Sunday 12 November 2017

                                                             काम से राम तक 

                        अर्ध रात्रि का गहन अन्धकार | मेघाच्छादित गगन ,हल्की फुहारों की अविरल वृष्टि | एक दुमंजिले मकान की बाहरी दीवार से ऊपर चढ़ते किसी पुष्ट व्यक्ति की धुंधली झलक | एक उछाल के साथ छज्जा लांघकर अन्तर प्रविष्टि | छज्जे की ओर खुलते एक कक्ष  के काष्ठ द्वार पर हल्की सी थपक | भीतर से किसी नारी कंठ का मधुर स्वर | कौन है ? बासन्ती है क्या ? अभी तक सोयी नहीं |
                         उत्तर में धीमी दबी हुयी आवाज में हुआ एक पुरुष स्वर | मैं हूँ रत्नें ! रामबोला | काष्ठ पट खुल जाते हैं | नवयुवक पति को द्वार पर देखकर रत्नावली विस्मित हो जाती है | आप अर्ध रात्रि को जी ,भयावह वर्षा के बीच | बिना पूर्व सूचना के | हाय किसी नें देख तो नहीं लिया |
युवा तुलसी :-रत्नें मैं तुम्हारा पति हूँ ,किसी ने देख भी लिया हो तो क्या ? मैं तुम्हारा वियोग सहन नहीं कर सका | तुम बिना बताये भाई के साथ अपनें घर चली आयीं | मैं जब हाट से पाक सामग्री लेकर गृह वापस पहुंचा तो द्वार अर्गला वद्ध था | पड़ोसी रामनयन नें बताया कि तुम भाई के साथ पितृ गृह चली गयी हो और कह गयी हो कि वापस आने मेँ कुछ दिन लग जायेंगें |
रत्ना :- तो आपनें मेरे पितृ गृह में आनें को सहज भाव से क्यों नहीं लिया | इतनी उतावली कैसे कर डाली ? लाज ,मर्यादा भी तो कोई चीज होती है | आखिर घर में भाई -भाभी और बच्चे हैं ,और छोटी ननद बासन्ती है | आज बड़ी देर रात तक मेरे ही पास तो बैठी थी | उसका पाणिग्रहण सुनिश्चित हो गया है | इसी सम्बन्ध में मेरे अग्रज प्रियम्वद मुझे ले आये हैं | मैं तो समझी थी वासन्ती ही दुबारा फिर से मेरे कक्ष में आना चाहती है | भविष्य की अनदेखी झाकियां उसके मस्तिष्क में अशान्ति पैदा कर रही हैं |
युवा तुलसी : - प्रातः वासन्ती से भी मिलूँगा और प्रियम्वद जी को भी प्रणाम करूँगां | अब तो मुझे अन्दर कक्ष में बैठनें की आज्ञा दो | तुम नहीं जानतीं मैं कैसे उफनती हुयी जलधाराओं को चीर  कर सर्पिल रज्जु के सहारे दीवार लांघकर तुम तक आया हूँ |
रत्ना : - न जानें क्यों ,आपके इस समय अनाहूत आ जानें से मेरे हृदय में प्रसन्नता का भाव नहीं उठ रहा है | आप मेरी शैय्या पर बैठ लें ,मैं भूमि पर आसनी लगाकर बैठ लेती हूँ | दीप  की बाती को उकसा कर फिर से प्रज्वलित कर लेती हूँ | अभी -अभी ही तो लौ को आँचल से बुझाया था |
युवा तुलसी : - प्रिये ,अब दीप प्रज्वलित करनें की क्या आवश्यकता है | आओ हम दोनों शैय्या पर बैठ -लेट कर प्रेमालाप करें | दीप का धीमा प्रकाश भी नीचे के कक्ष तक मेरे आने की सूचना पहुंचा देगा और बगल के कमरे में वासन्ती तो अभी जग ही रही होगी | अन्धकार का आवरण ओढ़कर हम दोनों प्रेमी युगल शैय्या पर विश्राम करें यही इस समय उचित होगा | रत्नें मेरी उतावली के लिये मुझे क्षमा नहीं करोगी ?
रत्नावली :-   आपको अपनें जीवन में पाकर मैं धन्य हो गयी थी | आपकी विद्वता की चर्चा आस -पास के किस घर तक नहीं पहुँची है , पर हे प्रिय आज मुझे लग रहा है कि जैसे आपकी सारी विद्वता जैसे निरर्थक है | मानव सभ्यता इसीलिये संम्भव हो सकी है कि मानव नें अपनी वासनाओं पर सयंम करना सीखा है | शैय्या पर रमण केलि करनें की आपकी आकांक्षा पशुवृत्ति से परिचालित है | मुझे बाती उकसा कर प्रज्वलित करनें दीजिये , जो कोई आयेगा आ जायेगा | ससुर गृह में आपका मर्यादा के अनुसार स्वागत सत्कार होना ही चाहिये |
युवा तुलसी :- प्रिये , मैं किसी स्वागत ,सत्कार के लिये नहीं आया हूँ | तुम्हारे विक्षोह में न जानें क्यों अपना सारा जीवन निरर्थक लगता है | तुम मेरे पास होती हो तो वायु सुगन्ध से भर जाती है | तुम्हें अपनी बाँहों में भरकर मुझे ब्रम्ह सुख का अनुभव होता है | तुम्हारे नयन तारों में मुझे अगणित आकाश गंगाओं का प्रकाश झलकता दिखायी पड़ता है | मेरी सारी विद्वता तुम्हारे रूप के द्वार पर सिर मार -मार कर पछाड़ जाती है |
                                       इस बीच रत्ना बाती को उकेर कर प्रकाशवान कर देती है | हल्का सा प्रकाश काष्ठ पटों की सन्धि से बाहर झलकनें लगता है | बगल में बनें सटे कक्ष से शैय्या से उठकर बैठनें और फिर पट खोलकर बाहर आनें की क्रिया में उत्पन्न वायु ध्वनियाँ रत्ना तक पहुँचती हैं | युवा तुलसी को वह सचेत करती है |
रत्ना : - वासन्ती आ रही है | सहज हो जाइये | अपनी प्रगल्भता पर सयंम करिये | मैं कहीं भगी नहीं जा रही हूँ | सदैव आपके पास ही रहूंगीं | मैं जानती हूँ कि आप मुझे उतनी ही तीव्रता से प्यार करते हैं जितनी तीव्रता से श्री राम जनक पुत्री को चाहते थे |
                                       वासन्ती द्वार पर थपकी देती है | हल्के धक्के से द्वार खुल जाता है | धीमें प्रकाश में युवा  तुलसी को शैय्या पर बैठते  देखती है | बहन रत्ना नीचे आसनी पर द्वार की ओर मुख किये बैठी है |
वासन्ती :-अरे वाह जीजा जी आप ,इतनी रात को !क्या पुष्पक विमान से आ गये | बूँदें गिर रही हैं ,हाँथ को हाँथ नहीं सूझता ,सरितायें उफन रही हैं | भूगर्भ में रहनें वाले सरीसृप घबड़ा कर इधर -उधर तरंगायित हैं और आप हैं कि एक सेवायोजन तय करके बहिना के द्वार पर आ पहुंचे | बैठिये जीजा जी मैं भाभी को खबर दे आती हूँ ,आपके खान -पान की कुछ व्यवस्था हो जाय |
युवा तुलसी :-अरे वासन्ती रहनें दे ,प्रियम्बद को कष्ट मत दे | पति -पत्नी और दोनों बच्चे अपनें कक्ष में होंगें | इतनी रात को उनकी नीन्द उच्चाट करना अशोभन होगा |
वासन्ती :- जीजा जी जब आप आये हैं तो आपका सम्मान तो करना ही है | और फिर आप बड़ी बहिना के यहां आ जानें के कारण कुछ पकाकर उदर में पायन के लिये कुछ डाल भी तो नहीं आये होंगें | घर आया जमाई भूखा सो जाये ऐसा क्या कभी हो सकता है ? रत्ना कुछ नहीं बोलती |
                             वासन्ती समझ लेती है कि रत्ना की सहमति है और भाई -भाभी को सूचना देनें के लिये सीढ़ियां उतरकर नीचे कक्ष में जाती है |
युवा तुलसी :- देख रत्ना ,एक झंझट खड़ा हो गया | प्रियम्बद जी एक शास्त्री पुरुष हैं | पूर्व सूचना दिये बिना इस भयानक अर्ध रात्रि में मेरा यहां चले आना उनकी शास्त्रीय परम्परा में स्वीकृत नहीं होगा | इस समय उनके विश्राम में विघ्न उपस्थित कर शायद मैनें अच्छा नहीं किया | रत्नें मुझे बताओ मैं तुम्हारे प्रति अपनी आसक्ति को संयमित क्यों नहीं कर पाता हूँ | रत्ना चुप रहती है | सीढ़ियों पर पग चापों का स्पन्दन | एक थाल में कुछ फल और हाँथ में गौ पेय से भरा एक ग्लास लिये वासन्ती ऊपर आती है | पीछे -पीछे उसकी भाभी भी कक्ष में प्रवेश करती है | प्रियम्बद की पत्नी रत्ना की भाभी नीलाम्बरा युवा तुलसी को प्रणाम करती है |
वासन्ती :- लीजिये जीजा जी कुछ खा -पी लीजिये, फिर हम लोग आपको इस कक्ष में बड़ी बहिना के साथ अकेले छोड़ देंगें | अभी तो काफी रात पड़ी है | युवा तुलसी कुछ संकुचित हो जाते हैं | कदली फल का एकाध ग्रास मुंह में डालकर पय पान कर लेते हैं | नीलाम्बरा और वासन्ती वापस जानें को होती हैं | इसी बीच नीचे से एक शिशु के रोनें की आवाज आती है | गोद में दो वर्ष के एक  बालक को उठाये प्रियम्बद जी ऊपर आ जाते हैं | नीलाम्बरा उनसे पूछती है कि उनकी छह वर्षीय पुत्री सुनामा तो नहीं जग गयी | प्रियम्बद जी सिर हिलाकर बताते हैं कि सुनामा नहीं जगी है | नीलाम्बरा छोटे बच्चे को गोद में ले लेती है | वासन्ती दूध का खाली गिलास और थाल में बाकी बचे फल हाँथ में लिये खड़ी है | युवा तुलसी उठकर प्रियम्बद को प्रणाम करते हैं | प्रियम्बद स्वास्ति का हाँथ उठाते हैं पर  फिर उनमें हल्का क्रोध का भाव उभरता दिखायी पड़ता है |
प्रियम्बद :- क्यों रत्ना तूनें हम लोगों को बताया भी नहीं कि राम बोला जी को आज ही हमारे घर आना है | मेरे साथ आते समय तुम पड़ोसियों को बोल तो आयी थीं हम कुछ दिनों बाद तुम्हें वापस भेज जायेंगें | चलो राम बोला का प्यार भी आस -पास के पड़ोस के लिये किस्सा कहानी बन जायेगा |
रत्ना :- बड़े भइया मेरा इसमें कोई दोष नहीं है | मैं तो स्पष्ट निर्देश दे आयी थी कि इन्हें यहां आनें की आवश्यकता नहीं है पर शायद प्रेम की अतिशयताः के कारण ऐसा हो गया होगा |
प्रियम्बद :- आस -पास के पड़ोसी जब सुनेंगें तो क्या कहेंगें ? रत्ना अभी तेरी छोटी बहन का पाणिग्रहण संस्कार होना है ,कुछ ही दिन शेष हैं | हम लोग शास्त्री पण्डित हैं , सयंम हमारा धर्म है ,और आचरण हमारा गौरव है | नारी के प्रति किया गया प्यार ईश्वरीय भक्ति भरे प्यार जैसा नहीं होता | उसमें सदैव वासना की गन्ध होती है , और जो वासना का गुलाम है उसे विद्वान माननें का मेरा मन नहीं करता | अब प्रियम्बद वासन्ती को अपनें कमरे में जानें का निर्देश करते हैं , स्वयं कक्ष से बाहर निकल जाते हैं | नीलाम्बरा उनके पीछे बच्चे को गोद में लेकर चल पड़ती है | जाते -जाते कहती है पट बन्द कर ले रत्ना ,अब कोई नहीं आयेगा |
                                    रत्ना न जानें क्यों अपनें को अपमानित महसूस करती है | शायद बड़े भाई की बातों नें उसके मन को चोंट पहुंचायी है | रत्ना जानती है कि उसके पति वेद शास्त्रों के ज्ञाता ,जन  भाषाओं के शीर्षस्थ अधिकारी विद्वान और हीरक उज्वल चरित्र के धनी हैं | अपनें बड़े भाई द्वारा अपनें पति की विद्वता का किया गया उपहास उसकी छाती पर शूल सा गड़ता है |
                                   युवा तुलसी उठकर दीप बुझाना चाहते हैं और पट बन्द कर रात्रि शयन की सोच रहे हैं | पर वे जैसे ही दीप बुझानें के लिये उठते हैं ,रत्नावली का मुंह तमतमा जाता है | तमतमाये चेहरे से युवा तुलसी की ओर देखते हुये वह तुलसी से कहती हैं |
रत्ना :- सुन लिया धिक्कार आपनें अपनी विद्वता का | कितना बड़ा गौरव आज की रात आपनें मुझ पर लाद दिया है ?
युवा तुलसी :- रत्नें मेरी ओर एक बार प्यार की द्रष्टि से देख लो | मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा | तुम्हारे प्यार से मुझे अन्तः शक्ति मिलती है |
रत्ना :- हे विद्वद श्रेष्ठ मेरे प्रति तुम्हारा प्यार एक प्रवंचना है | वासना के जिस गुवार को तुम प्यार की संज्ञा दे रहे हो वह मनोवेगों का एक क्षणिक उफान मात्र है | यदि मेरे प्रति तुम्हारा प्यार चिरस्थायी है तो इस प्यार को भगवान् राम और भगवती सीता के प्यार में बदल कर दिखाओ | मैं आजीवन तुम्हें मन -प्राणों से प्यार करूँगीं | पर रत्ना का किया गया आज का अपमान इतिहास की एक महान उपलब्धि में बदल दो | कर सकोगे क्या ऐसा ,मेरे जीवन धन ,मेरे प्राण ,मेरे सर्वस्व ,मेरे भविष्य |
                              सहसा पीछे से महाकवि निराला के अमर पंक्तियों की गूँज |
                               धिक्, धाये तुम यों अनाहूत
                               खो दिया धर्म ,कुल धाम धूत
                                रे नहीं राम के अरे काम के सुत कहलाये |
              और फिर इसके बाद स्वर और तीब्र हो जाता है | जैसे कोई मन्त्रोचार हो रहा हो |
                                जागा -जागा संस्कार प्रबल
                                रे गया काम तत्क्षण वह जल
                                देखा वामा वह न थी ,अनल प्रतिमा वह
               युवा तुलसी रत्ना की ओर देखते हैं | एक अन्तिम द्रष्टि ,जिसमें पहले प्यार झलकता है फिर तटस्थता और फिर विराग | पट की ओर वहिर्गमन करनें से पहले कहते सुनें जाते हैं , 'रत्ना तुम्हारा प्यार भरा तिरस्कार मेरे जीवन की सबसे बड़ी बहुमूल्य पूंजी है | भारत का इतिहास इस पूंजी के काव्य निवेश से सज संवर कर हिन्दू जाति के उत्थान का अप्रतिम सोपान बन जायेगा | 'हिन्दू जाति '  शब्द युग्म को मैं सम्पूर्ण विश्व मानव धर्मिता के समानार्थी छवि चित्रों में मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ | मेरी ओर से यह अन्तिम मिलन है रत्ना | इस मिलन की याद को धूमिल मत होनें देना | पट खोलकर ,छज्जा लांघकर युवा तुलसी दीवार के सहारे शरीर सन्तुलन की असाधारण कुशलता दिखाते हुये नीचे उतरनें लगते हैं | आतुर रत्नावली छज्जे पर खड़े होकर उनकी ओर देखती है | जिसे कौन जानें तुलसी सुन पाते हैं या नहीं ?
                        " मेरे आराध्य ,मेरे पूज्य ,मेरे प्रातः स्मरणीय अपनी दासी रत्ना को जीवन में एक बार मिलने का अवसर और देना | गगन से एक स्वर गूंजता है | "
                        'एव अस्तु ,एव अस्तु ,लम्बी प्रतीक्षा करनी होगी रत्ना '

    (उपर्लिखित मानस चक्षु विम्ब अपनी पूरी नाटकीयता के साथ गहरी नींद  में न जानें कहाँ से उभर कर लेखक की चेतना को रंजित कर गया | जगनें पर उसनें इस नाटकीय विम्ब के मूल श्रोत को आलोचनात्मक ढंग से टटोला तो उसे लगा कि वह महाकवि निराला की अमर कविता 'तुलीदास ' की प्रथम दो तीन पंक्तियाँ पढ़ने के बाद दिन भर की थकान के कारण कविता संग्रह को अपनें बगल में रखकर निद्रा की गोद में चला गया था | कविता की प्रारम्भ की वह पंक्तियाँ ही शायद स्वप्न जाल को बुननें का आधार बन गयी हों | )
"भारत के नभ का प्रभा सूर्य अस्तमित आज सांस्कृतिक सूर्य है ,तमस तूर्य दिग्मण्डल "

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