नव विकासवादी विचारक यह मान कर चलते हैं कि आकार का विस्तार पाकर जीवन्त प्राणीं अपनी आन्तरिक प्रवृत्तियों में परिवर्तन के दौर से गुजरनें लगते हैं | सीधे शब्दों में इसका अर्थ यह होता है कि काल के सतत प्रवाह में परिवेश की चुनौती भरी प्रतिकूलताओं के कारण सैकड़ों -हजारों पीढ़ियों के बाद जीवन्त प्राणियों की कोई एक प्रजाति आकृति में आश्चर्यजनक परिवर्तन कर लेती है तो उसकी आन्तरिक प्रवृत्तियां और क्षमतायें बदल जाती हैं | लम्बे प्रयोगों के बाद यह पाया गया कि सामान्यतः गधे का शाकाहारी होना उसके प्रकृति की अनिवार्य बाध्यता नहीं है | भोजन के अभाव में यदि उसकी कुछ पीढ़ियां बच जाती हैं तो एक लम्बे अन्तराल के बाद जीवन सुरक्षा के लिये यह प्रजाति मांसाहारी प्रवृत्ति अपना सकती है | अरबों वर्षों तक धरती विकास का इतिहास बिल्कुल अप्रतिहत गति से चलता रहा ,विकास किसी एक सीधी लाइन में न चलकर अनगिनित प्रकृति संचालित प्रयोगों से प्रसरण ,परिवर्धन या विनिष्टीकरण की प्रक्रियाओं से गुजरता रहा | प्रजनन का असहनीय आन्तरिक दबाव भी प्राणियों में अभूतपूर्व परिवर्तन करता दिखायी पड़ता है उदाहरण के लिये हांथी जब मस्त हो जाता है तो उसे अनुशासित रखनें में काफी कठिनाई झेलनी पड़ती है | अन्य घरेलू प्राणियों या हमारे आस -पास रहनें वाले पशुओं ,पक्षियों में भी प्रजनन बाध्यता से दिखाई पड़ने वाला परिवर्तन सभी को नजर में आया होगा | यह सब लिखनें का तात्पर्य केवल इतना है कि हमारे जीवन की संरचना में कहीं भी कुछ ऐसा नहीं है जो परिवर्तन शील न हो | हमारे मूल्यबोध ,हमारी जीवन द्रष्टि ,,हमारी राष्ट्रीय अस्मिता ,और हमारे व्यक्तित्व की निराली पहचान सभी की सार्थकता अपनें सामायिक सन्दर्भों में ही आंकी जा सकती है | आदिम सभ्यता के मूल्य बोध आज बेमानी हो चुके हैं | सामन्ती व्यवस्था के मूल्यबोध आज इतिहास के कूड़ों में फेंक दिये गये हैं | हमारे सम सामयिक मूल्य भी परस्पर इतनें विरोधी दिखायी पड़ते हैं कि उनमें से बहुतों को आधुनिक मानव चेतना से जोड़कर देखा ही नहीं जा सकता | उदाहरण के लिये जनूनी इस्लामिक गुटों का आतंकवादी दर्शन अबौद्धिक व्याख्याओं का सहारा पाकर भी समसामयिक सन्दर्भों में एक लंगड़ा जीवन दर्शन है | इस मनोवृत्ति को समूल उखाड़कर सहयोगी और समरसी मानव जीवन शैली को स्वीकार करना ही आज विश्व का भविष्य है | मानव विकास के लम्बे इतिहास में यदि हम प्रागैतिहासिक काल को छोड़कर भी देखें ,हठवादिता के काफी प्रयोग हो उठे हैं | प्रजातीय और राष्ट्रीय श्रेष्ठता ही पशु प्रवृत्ति संस्कारित करके नये चमक -दमक में धर्म के साथ जुड़कर मानव मूल्यों पर प्रवर प्रहार करती है | साम्यवाद का लौह शिकंजा, हिटलर का नाजीवाद और मुसोलनी का फासीवाद सभी इसी मानसिक उपसंस्कृति से जन्में हैं | हमें हर दुराग्रहों से मुक्त होना पड़ेगा | नील क्षितिज के नीचे ब्रम्हाण्ड में इतना आकाश है कि उसमें मानव मन की कल्पनायें विज्ञानं के हिंडोलों पर चढ़कर अनन्त काल तक पैंगें लगा सकती हैं | ' माटी ' के पाठकों को समझना होगा कि शब्दों की सार्थकता भी सन्दर्भों में ही होती है | उदाहरण के लिये जब हम असंख्य नर -नारी कहते हैं तो उसका अर्थ नर -नारियों की गणना में अंकगणित का फेल होना नहीं है बल्कि एकत्रित जन समुदाय की विशालता को दर्शाना है | जब हम यह कहते हैं कि प्लेटो विश्व के सबसे बड़े दार्शनिक थे तो इसका यही अर्थ होता है कि वे अपनें काल के सबसे प्रतिभाशाली पुरुष थे पर आज की उपलब्धियों के सन्दर्भ में उन्हें अपनी समकालीन ऐतिहासिकता से जोड़कर ही देखना होगा | भाषा अपनी सारी शक्तियों के बावजूद अभी तक भाव अभिव्यक्ति का एक लचर साधन ही है | आप देखेंगें कि अन्तरिक्ष संचार प्रणाली में भाषा सिमट कर चिन्हों , प्रतीकों , और इंगितों में बदलकर रह गयी है | ऐसा इसलिये है कि वाणीं तो सर्वकालिक और सर्वदेशीय है पर शब्द क्षेत्रीयता और भूगौलिक सीमाओं के उत्तुंग चहरदीवारियों को लांघनें में अपनें को असमर्थ पाती है | ' माटी ' के पाठकों को शब्दों में अर्थ विस्तार के लिये अधिक से अधिक सार्थक प्रयोग करनें होंगें , कुछ प्रयोग प्रारंम्भ में अटपटे से लगेंगें और शायद अरुचिकर भी पर जिस प्रकार आन्तरिक प्रवृत्तियां बदल सकती हैं उसी प्रकार टेस्ट यानि स्वाद का बोध भी बदल जाता है | काव्य का मिठास तो हमें भाता ही है पर कभी कभी काव्य का कसैलापन भी हमें नये सिरे से सोचनें पर मजबूर कर देता है | समर्थ साहित्यकार सदैव शब्दों का नया -नया प्रयोग करते रहते हैं | चाहे कबीर हों ,चाहे तुलसी ,चाहे रवीन्द्र हों ,चाहे निराला इन सभी महान शब्द शिल्पियों में भाषा सामर्थ्य का अदभुत शक्ति प्रदर्शन होता है | हम और आप श्रजन के उतनें ऊँचें धरातल पर खड़े नहीं हो पायेंगें पर प्रयोग करना तो अपनें अधिकार क्षेत्र में है ही | अटपटे प्रयोगों से ही सार्थक प्रयोग निकलेंगें | आज हिन्दी पट्टी के छात्र इसीलिये घबरा रहे हैं कि अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जो पहली परीक्षा होगी उसमें अंग्रेजी का पेपर अनिवार्य कर दिया गया है | मेन परीक्षा में भी अंग्रेजी का पेपर है पर उसमें पास ही होना होता है | उसमें पाये गये नम्बर मेरिट लिस्ट में स्थान पानें के लिये नहीं जोड़े जाते | अन्य विषयों के नम्बरों के जोड़ से ही मेरिट लिस्ट बनती है | पर अब जो नयी प्रणाली लागू हो रही है उसमें प्रथम Aptitude में ही अंग्रेजी का पेपर अनिवार्य है और उसमें पास तो होना ही पड़ेगा साथ ही उसके नम्बर दूसरे प्रश्न पत्रों के नम्बरों के साथ मिलकर टोटल बनायेंगें और तभी यह तय हो पायेगा कि कोई नवयुवक मेन परीक्षा में बैठनें की पात्रता अर्जित कर पाया है या नहीं | अब हिन्दी भाषा -भाषी राज्यों के मेधावी छात्र अंग्रेजी पढ़ और समझ तो लेते हैं पर उनकी अभिव्यक्ति क्षमता इसलिये पूरा विकास नहीं ले पाती क्योंकि उनकी अपनी मातृभाषा हिन्दी में शब्दों का प्रयोग सीमित सन्दर्भों में ही होता रहा है | हमें अर्थ विस्तार के साथ -साथ सन्दर्भ विस्तार की ओर भी बढ़ना होगा | अब जब दुनिया डिजिटल हो गयी है और मानव रहित विमान विश्व के किसी भी कोनें में टारगेट हिट कर सकते हैं तो हमें इन सबके विशद वर्णन के लिये अपनी भाषा का शब्द विस्तार तो करना ही है | साथ ही साथ विश्व की अन्य भाषाओं के शब्द बारो करना है | एक ज़माना था जब शैक्सपियर नें कहा था , " Nither a borrower nor a lender be." पर आज तो सारे बैंक आपको बारोबार बनाना चाहते हैं और इस बात की तो होड़ लगी है कि कौन सा बैंक सबसे बड़ा लैण्डर है और देखिये अर्थजगत की एक और विडम्बना दुनिया का सबसे शक्तिशाली और सबसे धनी देश अमरीका आज दुनिया में सबसे बड़े कर्ज में लदा हुआ है तो हमें शब्दों को उधार लेकर उनमें हिन्दी व्याकरण की प्रवृत्ति के अनुसार उनमें परिवर्तन करना होगा | हमें इस बात पर आग्रह नहीं करना चाहिये कि हर नये शब्द का समानार्थक हिन्दी शब्द होना ही चाहिये हाँ हमें यह जरूर सोचना होगा कि अगर हम कुर्ता पहनें हैं तो उस पर टाई न लगावें ,कुर्ते पर बास्केट पहनना ही ठीक रहेगा पर यदि हम कालरदार कमीज पहनने लग गये हैं तो हमें टाई लगानें से ऐतराज नहीं करना चाहिये | हिन्दी तो प्राणदायिनी गंगा माँ का प्रवाह है जिसमें चारो ओर से नदी -नाले आकर जुड़ जाते हैं काफी कुछ गंदला जल भी मिलता रहता है पर जिस प्रकार गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास चल रहे हैं कुछ ऐसा ही प्रयास हमें हिन्दी भाषा के साथ भी करना होगा पर इतना अवश्य है कि यदि विदेशी शब्दों के समागम से भावार्थ की जो नयी शंकर झंकृतियाँ उभरती हैं वे यदि रुचिकर लगें तो उन्हें हमें धीरे -धीरे जातीय चेतना में समाहित करना होगा |
' माटी 'भाषा परिवर्तन के इन प्रयोगों को सफलीकृत करने के लिये प्रयत्नशील है | विश्वास है कि नवोदित लेखक ,विचारक ,रचनाकार और कवि अपनी सर्जक मेघाशक्ति को इस दिशा की ओर एक मोड़ देंगें | शब्द सामर्थ्य पर अभी इतना ही |
' माटी 'भाषा परिवर्तन के इन प्रयोगों को सफलीकृत करने के लिये प्रयत्नशील है | विश्वास है कि नवोदित लेखक ,विचारक ,रचनाकार और कवि अपनी सर्जक मेघाशक्ति को इस दिशा की ओर एक मोड़ देंगें | शब्द सामर्थ्य पर अभी इतना ही |
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