भारत के महानगरों की सड़कों पर भारत की आश्चर्यजनक विभिन्नता के अभावोत्पादक छवि चित्र देखे जा सकते हैं | अपार वैभव की झलक के साथ दारुण हृदयविदारक भुखमरी ,उल्लास और करुणा का मर्मभेदी द्रश्य प्रस्तुत कर देते हैं | साढ़े आठ प्रतिशत से लेकर नौ प्रतिशत तक बढ़ी हुयी आर्थिक विकास गति 40 -50 लाख से ऊपर की गाड़ियों में दोलायित रहती है | जब किसी क्रासिंग पर लाल बत्ती इन गाड़ियों को थोड़ी देर के लिये रोकती है तो इनके आस -पास कितनीं ही याचना भरी आँखें गाड़ी में बैठी महिलाओं के कानों से झूलते स्वर्ण कुण्डल निहारती हुयी दिखायी पड़ती हैं | आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता का यह भयानक अन्तर गाड़ियों के पीछे लम्बी लगी मोटर साइकिलों में थोड़ा -बहुत सन्तुलन पा लेता है पर राजमार्ग के फुटपाथ से लगे किनारों पर श्रमिकों की साइकिलों की लम्बी लाइनें वर्ग विभाजन की निचली रेखाओं सी जान पड़ती हैं | शासन व्यवस्था का प्रत्येक तन्त्र सभ्य समाज की सामाजिक व्यवस्था के प्रारम्भ से ही यह दावा करता रहा है कि शासन तन्त्र न्याय की समानता तो देगा ही पर उसके साथ आर्थिक समानता के लिये भी प्रयत्नशील रहेगा | इतना अवश्य है कि आर्थिक समानता ज्यामिति की रेखाओं की तरह एक जैसी नहीं होगी पर इतना अवश्य होगा कि जिस आधार पर यह खड़ी की जायेगी वह आधार अपनें युग के सभ्य जीवन स्तर का बोझ उठा लेनें में समर्थ होगा | अधिकाँश भारत वासी यह मानते हैं कि आर्थिक समानता की कुछ ऐसी ही व्यवस्था महानायक श्री राम के राज्य में स्थापित हो सकी थी और सम्भवतः इसीलिये महात्मा गान्धी के स्वराज्य की कल्पना राम राज्य से मेल खाती थी , जैसा अतीत में था वैसा ही चित्र आज भी दिखायी पड़ता है | हर राजनीतिक पार्टी आम आदमी की खुशहाली का काम करनें का दावा करती है पर आम आदमी की परिभाषा अर्थवान निरूपण के सभी प्रयासों को नकारती दिखायी पड़ती है | स्वर्ण धूलि में लोटते कार्पोरेट जगत के डायरेक्टरों के मुकाबले में 10 हजार मासिक तनख्वाह पानें वाला चोकीदार ,चपरासी एक आम आदमी ही है और इन चौकीदार ,चपरासियों के मुकाबले में फटी धोती में शिशु को संम्भाले कटोरी फैलाकर भीख मांगती हुयी दयनीय नारी को हम क्या कहकर पुकारें ,इसके लिये शब्द पाना कठिन होता है | जनता से या जनता जनार्दन से जो अर्थपूर्ण ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं उनको एक सुस्पष्ट व्याख्या में बाँधना एक दुष्कर कार्य है | हीरों के जगमगाते अम्बारों और गंदली नालियों में पलते शिशु समूहों के बीच का अन्तर तो सभी को स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है |
पर हम जिस अपार विभिन्नता की बात कर रहे हैं वह केवल आर्थिक धरातल पर ही सिमट कर नहीं रह जाती | महानगरीय सड़कों पर आप वेष -भूषा ,केश -राशि का रख रखाव ,वाहन परिचालन की भद्रता -अभद्रता ,और मौखिक मुद्राओं के न जानें कितनें आश्चर्य भरे रूप देख सकते हैं | इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशाब्द की समाप्ति तो होनें जा रही है पर आप भारत की महानगरी की सड़कों पर बाईसवीं सदी के परिधानों ,प्रकारों और उत्तेजक आचरणों की झांकिया भी प्रचुर मात्रा में सहेज सकते हैं | इसके साथ ही साथ साम्राज्यवाद का उन्नीसवीं सदी वाला बोलचाल का वह लहजा भी आप को सुननें को मिल जायेगा जब Proper को Propah कहा जाता था और My Lord को मिलार्ड कहना वकील होनें की शान मानी जाती थी | इतना ही नहीं कई बार आप अठ्ठारहवीं शताब्दी या उससे पीछे के मध्ययुगीन काल की झलकियां भी पा सकते हैं जब फारसी अपनेँ हुस्न पर थी और खाने खाना होना दरबारी गौरव का चरम शिखर था | महिलाओं की वेष -भूषा की विभिन्नता ,उनके केश- राशियों की गुम्फन -अगुम्फन शैली कभी हमें अजन्ता के गुफा काल के चित्रण तक पहुंचाती दिखायी पड़ती है | तो कभी उस आच्छादन युग की ओर जब अन्धकार ही नारी आकृति को देख सकता था | इतनी अपार विभिन्नता के साथ भारत सहस्त्रों काल से चलता ,रुकता ,बढ़ता ,ठहरता ,गिरता ,संम्भलता ,गतिमान रहा है और जब तक मानव श्रष्टि है शायद गतिमान रहेगा | ज्ञात इतिहास के समुद्रगुप्त विक्रमादित्य काल को पहले इतिहास के विद्यार्थियों को स्वर्ण काल के रूप में चित्रित कर पढ़ाया जाता था पर अब कुछ प्रगतिशील कहे जानें वाले इतिहासविदों नें उसे स्वर्णकाल न कहकर पुकारनें की अपील की है | उनका कहना है कि उस काल में भी आम आदमी या सामान्य जन शोषित ही था | प्रगति की क्या व्याख्या है इसे तो प्रगतिशील कहे जानें वाले विचारक ही जानें | इनमें से कई विचारक तो राम -राज्य को भी शोषण व्यवस्था से मुक्त नहीं पाते | पर सब इतिहासों से उठकर एक ऐसा इतिहास होता है जो अप्रयास ही संस्कारों द्वारा हमें मिलता है | यही विश्वास हमें बताता है कि स्वयं मर्यादा में अपनी इच्छा से बंध कर ही जब कोई शासक मर्यादा पुरुषोत्तम हो जाता है तो जनमानस उसे भगवान के रूप में पूजनें लगता है हमें अपनें शासकों से जो हमारे ही प्रतिनिधि हैं इसी मर्यादा की अपेक्षा है | पर्णकुटी में रहकर राज्य का संचालन करना रामानुज भरत के जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी और भारत आशा भरी द्रष्टि लेकर उन नवयुवक जन प्रतिनिधियों की ओर देख रहा है जो भरत परम्परा को पुनर्जीवित करनें की क्षमता रखते हों |
पर हम जिस अपार विभिन्नता की बात कर रहे हैं वह केवल आर्थिक धरातल पर ही सिमट कर नहीं रह जाती | महानगरीय सड़कों पर आप वेष -भूषा ,केश -राशि का रख रखाव ,वाहन परिचालन की भद्रता -अभद्रता ,और मौखिक मुद्राओं के न जानें कितनें आश्चर्य भरे रूप देख सकते हैं | इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशाब्द की समाप्ति तो होनें जा रही है पर आप भारत की महानगरी की सड़कों पर बाईसवीं सदी के परिधानों ,प्रकारों और उत्तेजक आचरणों की झांकिया भी प्रचुर मात्रा में सहेज सकते हैं | इसके साथ ही साथ साम्राज्यवाद का उन्नीसवीं सदी वाला बोलचाल का वह लहजा भी आप को सुननें को मिल जायेगा जब Proper को Propah कहा जाता था और My Lord को मिलार्ड कहना वकील होनें की शान मानी जाती थी | इतना ही नहीं कई बार आप अठ्ठारहवीं शताब्दी या उससे पीछे के मध्ययुगीन काल की झलकियां भी पा सकते हैं जब फारसी अपनेँ हुस्न पर थी और खाने खाना होना दरबारी गौरव का चरम शिखर था | महिलाओं की वेष -भूषा की विभिन्नता ,उनके केश- राशियों की गुम्फन -अगुम्फन शैली कभी हमें अजन्ता के गुफा काल के चित्रण तक पहुंचाती दिखायी पड़ती है | तो कभी उस आच्छादन युग की ओर जब अन्धकार ही नारी आकृति को देख सकता था | इतनी अपार विभिन्नता के साथ भारत सहस्त्रों काल से चलता ,रुकता ,बढ़ता ,ठहरता ,गिरता ,संम्भलता ,गतिमान रहा है और जब तक मानव श्रष्टि है शायद गतिमान रहेगा | ज्ञात इतिहास के समुद्रगुप्त विक्रमादित्य काल को पहले इतिहास के विद्यार्थियों को स्वर्ण काल के रूप में चित्रित कर पढ़ाया जाता था पर अब कुछ प्रगतिशील कहे जानें वाले इतिहासविदों नें उसे स्वर्णकाल न कहकर पुकारनें की अपील की है | उनका कहना है कि उस काल में भी आम आदमी या सामान्य जन शोषित ही था | प्रगति की क्या व्याख्या है इसे तो प्रगतिशील कहे जानें वाले विचारक ही जानें | इनमें से कई विचारक तो राम -राज्य को भी शोषण व्यवस्था से मुक्त नहीं पाते | पर सब इतिहासों से उठकर एक ऐसा इतिहास होता है जो अप्रयास ही संस्कारों द्वारा हमें मिलता है | यही विश्वास हमें बताता है कि स्वयं मर्यादा में अपनी इच्छा से बंध कर ही जब कोई शासक मर्यादा पुरुषोत्तम हो जाता है तो जनमानस उसे भगवान के रूप में पूजनें लगता है हमें अपनें शासकों से जो हमारे ही प्रतिनिधि हैं इसी मर्यादा की अपेक्षा है | पर्णकुटी में रहकर राज्य का संचालन करना रामानुज भरत के जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी और भारत आशा भरी द्रष्टि लेकर उन नवयुवक जन प्रतिनिधियों की ओर देख रहा है जो भरत परम्परा को पुनर्जीवित करनें की क्षमता रखते हों |
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