विश्व के कई प्रख्यात भाषा विद अपनें शोध के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि म्यूजिक की मौलिक रागात्मता भाषा की उत्पत्ति के पहले से ही मानव और वनमानुषों के पूर्वजों में उपजी थी | उन्होनें पाया है कि चिंपाजी कई बार पेड़ों के तनों पर तबले की तरह ठुमके लगाते देखे गये हैं | अन्य वनमानुषों की प्रजातियां भी हर्ष , अवसाद और मिलन के नैसर्गिक आवेश में भिन्न -भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं | अनुमान लगाया गया है कि म्यूजिक अपनें अविकसित रूप में लगभग 40 हजार वर्ष पूर्व ही नर वानरों में उपस्थित था | संम्भवतः म्यूजिक की छन्दात्मकता ही स्वरों और व्यंजनों का रूप लेकर भाषा की उत्पत्ति की ओर धीरे -धीरे अगढ़ ,सगढ़ ,अटपट और झटपट शब्दों के अर्थ संग्रहित होते गये | और चल निकला भाषा के विश्वव्यापी व्यापार का कारवाँ | देश ,काल और प्रकृति जन्य विभिन्नता नें प्रारंम्भिक स्वरूप को शत सहस्त्रमुखी मोड़ दिये | भाषा विज्ञानी इस दिशा में निरन्तर शोधरत हैं और लगता है कि आनें वाले समय में किसी विश्व भाषा की संरचना हो जाय जो कम्प्यूटर और इन्टरनेट का सहारा लेकर यान्त्रिक मानव का अभिव्यक्त माध्यम बन जाय | पर म्यूजिक भाषा से बंधकर एक विशेष भाषायी क्षेत्र में भले ही अधिक प्रभाव छोड़ जाती हो पर अपनें मूल रूप में म्यूजिक भाषा के बन्धन से मुक्त होकर भी जीवन्त लहरें संचालित करती रहती है | म्यूजिक का प्रभाव विशुद्ध तर्कशीलता को एक अबूझ चुनौती देता दिखायी पड़ता है | विश्व के कई धर्म या आस्था स्रोत म्यूजिक को एक उन्माद के रूप में लेते हैं और अपनें अनुयायियों को उससे बचनें की सलाह देते हैं | यूनान के कई महान चिन्तक यह मान कर चलते थे कि बड़े से बड़े विद्वान का मानसिक सन्तुलन एक अंधेरे म्यूजिक से गूँज रहे कक्ष में बैठनें पर असन्तुलित हो जाता है | भारत की भक्ति परम्परा इसीलिये म्यूजिक के माध्यम से मस्तिष्क को तर्कातीत सत्य की ओर प्रेरित करती रहती है | आप सबका यह जाना -पहचाना अनुभव है कि बचपन में शैशव में ही रागात्मकता की प्रवृत्ति प्रबल रहती है | गीतों की लयात्मकता और उनका हृदयहारी गुंजन बचपन में हमें बहुत लुभाता है | प्रारम्भिक शिक्षा भी बहुत कुछ लय ,तुक और बिना समझे रटने की प्रवृत्ति से संचालित होती रहती है | जैसे -जैसे हम बड़े होते हैं हम बुद्धि बल पर विवेचना के क्षेत्र में उतरनें लगते हैं | बुद्धि की विशेषता यही है कि वह शब्दों में छिपी गहरी अर्थवत्ता की तलाश करती है | जो जितना अधिक विद्वान होता है उतना ही अधिक विवेचक बनता जाता है | राग और संगीत ,स्वर और ताल उसे छूते तो अवश्य हैं क्योंकि वह लाखों वर्षों की विकास प्रक्रिया का वाहक है पर उसका विवेक उसे म्यूजिक से ऊपर म्यूजिक के ठोस धरातल पर ले जाता है | सच पूछो तो नर -नारी का आकर्षण भी बहुत कुछ अहैतुक होता है और उसमेँ म्यूजिक जैसी ही उन्मादी खुमारी हावी रहती है इसीलिये विज्ञान म्यूजिक को मनोरंजन और श्रम को हल्का करने वाले कारगर साधन के रूप में स्वीकार करता है पर उसे विश्व की जटिल समस्याओं के समाधान के लिये एक प्रभावी साधन नहीं मानता | बहुत से भवुक लोग ऐसा मानकर चलते हैं कि म्यूजिक के द्वारा खेतों की फसल बढ़ाई जा सकती है या मेघ राग से बादल बुलाये जा सकते हैं या स्वरों की ऊर्जा से दीपक जलाये जा सकते हैं | पर इन सब बातों को प्रायोगिक विज्ञान कपोल कल्पना ही मानता है | आज के बदलते विश्व में कविता भी विचारों का बोझ लेकर गद्य का ही एक सुनियोजित रूप होती है | मानव उत्कर्ष के लिये विचारों की उच्चता और प्रकृति के जटिल रहस्यों का उद्घाटन ही नयी -नयी संम्भावनायें उपस्थित कर सकता है | पण्डित ,पुरोहित , तान्त्रिक और मान्त्रिक ऐसा मानते हैं कि शब्दों के कुछ विशेष संगठित वाक्य यदि बार -बार दोहराये जांय तो मन में एकाग्रता की श्रष्टि हो जाती है | और एकाग्र मन अन्तरिक्ष के रहस्य द्वार तक पहुंचा देता है | ' माटी ' यह तो मानती है कि तन्मयता की स्थिति एक अनोखी पुलक दे जाती है पर 'माटी ' को यह स्वीकार नहीं है कि कोई भी पंथ , सम्प्रदाय ,आस्था या विचारधारा सार्वकालिक सत्य अपनें में छिपाये है | कोई भी धर्म जो जनूनी उन्माद पैदा करता है और अपनी बात के अतिरिक्त और किसी भी अन्य सत्य की संम्भावनाओं को अस्वीकार करता है केवल किसी पुराकाल की उपज है | मनु के काल का सामाजिक सत्य आज के सामाजिक सत्य से मेल नहीं खा सकता | कितनें ही मौलिक इस्लामी चिन्तकों और लेखकों नें समय और काल के अनुसार इस्लामी विचारधारा की व्याख्या की है जिसके औचित्य को धर्म निरपेक्षता के सन्दर्भ में स्वीकारा जाना चाहिये | अब जब मंगल ग्रह हमारी पकड़ में आ चुका है और असंख्य प्रकाश गंगाओं का झिलमिल संसार हमें अपनें समीप बुला रहा है तब पुराकाल और मध्य कालीन समाजों की मान्यतायें मानव जाति को संचालित करनें की क्षमतायें खो चुकी हैं | मानव जाति का अस्तित्व मानव सभ्यता की जिन नयी संधारणाओं को स्वीकार कर आगे बढ़ रहा है उसको नकारनें वाले कट्टर समुदाय प्रतिगामी ही कहे जायेंगें | हमारे पूर्वजों नें जो कुछ कहा है वह अपनें युग का सत्य हो सकता है पर उसे शाश्वत और अपरिवर्तनशील मान लेना हठधर्मिता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | आज हम यदुवंशी ,रघुवंशी ,मनुवंशी या निरवंशी होनें के पुरानें गौरव को अपनें भविष्य के विकास के लिये पूंजी के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकते | वंशवादी सारे अभिमान डोडियाखेड़ा में गड़े हुये खजाने के समान हैं जिसे खोजने के लिये पाताल के गर्त तक जाना पड़ेगा पर मानव को अधोमुखी चिन्तन से मोड़कर ऊर्ध्वमुखीं चिन्तन की ओर ले जाना ही तो स्वर्गारोहण है | जब तक हम अपनें को सच्चे अर्थों में धरती पुत्र नहीं बना सकते तब तक स्वर्गारोहण की बात तो पीनक की सनक ही मानी जायेगी | आइये हम ' माटी ' के पुत्र बनें | लिंग ,जाति , वर्ण , सम्प्रदाय , क्षेत्र और अहंकार से मुक्त सम्पूर्ण मानव बननें का प्रयास करें |
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