उगाता जा रहा हूँ
भूख की डाईन निरन्तर बलि अभी तक पा रही है |
काहिरा से सोन तट सब भर दिये वस्त्रा भरण से
श्रम रता धनिया चिता पर अर्धनग्ना जा रही है |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
जूझते अंगार प्रश्नों से रहे हैं ऋषि मनीषी
एक उत्तर था ' प्रवाहण ' नें सुझाया |
एक उत्तर बुद्ध की बाणीं बना था
एक उत्तर अरब से उठकर हमारे द्वार आया |
किन्तु सब उत्तर निरुत्तर बन खड़े हैं
गली खेतों में पड़ी लाशें उन्हें ललकारती हैं |
यीशु ,प्रभु , गांधी ,गुरुनानक सभी की स्वर लहरियां
गोलियों से विंध तड़प इतिहास पर सिर मारती हैं
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
गगन गंगा द्वार जय -रथ मनुज का आकर खड़ा है
ज्योति वस्त्रों से सजे नभ के पड़ोसी जुड़ रहे हैं |
सौर मंडल पार धरती से नियन्त्रित मनुज यन्त्रित
इंद्र धनुषी केतु ऊर्जा सेतु से नित उड़ रहे हैं |
एक बाली से सहस्त्रों बालियां हैं फूट निकलीं
रेत के उर से निकल लहरा रही पाताल धारा |
तरल सोनें से भरा है वक्ष मां का धन्य पावन
अब हमारे हाँथ जल थल ही नहीं आकाश सारा |
भोज में फेंकें गये पत्तल उठा कर चाटनें
मनु -पुत्र भी क्यों आज भी टकरा रहे हैं |
पूज्य मानव -देह की ऐसी उपेक्षा आह !बापू |
सद्य -जाता शिशु पड़ा है गिद्ध कौवे खा रहे हैं
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
आज संम्भव है धरा का हर मनुज
पा सके घर ,वस्त्र ,वाहन स्वास्थ्य ,सुख |
आज संम्भव है गरीबी ,भुखमरी
व्यर्थता ,बेरोजगारी को दबा दे मृत्यु -मुख |
किन्तु यह संम्भावना कविता बनीं क्यों जी रही है
अंतरिक्षी आणविक विस्फोट का विष पी रही है |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
परत पर परतें चढ़ी हैं यह मुखौटों का छलावा
है हमीं में खोट हम दो- जीभ बनकर जी रहे हैं |
सत्य कुछ है कथ्य कुछ है फिर कबीरा रो रहा है
जान कर भी जान डर से होंठ अपनें सी रहे हैं |
वर्ष में छह बार केंचुल छोड़ता फणिधर कटीला
हर दिवस चोला बदलनें की लगी है होड़ नर में |
ज्योति -सीढ़ी अनुछुई अब तक उपेक्षित ही खड़ी है
समझ कर थाती सहेजे है मनुज कंकाल कर में |
तोड़ दो वे मौन जो दीवार बनकर आ खड़े हैं
तोड़ दो हर घेर जो इन्सानियत को बांधता है |
सींच दो अंकुर मरुस्थल चीर कर जो उग रहे हैं
नाच कर तलवार पर साधक कला को साधता है |
प्रश्न छाती खोलकर सम्मुख खड़े हैं
हो अगर सामर्थ्य उनका भार झेलो |
देह माटी की न जोड़ो मोह उससे
गांधी का , बुद्ध का ,कुछ प्यार ले लो |
सो चुके लम्बी अवधि तक
अब तनिक फिर जागते हैं |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं ||
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