Sunday 8 October 2017

                                       हम सब औरों से कुछ निराला होना चाहते हैं | निराला होनें की यह इच्छा मानव जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है | | विकासवादी विचारक यह मानते हैं कि मानव मस्तिष्क की विस्मयकारी संरचना में निराला होनें की इच्छा संगुफित है | ऐसा कब अतीत के घने कुहासे में आछन्न भू -भौतकीय युग में घटित हुआ इसकी विवेचना कर पाना अभी तक के अर्जित ज्ञान -विज्ञान से सम्भव नहीं हो पाया है | हाँ , समस्या विश्लेषण से इतना निष्कर्ष अवश्य निकाला जा सकता है कि अस्तित्व रक्षा के लिये कुछ अलग कर दिखानें की मूल शक्ति प्रेरणा ही निरालेपन की इच्छा को जन्म दे पायी होगी | लक्ष्य -लक्ष्य वर्षों तक द्विपदीय नर पशु प्रकृति के भीषण भयावह और घातक प्रहारों को झेलता हुआ अपनी अनगिनत पीढ़ियों तक निरालेपन की इस अदम्य आकांछा को प्रजनन प्रक्रिया के द्वारा विस्तारित करता चला गया | आंधी -अंधड़ ,उत्पलपात और विद्युत आघात ,भू - स्खलन ,अग्नि -वपन, धरित्री -परिदोलन , पर्वतीय और जलीय रूपान्तरण सभी कुछ चलते रहे | जीवन का स्पन्दन धीमा हुआ , मृत पाय हुआ फिर भी बचता रहा | प्रजनन की अदम्य प्रेरणा किसी न किसी प्रकार जीवन को संरक्षण देती रही | मानव सभ्यता की कहानी इतनी विस्मयकारक ,भयावह ,रोमांचक और जोखिम भरी है कि उसे केवल आंशिक रूप में ही सहस्त्रों वर्षों के शब्द वद्ध प्रयासों में विश्लेषित किया जा सका है | पर निरालेपन की आकांक्षा औरों से अलग होनें की दुर्दमनीय मनोवृत्ति व्यक्ति से उठकर समूह में होती हुयी विशिष्ट क्षेत्रों और राष्ट्रों तक अपनें परिष्कृत रूप में जा पहुंचीं | राष्ट्र की अवधारणा भी बहुत पुरानी नहीं है | मानव सभ्यता का काल भी ब्रम्हाण्ड की काल गणना में प्रकाशित उल्का की एक झलक ही तो है | इतिहासकार कहते हैं कि मानव ने समूह वद्ध होकर ही प्रकृति के अन्य चेतन प्राणियों से लड़कर अस्तित्व की लड़ाई जीती | फिर धीरे -धीरे सामूहिक आधार पर ही ग्राम ,गण और क्षेत्र राज्य बनें | आदिम जनतन्त्र का कैसा रूप रहा है इसका अनुमान मात्र ही मेधावी मष्तिष्कों के द्वारा लगाया गया है | विरोधी विचारों के पुष्ट -अपुष्ट कल्पनाओं नें और भूखण्डीय स्वार्थों ने अनेक छवि चित्र पेश किये हैं | जो सच्चायी पर सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता | पर अब इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे  दशक की समाप्ति के बाद जनतन्त्र के जिस वातावरण ने विश्व के सभ्य समाज का अधिकाँश जन समुदाय सांस ले रहा है वह व्यक्तित्व स्वतन्त्रता को सर्वाधिक मान्यता देकर उसे ही जनतन्त्र का चरम उत्कर्ष मान रहा है | दूसरे शब्दों में व्यक्ति का निरालापन आज उसकी सार्थकता का सबसे सार्थक प्रतीक है | व्यक्ति का यह निरालापन ही राष्ट्र के निरालेपन में परिवर्तित होकर राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनता जा रहा है | उदाहरण के लिये टाटा ग्रुप ने अपनी छोटी सस्ती गाड़ी नैनों को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर बाजार में पेश किया था | बिना बिजली के पानी शुद्ध करनें की तरकीब जिसे टाटा ने स्वच्छ के नाम से बाजार में पेश किया उसे भी हिन्दुस्तान की नयी खोजों के रूप में चर्चित -प्रशंसित किया गया | कुछ अन्य कार्पोरेट घरानें भी इसी प्रकार भारत की तकनीकी प्रतिभाओं को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय गौरव गाथा में अध्याय को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं | भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए ० पी ० जे ० कलाम तो जहां कहीं भी अपना प्रेरणादायक सन्देश सुनानें जाते थे वहां इसी बात पर जोर देते थे कि भारत की प्रतिभा का निरालापन यदि सहारा पा जाय तो अपनी खोजों से विश्व को चमत्कृत कर सकता है | आखिर हमारी सबसे चमकीली प्रतिभायें आई ० आई ० टी ० में प्रवेश के लिये शायद इतना अधिक प्रयास इसीलिये करती हैं कि उनकी शिक्षा का स्वरूप प्रतिभा की अपार संम्भावनाओं को चमकानें में समर्थ है | आमिर खान की फिल्म थ्री इडीयट्स में भले ही नैसर्गिक प्रतिभा को शिक्षा से अलग कर स्वतन्त्र रूप से दर्शानें की कोशिश की गयी हो पर सत्य यही है कि प्रतिभा का सम्पूर्ण पल्लवन बिना उचित निर्देश और सहायक परिवेश के बिना संम्भव नहीं हो सकता | तकनीकी प्रतिभा ललित कलाओं की प्रतिभा से एक भिन्न प्रकार की मनोशक्ति होती है | प्रारंम्भिक सीढ़ियों को जानें बिना तकनीकी ऊंचाई पर पहुँच जाना लगभग असंम्भव सा ही होता है | शिक्षा के प्रारंम्भिक वर्षों में ही किशोरावस्था के प्रारंम्भ के साथ ही विद्यार्थी की क्षमता का आभाष होनें लगता है और यहीं से हम उसके निरालेपन का आभाष पानें लगते हैं | शायद यही कारण है कि भारत सरकार 14 वर्ष तक के सभी बालक बालिकाओं के लिये शिक्षा को अनिवार्य कर रही है | इतनी विशाल जनसंख्या में सहस्त्रों प्रतिभायें इस अनिवार्य शिक्षा के द्वारा प्रकाश में लायी जा सकती हैं | पर हर उत्कृष्ट विचारधारा का एक नकारात्मक पक्ष उस समय उभर कर आता है जब हम उसका विकृत रूप स्वीकार कर उसे अपनें स्वार्थ हित में प्रयोग करनें लगते हैं | उदाहरण के लिये धर्म का विकृत रूप ही घृणा फैलाकर न जानें कितनें नर संहार करवा चुका है | नेहरू जी ने डिस्कवरी आफ इण्डिया में ठीक ही लिखा है कि जब धर्म चिन्तन की ऊंचाइयों से लुढ़क कर मात्र निर्जीव रूढ़ियों में बंध जाता है तो वह कल्याणकारी न होकर किसी भी समाज को संड़ांध से भर देता है | आधुनिक विश्व का आतंकवाद धर्म के इसी विकृत रूप को पेश करता दिखायी पड़ रहा है |
                             जिस प्रकार धर्म का निरालापन जनूनी चोला ओढ़कर हिंसा का रक्तरंजित खेल खेलता है वैसे ही व्यक्ति का निरालापन जब अपनी सीमा से मर्यादा का बन्धन तोड़कर उच्छृंखल हो जाता है तो पागलपन में बदल जाता है | अधिकाँश तो मानसिक रोगी हो जाते हैं | पर कुछ ऐसे होते हैं जो अपनें मानसिक रोग को निरालापन बताकर अन्य मानसिक रोगियों को अपनें पीछे लगा लेते हैं और नये पैगम्बर होनें का दावा करते हैं | दुनिया के किसी भी देश में नये पैगम्बरों की कमी नहीं है | मुल्ला -मौलवियों की छोड़िये ,अमरीका में भी इनकी भरमार है और भारत का क्या कहना यहां तो हर गली ,मुहल्ले में कोई न कोई पैगम्बर बैठा है | फिर भी निरालापन यदि  सर्वथा समाप्त कर दिया जाय तो विश्व वैचित्र्य शून्य हो जायेगा | भिन्नता ही आकर्षण ,विकर्षण ,संश्लेषण और विश्लेषण को जन्म देती है | इसलिये निरालापन तो रहना  ही चाहिये | हर व्यक्ति औरों के सामान भी है और औरों से अलग भी | जैविक धरातल पर वह मानव है ,सामाजिक धरातल पर वह नागरिक है पर मानसिक धरातल पर वह एक व्यक्ति है | सामाजिक संप्रेषण ,समन्वयन और सहजीवन के लिये वह अपनें मानसिक निरालेपन को समझौते के द्वारा सामाजिक आचार संहिता से मर्यादित करता है | पर यह मर्यादायें यदि उसके लिये कटघरा बन जाती हैं तो वह इन्हें तोड़कर नयी मर्यादाओं की बात करता है | और यदि उसकी द्रष्टि सकारात्मक होती है तो कालान्तर में मर्यादायें अपना रूप बदल देती हैं | परिवार ,ग्राम्य ,राज्य और विश्व के सभी स्तर पर यह चलता रहता है | कुछ परिवर्तन चर्चित होते हैं पर अधिकाँश अचर्चित रहते हैं | प्रतिगामी शक्तियां इन परिवर्तनों से टकराती हैं ,कुछ समय के लिये विजयी दिखाई पड़ती हैं फिर सिर पटक कर लौट जाती हैं  इस प्रकार का सृजनात्मक निरालापन भौतिक सन्दर्भ में बढ़ावे की मांग करता है | | ऐसा न होने पर साम्यवादी व्यवस्था का बुलडोजर ही भिन्न -भिन्न रूप और नाम लेकर राजतन्त्र का अनिवार्य अंग बनता चला जाता है |
                                              भारत ने अत्यन्त प्राचीनकाल में आत्म तत्व की तलाश में इतनें अधिक प्रयोग किये थे कि उन प्रयोगों की बहुसंख्या ही हमें कई बार उनमें किये गये सार्थक प्रयोगों की ओर से दूर हटा देती है | परमशक्ति की उपलब्द्धि का यह प्रयास सच पूछो तो उत्कृष्टता का यानि औरों से अलग निरालेपन का एक नया सोपान खोज लेने का एक प्रयास ही था | ऐसा सत्य जान लेना जो शब्दों में वर्णित ही न किया जा सके ,ऐसी जीवन मिठास पा  लेना जो गूंगे का गुड़ हो एक प्रकार का व्यक्तिगत निरालापन ही था | आज के सन्दर्भ में हमें तकनीकी श्रेष्ठता का ,मौलिक वैज्ञानिक चिन्तन का वह निरालापन प्राप्त करना होगा जिसे न केवल शब्द वद्ध किया जा सके बल्कि व्यवहार के धरातल पर भारत की बहुसंख्यक जनता को सभ्य जीवन की सुविधायें देनें के लिये प्रयोग किया जा सके ,प्रतिभा के इस निरालेपन को पल्लवित करने के लिये 'माटी ' संकल्पित रही है और रहेगी | इतिहास करवट ले रहा है | पिछली कुछ शताब्दियां अमरीका और योरोप के साथ थीं | इक्कीसवीं सदी , क्या पता एशिया के नाम लिखी जाय | अर्थशास्त्रियों नें एक खोज के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत विश्व के पूरे जी ० डी ० पी ० का लगभग 33 प्रतिशत प्रोड्यूस कर रहा था ,चीन 26 प्रतिशत ,और पश्चिमी योरोप केवल 7 प्रतिशत | अतीत का हमारा वह गौरव लगभग दो हजार वर्षों तक धुंधला होता चला गया | बीच -बीच में उसमें थोड़ी बहुत चमक आयी | निराशा और पराजय की बदलियां उसे बार -बार आक्रान्त करती रहीं | प्रकाश की जो किरणें अब दिखायी पड़ रही हैं वे एक लम्बा स्थायित्व पा सकें ,यही ' माटी  ' की अभिलाषा है | हम आप सब को फिर से ,सम्पूर्ण मन प्राण से राष्ट्र के प्रति समर्पित होनें के लिये पुकारते हैं |

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